हिंदुत्व का इस्लामीकरण या भय से देह फूलना....! बिहार में दंगे के बीच चाय चौपाल पे एक चर्चा ...
बिहार में रामनवमी जुलूस में उपद्रव के बीच ग्रामीण चाय चौपाल पे चर्चा का बाजार गर्म है। सबका अपना अपना मत है। बजरंगी उत्पातों की वजह से इंटरनेट सेवा चैबीस घंटे बंद रही। चर्चा में हिन्दू लोग ही शामिल है। सारे बहसों के बीच एक मित्र कहते है कि जो हो रहा है वह ठीक नहीं है। पर क्या किया जाए। पूरी दुनिया में मुसलमानों ने जो मारकाट मचाई है उससे सबको डर लगता है। यहां के उपद्रव पे हमलोग आधे इसका समर्थन और आधे विरोध कर रहे है पर मुसलमान ऐसा नहीं करते। हिंदुओं में कोई मार मार कोई धार धार (बचाव) करते है। मुस्लिम समाज में प्रगतिशील व्यक्ति भी धार्मिक मुद्दे पे अपने धर्म के कुरीतियों के साथ खड़ा हो जाता है। वह चाहे इस्लामिक आतंकवाद हो, तीन तलाक का मामला हो या वंदे मातरम का।
इसी बीच प्रखर नमो भक्त भैयाजी कहते है कि
"यह तुष्टीकरण के विरोध में पनपे कुंठा का परिणाम है। यह भय से देह फूलना है। मुसलमानों को दुनियाभर में दिक्कत है। हिन्दू-जैन, हिन्दू-ईसाई, हिदूं-बौद्धिस्ट, ईसाई-जैनी आदि इत्यादि समुदाय के लोग एक साथ रह लेते है पर मुस्लिम-हिन्दू, मुस्लिम-बौद्धिस्ट, मुस्लिम-ईसाई, मुस्लिम-जैनी, मुस्लिम-यहूदी आदि इत्यादि सभी जगह मारकाट मचा हुआ है। इसका संदेश साफ है। मुसलमानों को दुनियाभर में केवल अपना धर्म चाहिए। बाकी काफिर है।"
मुझपे तंज करते है-
"बड़े सेकुलर हो तो बंगाल जाओ। रानीगंज। एक डीएसपी का हाथ बम से उड़ा दिया और मीडिया खामोश है। बिहार पे मीडिया में बबाल क्या प्रायोजित नहीं लगता। भूल गए मालदा की घटनाएं। और सुनो। जहां भी मुस्लिम आबादी अधिक होगी उस इलाके से काफिरों को भगा दिया जाएगा। मार दिया जाएगा।"
इसी बहस के बीच मैंने कहा कि जो भी है।
"भारत में यह आग राजनीतिज्ञों की लगाई हुई है। देश का मानस सहिष्णु रहा है पर उसे धार्मिक अफीम से असहिष्णु बनाया जा रहा है। इसमें युवा और किशोर वर्ग आसानी से फंस जाते है। देश में चुनाव से पहले धार्मिक उन्माद फैला दिया जाता है। इसी से तो रोटी, रोजगार, मंहगाई, विकास जैसे मूलभूत मुद्दों से ध्यान हटेगा। यह बात भी सही है कि भारत मे धर्मनिरपेक्षता के मायने बदल दिए गए है। आज धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले को मुस्लिम समर्थक माना जाता है। यह सच भी है। जबकि सभी धर्मों से समभाव ही धर्मनिरपेक्षता है। यह सब केवल नेताओं और इतने सालों तक देश की सत्ता पे काबिज कांग्रेसी सरकारों की वजह से ही नहीं हुआ है बल्कि वामदल, समाजवादी, सोसलिस्ट सभी ने इसमें बराबर की भूमिका निभाई है। और तो और प्रगतिशील, उदारवादी, समाजसेवी, साहित्यकार और मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी यही करता रहा है। अखलाक से लेकर डॉ नारंग तक इसके उदाहरण भरे पड़े है। हिंदुओ के हमले में मारे जाने पे हाय तौबा और मुसलमानों के हमले में मारे जाने पे औपचारिकता। यह अंतर इस खाई को चौड़ा करता जा रहा है। अब इन बातों को सोशल मीडिया की वजह से सब समझते है।
