26 मार्च 2010
कुछ नहीं हो सकता
कुछ नहीं हो सकता
इस मुर्दों के शहर में
यहां पे बसते है
निर्जीव आदमी
चलता-फिरता
हार-मांस का।
1974 से किए गए
प्रयासों के बाद
थक कर
कहतें हैं वे
शायद ठीक भी कहतें हैं
तो क्या हुआ
मैं भी इसी शहर का हूं
और मैं मुर्दों में शामील नहीं होना चाहता.....
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