बिहार चुनाव मे पेड न्युज का जलबा हर जगह दिख रहा है और इस बैतरनी में किसी भी मिडिया हाउस ने डुबकी लगाने से गुरेज नहीं किया। पत्रकारों की स्थिति भिखमंंगों की है। चुनाव कार्यालयों में सुबह पंाच बजे से प्रत्याशियों की मख्खनबाजी कर विज्ञापन के लिए चिरौरी करते नज़र आ रहें है। प्रबंधकों के द्वार प्रति रिपोर्टर एक से तीन लाख को टारगेट दिया गया है और उसे पूरा करने के लिए लगातार दबाब भी दिया जाता है और इस सब के बीच दब जा रही है जनता के मुख्य मुददे और सच्चाई की जंग जितने के लिए सतत संधर्ष करनेवालों की आवाज। पेड न्यूज का जलबा कई तरह से दिख रहा है, एक तो यह कि एक लाख का विज्ञापन दे दिजिए प्रति दिन आपका कवरेज और स्टोरी में आपका पक्ष मिल जाएगा और एक यह कि यदि आप बिल नहीं चाहतें है तो पेड न्यूज लगेगा। भंबर में फंसी मिडिया और पत्रकारों की दुर्गति है। ब्यूरों के द्वारा विज्ञापन नहीं देने वालों को कवर नहीं करने का दबाब है और कम्युनिष्ट और समाजबाद का अलख जगा रहे नेताओं की प्रेस विज्ञप्ति रददी की टोेकरी में फेंकी जा रही है। इस सबका सामना हम जैसों को भी करनी पड़ रही है। कल एक प्रत्याशी के यहां विज्ञापन के लिए तों कुछ देर इन्तजार करने को कहा गया और उस समयसीमा में नेताजी नहीं आए और मैं वहां से चला आया। जनपक्षी समाचारों से सरोकार नहीं रखने वाले रिर्पोटर बाजी मार रहें है और मैं पिछड़ जाने की वजह से उहापोह में हूं। एक महोदय कह रहे थे रिर्पोटर नहीं अब सर्पोटर है सब और मैं बहस भी नहीं कर सका।
इसी मुददे पर कल भी बहस हो गई जब एक समाजबादी ने कहा कि सच की आवाज को दबाने का सबसे बड़ा साधन मीडिया है। जनता जिस मुददे को चाहती है और जिस प्र्र्र्र्र्र्रत्याशी ने उसे उठाया और वह संपन्न नहीं है तो उसकी आवाज दबा जी जा रही है। चैनलो में पेड न्यूज का जलबा और चरम पर है। रिर्पोटों जिन नेताओ के साथ शेर बन कर पेश आता था आज गीदर बन धूम रहा है। चैनलों की भीड़ भी एकाएक बढ़ी और नये नये रिर्पोट बिना किसी मानदण्ड के रख लिए गए और चुनाव में पैस पैस पैस का रट लगा हुआ है। हर तरफ जब पैसा ही महत्वपूर्ण है तब लोकतन्त्र का चौथाखंंभा भला हम अब कहां रह गए............
अरुण जी, किस जमाने में रह रहे हैं आप.. एक फिल्म में डायलाग था "हर कोई बिकाऊ है, बस कीमत अलग है"
जवाब देंहटाएंsabhi chennalo ke bare main sahi nahi.chandan kr.mahuaa news
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