यह किसी फिल्मी कहानी सा है जिसमें रसूख के दम पर यौनशोषण की बात को दबा दी जाती है और फिर शोषिता के बेटी पर नजर खलनायक का आता है तब नायका के द्वारा अपनी जान की परवाह किये बिना खलनायक की हत्या कर दी जाती है और फिर इस पूरे प्रकरण में नायका के सच का राज जानने वाले एक पत्रकार को पुलिस राज दफनाने के लिए गिरफ्तार कर जेल में ढूस देता है।
यह अगर फिल्म में होता तो फिल्म में दर्शकों के द्वारा तालियां बजाई जाती और फिल्म सुपरहिट भी हो जाता पर नहीं यह एक हकीकत है।
यह हकीकत है पुर्णिया के विधायक राजकिशोर केशरी के हत्या के बाद रूपम पाठक का समर्पन और पत्रकार तथा साप्ताहिक क्विसलिंग के संपादक को आनन फानन नामजद कर पुलिस के द्वारा घर से पहले अपहरण किया जाना और दो दिन बाद प्रताड़ित करने के बाद जेल भेजना।
पुर्णिया के भाजपा विधायक की हत्या की नायका है रूपम पाठक पर इस कहानी के कई पर्दे अभी उठने बाकि है। यह घटना यदि दिल्ली सरीखे महानगर की होती तो मीडिया इसमें टीआरपी देखती और फिर जेसीका और अरूषी हत्याकांड की तरह इसे उछालती पर यह मामला है बिहार के एक जिले पुर्णिया का और उसपर भी सुशासन का रागदरबारी बजाने वाली मीडिया कैसे एकाएक कुसाशान का राग छेड़ दे।
रूपम पाठक प्रकरण में कुछ बातें है जो आपको भी उद्वेलित करेगी। पहला तो यह कि जब रूपम पाठक ने विधायक की हत्या की तब पकड़े जाने के बाद जो उद्गार उसके मुंह से निकला वह था मुझे फांसी दे दो। रूपम ने कभी नहीं कहा कि उसने गलती की है वह मानती है कि उसने न्याय किया है।
रूपम कौन है
रूपम पुर्णिया में राजहंस नामक एक नीजि विद्यालय की संचालिका और सुशिक्षित महिला है और इस मामले में यौनशोषण की बात सामने आती है। यौनशोषण का यह मामला रूपम के पहले रजामंदी से भी हो सकता है और इस यौनशोषण के मामले मे अवैध संबंधों को लेकर मैं कुछ नहीं कहना चाहता। पर सवाल यह है कि जब रूपम ने यौनशोषण का मामला दर्ज 28 मई को कराया तब बिहार की पुलिस और यहां की सरकार ने क्या किया इस पर नजर डाले। 28 मई को मामला दर्ज हुआ और आनन फानन में 30 मई को हमारे उपमुख्यमंत्री पुर्णिया पहूंचकर इस मामले को ब्लौकमेलिंग बताते हुए इसमें विधायक को क्लिन चिट देेते है। भला कौन सी ऐसी मजबूरी रही की उपमुख्यमंत्री ने कुछ दिन इंतजार कर इसकी जांच कराने की जहमत नहंी उठाई।
फिर रूपम पाठक पर कितना दबाब रहा होगा समझा जा सकता है। जिसके पक्ष में राज्य का उपमुख्यमंत्री कूद का पहूंच गया हो वहां पुलिस क्या न्याय कर पाएगी?
फिर इस मामले में रूपम पाठक ने मामला वापस ले लिया। इसके लिए कितना दबाब रहा होगा।
अन्ततः इस मामले ने तब नया मोड़ ले लिया जब रूपम में विधायक की हत्या कर दी। और फिर जंगल में आग की तरह मामला पुर्णिया का बच्चा बच्चा जानता है कि विधायक और उसके सिपहसलार विपीन राय रूपम पाठक की 16 साल की बेटी पर नजर डाल दिया और दबाब बनाने लगा। जब सरकार ही उसके साथ है तो रूपम क्या करती?