आग लगाई जा रही है। सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर किशोरावस्था के बच्चों और युवाओं को भटकाया जा रहा है। उनके जेहन में धार्मिक उन्माद भरा जा रहा है। दोनों धर्मों के कट्टरपंथी संगठन ऐसा करने में लगे हुए है। रामनवमी जुलूस में बजने वाला संगीतबद्ध हुंकार प्रायोजित है। उत्तेजित करने वाला है। और धर्म रूपी बारूद की ढेर पे बैठे देश को जलाने के लिए नवउन्मादी नेताओं को यही रास्ता शॉर्टकट लगता है। इसके कई आइडियल देश में देख वे बौरा गए है। तेजी से वे इसे रास्ते पे चलने लगे है। ठीक उसी तरह जैसे एक दौर में राजनीति के अपराधीकरण के दौर में युवाओं का बड़ा वर्ग अपराध के रास्ते राजनीति के सत्ता पे काबिज होने लगे थे। आज वही दौर राजनीति के धर्मिककरण से चल पड़ा है। लंपड, लफ्फाडो को यही शार्टकट आसान लग रहा है सो वे धर्म का चोला पहल रहे है।
इस सबमे रही सही कसर मुसलमानों में उदारवादी तबके की खामोशी पूरा कर देती है। वह चाहे तीन तलाक का मुद्दा हो या इस्लामिक आतंकवाद का। प्रगतिशील और उदारवादी मुसलमान चुप हो जाते है। विरोध नहीं करते।
हालांकि मलाला से लेकर तस्लीमा नसरीन, तारेक फतेह तक इसके अपवाद भी है। परंतु इन अपवादों की आवाज को दबा दिया जाता है। मुस्लिम समाज उसका बहिष्कार करता है। प्रगतिशील आवाज को मार दिया जाता है।
इसी बीच एक मित्र ने पूछ लिया अच्छा बताओ पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे से मुसलमानों को क्यों नाराज होना चाहिए? वंदे मातरम क्यों नहीं कहना चाहिए? पाकिस्तान से भारत के हार पे जश्न क्यों मनना चाहिए?
मेरे पास इसका जबाब नहीं था पर मैं सोंच रहा था कि प्रगतिशील मुसलमान की खामोशी ने ही हम जैसों के पास कोई स्पेस नहीं छोड़ा की मुखर होकर कट्टरपंथियों का प्रतिकार कर सकें..फिर भी हिंसा में मरना तो आम आदमी को है। न नेताओं के घर जलेंगे, न उनकी दुकान जलेंगी... इस सबका नुकसान गरीब को ही उठाना पड़ेगा...काश की हम गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, मँहगाई से लड़ते हो हमारी नई पीढ़ी को नया रास्ता मिलता...पर वर्तमान रास्ता तो हमे पांच हजार साल पुराने आदिम युग मे ही लेकर जा रहा है...
इस सब के बीच बरबीघा के सर्बा गांव में पांच सौ घर के हिंदुओं की बस्ती में एक घर मुसलमान नस्सू मियां भी अपने घर मे शांति से रहते है। एक मित्र ने तर्क दिया। तुम एक गांव मुस्लिम का खोज दो जिसमे एक घर हिन्दू का हो जो शांति से रहे। इस सवाल का जबाब मेरे पास नहीं था। खोजते है। शायद कहीं जरूर होगा। आपके पास हो तो बताइए..
पर एक जबाब है कि हिंसा कभी धर्म का रहता नहीं हो सकता। धर्म प्रेम का रास्ता है। जो भी हिंसा के रास्ते है वे अधार्मिक है। अधार्मिक....!! आज हिंसा की वजह से दुनिया मे इस्लाम धर्म कहाँ है सोंच के देखिये..क्या हिन्दू धर्म को भी वहीं ले जाना चाहे रहे...
मेरे राम मेरे दिल मे बसते है। राम को घट घट का बासी कहा गया है। हम तो अपने राम को अपने दिल मे ही रखते है बाकी बाल्मिकी भी राम नाम लेके संत हो गेला हल। मन बहलाबे ले ई सोंचे में मनाही थोड़े न है जी... जय श्री राम...
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