लोक आस्था और सुर्योपासना का महापर्व छठ जहां डूबते सुर्य के पहले और उगते सुर्य को बाद में अध्र्य देेकर आराधना करने के लिए विश्व प्रसिद्ध है वहीं सामाजिक समरसता और धार्मिक सौहार्द भी इसकी बुनियाद है। छठ पर्व जहां धार्मिक सन्देश के रूप में सृष्टिकर्ता भगवान भास्कार की आराधन का प्रतिक है वहीं इस पर्व में पूजा के तौर पर प्रयोग किए जाने वाली सामग्री समाज को जोड़ने का सन्देश देती है।
खास, जिस वर्ग को हम अछूत मानते है उसी वर्ग के द्वारा बनाए गए सूप, मौनी और डाला से भगवान भाष्कर की आराधन की जाती है। बांस के छोटी छोटी कमानीयों ने डोम जाति का पूरा परिवार एक माह से रात दिन एक कर इस काम को कर रहा है और लोग उसी सूप को खरीद पूजा करते है। कुंभार जाति कें द्वारा बनाए गए मिटटी के बर्तन को ही पवित्र माना जाता है और धनवान लोगों के घरो में भी मिटटी कें वर्तन में ही प्रसाद बनाया जाता है। साथ फलों की दुकानों को मुस्लिम समुदाय के लोगों के द्वारा विशेष रूप से सजाया जाता है और छठवर्ती माताऐं वहां से फल खरीद कर सुर्य भगवान की पूजा करती है।
छठ का माहात्मय इस मायने में और बढ़ जाता है कि चार दिनों तक चलने वाले इस धार्मिक अनुष्ठान में पवित्रता का मुख्य ध्यान रखा जाता है और घर ही नहीं गलियों और सड़कों की सफाई भी प्रमुखता से की जाती है। गांवों में जहां पूजा को लेकर एक पखबाड़ा पूर्व ही तैयारी कर दी जाती है और परंपरागत लोकगीत गाती महिलाऐं सुबह चार बजे ही सुर्य के उगने से पूर्व ही कार्तिक स्नान करती है और गलियों में झाडू लगाती है।
पूजा के लिए भी प्रसाद का अपना अनूठा अन्दाज छठ पर्व देखने को मिलता है जिसमें प्राकृति को अंगीभूत करने का सन्देश जाता है। नहाय-खाय के दिन घरों में पवित्रता के साथ कददू (लौकी) का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता है तथा कददू की सब्जी के साथ साथ दाल में भी कददू के छोटे छोटे टुकड़े मिलाए जाते है। लौकी की पकौड़ी भी आज प्रमुखता से बनाई जाती है और चने का दाल तथा भात को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।
खरना के दिन पवित्रता ही उपासना का मार्ग बन कर सामने आता है और छठवर्ती माताऐं आज से जारी उपवास को तीसरे दिन खत्म करती है। लोहण्डा के दिन अरबा चावल का भात और चने के दाल तो बनती ही है पर इसमें साधारण नमक की जगह सींधा नमक और गोलकी का ही प्रयोग किया जाता है जिसे वैज्ञानिक रूप से उपयोगी माना जाता है। साथ ही प्रसाद के रूप में गाय का दूध प्रयोग किया जाता है।
पहली अध्र्य के घरों में पकबान बनाए जाते है तथा अध्र्य के लिए ईख, नारंगी, सेव, पानीफल, मूली, नारीयल सहित कई अन्य फलों का प्रयोग किया जाता है।
वस्तुत: छठ को जहां विश्व में अनुठा त्योहार के रूप में लोग जानते ही है वहीं यह सामाजिक सौहार्द का प्रतिक एक प्राकृतिक त्योहार भी है।
रचना तो अच्छी है। परन्तु क्या सचमुच ये पर्व सामाजिक समरसता का प्रतिक है। अगर ऐसा है तो वो जाति आज भी क्यों अछूत मानी जाती है। या फिर ये इंसानों का वक्त के साथ करवट बदलने का तरीका है। जिसके बनाए हुए समान के साथ हम पुरी पवित्रता के साथ पुजा करते है उसके यहॉं से लाने के बाद क्या हम उसे उसको छुने दे सकते है।
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