‘‘ये गो कंबल बाबू कही से मिल जाइतै हल तो इ पूस के सर्दीया कट जाइतै हाल, बड़ी सर्दी है बाउआ लगो है परणा ल केे जइतै’’ यह कह रहा है आज का हलकू, प्रेम चन्द की कहानी पूस की रात का नायक दशकों बाद भी गॉव और गरीब-दलित टोलों में देखने को मिल जाता है। दशकों पूर्व प्रेमचंद ने जिस पूस की रात में कड़ाके की सर्दी और एक कंबल की जद्दोजहद का चित्रण किया था जिन्दगी की वह जद्दोजहद आज भी जारी है। हाड़कंपाने वाली सर्दी और शीतलहर के लोगों को कंपकंपा कर रख दिया है। इससे बचने के लिए लोग घरों में दुबके रह रहे है पर महादलित समूदाय के लोगों के पास घर भी नहीं जहॉ दुबक कर पूस की रात काट सके। बिना किबाड़ की फूस की झोपड़ी का एक कमरा जिसमें बारह परिवार समा जाते हैं, बच्चों के तन पर चेथड़ी होती और बगल में आग जला कर मॉ उसे अपने पास समेटे रहती है। बगल में कुत्ता और सुअर भी ठंड से थरथरा रहा होता है और यह नजारा गॉव के मूसहर टोली में देखने को मिल जाते हैं ।
जिला मूख्यालय से पच्चीस किलोमीटर दूर कासीबीघा, शेरपर, ब्रहम्पुरा सहित कई गॉवों की मूसहरी का जब अहले सूबह जायजा लिया तो कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। शेरपर मुसहरी में प्रवेश करते ही जैसे की कैमरा ऑन किया रमेसर की पत्नी भड़क जाती है ‘‘कहेले फोटूआ घींचो हो, जाडा में मर रहिलीऐं और एगो कंबल नै है।’’ वही चुल्हा पर खाना बना रही परबती के बगल में चुल्हे से चिपके है बच्चे। आगे एक मॉ अपने तीन बच्चों के साथ लगभग बुझ चुकी अंगीठी के सहारे सर्दी का मुकाबला करती हुई दिख जाती है।
ठिठुरती हुई पूस की शाम में नगर पंचायत का हाल भी बेहाल दिखता है और इस बेहाली में भी प्रशासन की नींद नहीं टूटी है। अमीर लोग तो घरों में अलाव की व्यवस्था कर ठंढ से मुकाबला कर लेते है पर गरीब का सहारा सरकारी अलाव ही होता है और वह भी इस साल नदारत है। हॉ थाना चौक पर थोड़ी सी लकड़ी जला कर फर्ज की इतिश्री कर ली गई है और फाईलों पर यह कइ जगह जल भी रही है।
ठंड से ठिठुरती हुई ऑख एक कंबल की फरयाद करती हुई शायर की इन पंक्तियों के साथ कहती है ‘‘हर शाम हुई सुबह को एक ख्बाव फरामोश,
दुनिया यही दुनिया है तो क्या याद रहेगी।’’
प्रशासन हमेशा ही कुम्भकर्ण की नींद सोता है। अच्छी पोस्ट। धन्यवाद।
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