इस पूरे मामले की अहम जानकारी संपादक नवलेश पाठक के पास थी और उन्होंने ही अपनी अंग्रेजी विकली क्विंसलिंग में पहली बार रूपम का दर्द प्रकाशित किया और इतना ही नहीं उन्होने सच की आवाज बुलंद करने के लिए 1 जुलाई नेताओं की पोल खोलने के लिए सेक्स रैकेट में भागीदार लड़कियों का बयान प्रकाशित किया जिसका शिर्षक था यस! वी इंटरटेंड पालीटिशियंस। नवलेश बुलंदी से पत्रकारिता का अलख जगा रहे थे और पुर्णिय विधायक के हत्या के कई धंटे बाद दर्ज प्राथमिकी में उनका नाम घसीटा गया।
इस सारे प्रकरण में नवलेश को लपेटने के पीछे इस राज से पर्दा उठने से रोकना है कि कैसे नेताओं के द्वारा सेक्स के आनंद के लिए किसी भी सीमा को लंघ दिया जाता है।
अब इस प्रकरण में सीबीआई जांच की सिफारिश नीतीश कुमार ने की है पर पहले जरा अपनी पुलिस को ही इसकी निष्पक्ष जांच करने के लिए कह तो दें, देखिए दूध का दूध और पानी का पानी होता हे कि नहीं। पर नहीं बिहार के मुखीया को अपनी छवि बाहर से साफ दिखानी है और इसके लिए सीबीआई जांच एक माध्यम बना।
बहुत दुःख होता है जब बिहार पुलिस के पुर्णिया रंेज के डीआईजी अमित कुमार से पुलिस ने पुछा कि यौनशोषण के मामले में क्या कर रहें हैं तो उनका जबाब था अभी हत्या के मामले की बात हो रही है यौनशोषण की नहीं।
अंत में मैं भी रूपम पाठक के मां कुमुद मिश्रा कें इस कथन के साथ हूं की उसकी बेटी दुर्गा है।
पर एक बात है इस पूरे कथानक की नायका पाठक यदि महानगर की होती तो मीडिया के लिए यह एक बड़ा टीआरपी मशाला होता पर अफसोस यह पुर्णिया जैसे छोटे नगर की बात है जहां के बेटियों की लुटती अस्मत महानगर के निवासियों के लिए मायने नहीं रखती और यह मात्र एक साधरण खबर भर बन कर रह जाती है।
भारत वर्ष में दैत्य का नाश करने ...कोई स्त्री ही आती है ...चाहे दुर्गा रूप में या काली रूप में .....रूपं पाठक की घटना.....एक महिला को काली बनने की ओर एक अच्छा कदम है
जवाब देंहटाएंबात नगर या महानगर की नहीं रह गई है..पूरा प्रशासन ही सड़ चुका है .. समाज सड़ चुका है....पर ताली एक हाथ से नहीं बजती। समाज खुद ही नपुसंक हो गया है.....एक पत्रकार अगर जेल में है और समाज को मालूम है तो खुद क्यों नही उसके पक्ष में अलख जगाता है.....पत्रकार अभिशप्त है अकेले लड़ने और मरने के लिए। अपने फायदे के लिए यही समाज पत्रकार को आगे करता है....मगर बात में पीछे हट जाता है...समाज चाहे दिल्ली का हो या बिहार के पूर्णिया जिले का.....है दोहरे मापदंड रखने वाला.....जब अखबार में खबर छपी थी तब कहां सोया था ये समाज और क्यों नहीं जिले मे अलख जगी थी.....इस सारी समस्या को समझने के लिए इसके जड़ तक जाना होगा..न तो रुपम में जन्मा आक्रोश एक दिन का था और न ही समाज अनजान था....।
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