31 मार्च 2018

दलित उत्पीड़न कानून, एक घटिया राजनीति

पॉलिटिक्स बहुत घटिया चीज है, दलित उत्पीड़न कानून के बहाने...

(अरुण साथी, पत्रकार बरबीघा, बिहार)

सर्वप्रथम, दबंगों द्वारा दलितों का उत्पीड़न एक सच है पर उससे भी बड़ा सच दलित उत्पीड़न का ज्यादातर मामले फर्जी दर्ज कराया जाना है। कोई भी कानून सामाजिक सुधार के लिए बनाया जाता है, सामाजिक दुराव के लिए नहीं। दलित उत्पीड़न का कानून आज मानवाधिकार का उलंघन जैसा है, तो क्या गैर दलितों का मानवाधिकार नहीं होता...!

आज डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर नाम पे बबाल है। रामजी क्यों जोड़ा गया जबकि इसके कई प्रमाण है। 1991 में कांग्रेसी सरकार के डाक टिकट पे ऐसा ही लिखा है। और तो और जो अम्बेडकरवादी ब्राह्मणों से घोर नफरत करते है वे नहीं जानते कि एक ब्राह्मण शिक्षक कृष्ण महादेव अम्बेडकर ने भीम राव को इस लायक बनाया और अम्बेडकर ने अपने गुरु का उपनाम लगाया फिर पिता का उपनाम लगाने में शर्म कैसा....!

खैर सब पोलटिक्स है, अब, उच्चतम न्यायालय के द्वारा दलित उत्पीड़न के कानून में थोड़ा सा संशोधन किया गया है। माननीय न्यायाधीशों ने इस बिंदु पर लंबी जिरह के बाद यह फैसला दिया होगा परंतु कांग्रेस पार्टी, लोजपा, बसपा सहित अन्य दल इसको लेकर घटिया राजनीति कर रही है। हालांकि देश का बंटवारा, लिंगायत, शाह बानो, तीन तलाक जैसे मुद्दे भी इसी के गवाह है काँग्रेस देश हित की राजनीति नही करती। 

नेताओं को इस बात से मतलब नहीं है की इसकी वजह से कितने लोगों को कितनी तकलीफें उठानी पड़ी है। जो भी लोग सामाजिक सरोकार में रहते हैं वे निश्चित रूप से जानते हैं कि दलित उत्पीड़न का ज्यादातर मामला अब फर्जी ही होता है।

हालांकि उच्चतम न्यायालय के आदेश में केवल मामले को जांच करने के बाद कार्यवाही किए जाने की बात कही है परंतु इस मुद्दे को इतना तूल दिया जा रहा है और बताया जा रहा है कि यह दलित विरोधी कानून बीजेपी की वजह से आने वाला है जबकि यह उच्चतम न्यायालय के माननीय जजों के फैसला है। तीन तलाक जैसे नारी सशक्तिकरण के मुद्दे पे भी पार्टी का यही रवैया रहा है।

अपने रिपोर्टिंग के अनुभव से मैं कह सकता हूं कि ज्यादातर दलित उत्पीड़न के मामले फर्जी होते हैं। एक मामले का अनुभव यह रहा कि एक दलित युवक ने मेरे सामने ही थाना में आकर गाली गलौज करने, मारपीट करने और दलित शब्द का प्रयोग कर गाली देने का थानाध्यक्ष को आवेदन दिया। घटनास्थल भी थाना का गेट बताया गया। वह युवक जानता था कि थाना अध्यक्ष दलित हैं इसलिए वह और भी अपने को दलित कहकर उन को उत्तेजित कर रहा था। खैर, थाना अध्यक्ष अपनी सूझबूझ से काम लिया और उसको साथ लेकर घटनास्थल पर लेकर गए स्थानीय दुकानदारों से जब पूछताछ की गई तो किसी ने भी यहां मारपीट होने की बात नहीं कही। बाद में पता चला कि यह आपसी विवाद का मामला था। थानाध्यक्ष ने उसको बहुत समझाया परंतु वह प्राथमिकी दर्ज करने पर अड़ गया। खैर, थानाध्यक्ष ने अनुसंधान में दलित उत्पीड़न की बात नहीं होने की बात कही। ऐसे कई मामले है। जिसमे ऐसा होने पे पुलिस को उगाही का सुनहरा मौका मिल जाता है। दहेज उत्पीड़न का मामला भी ऐसा ही है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना लोक कल्याणकारी का है। वर्तमान समय मे यह वोट कल्याणकारी का हो गया है। ऐसा नहीं कि बीजेपी सहित अन्य दल ऐसा नहीं करते। इसके पीछे सीधा कुतर्क दिया जाता कि बीजेपी भी कश्मीर में अलगाववादी समर्थक से मिल सरकार बना लिया। नागालैंड में भी ऐसा किया पर यह अपने जगह है। एक गलत है तो दूसरा सही नहीं हो सकता। पर राजनीति का तो यही फार्मूला है। खुद को सही साबित करने से बेहतर दूसरे को गलत बात दो।

जैसे दहेज उत्पीड़न के कानून में सुधार पर समूचे देश ने उसे स्वीकार कर लिया उसी तरह से आज दलित उत्पीड़न के कानून को सुधारकर उच्चतम न्यायालय ने एक मानवाधिकार के हित में बड़ा फैसला दिया था और इसे स्वीकार किया जाना चाहिए परंतु दलित राजनीति कार्ड खेलने वाले नेताओं को समाज सुधार से जरूरत नहीं है, देशहित से जरूरत नहीं है, उनको केवल वोट ही साधना दिखता है ऐसे में गैर दलितों को मुखर होकर दलित उत्पीड़न कानून के इस सुधारवादी फैसले को लागू किए जाने पर आगे आना चाहिए। क्योंकि दलित वोट बैंक के लिए बीजेपी सरकार पर बनी दबाव के वजह से इस कानून को फिर से उसी रूप में लागू किया जा सकता है और गैर दलितों का मानव अधिकार छीन लिया जा सकता है, आइए मुखर होइए...

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