मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।
समाज के विभ्रन्स आईने में
संवार कर अपना चेहरा,
तज कर अपना अस्तित्व
पहनना समाजिक मुखौटा,
मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।
मैं नहीं प्रस्तुत कर सकता
खुद को खुली किताब की तरह,
जिसमें है कई स्याह पन्ने
और कहीं कहीं धृणा
और दम्भ से लिखी गई इबारत।
मैं भला आदमी नहीं बनना चाहता।
मैं रोज सुबह उठकर
नहीं दे सकता बांग,
उनके बीच जो करना चाहतें हैं
मेरा जिबह।
काले लिबास मे लिपटे
समाजिक न्यायाधिशों के कठघरे में
साष्टांग लेट
मैं नहीं कर सकता जिरह।
मैं आदमी हूं
आदमी ही रहने दो भला मत बनाओ.
बहुत सुन्दर /....
जवाब देंहटाएंकमल कुमार सिंह