27 मार्च 2010

बिहार सरकार ने प्रथम मुख्यमन्त्री को किया उपेक्षित. हमारे पुरखे हमारे गौरव (बिहार सरकार के विज्ञापन) में बिहार के प्रथम मुख्यमन्त्री का कहीं जिक्र नहीं। विपक्ष से लेकर सत्ता पक्ष सभी खामोश। श्रीबाबू कें गांव में है निराशा.



बिहार कें प्रथम मुख्यमन्त्री डा. श्रीकृष्ण सिंह, जिन्हें बिहार के स्विर्णम निर्माण और  स्वतन्त्रता आन्दोलन में किए गए कार्यो के लिए बिहार केसारी के नाम से नवाजा गया आज उसी बिहार केसरी का नाम बिहार के निर्माण में किए गए योगदान में कहीं स्थान नहीं दिया गया। जी हां बिहार सरकार के द्वारा बिहार दिवस पर जारी किए गए विज्ञापन हमारे पुरखे हमारे गौरव में बिहार के प्रथम मुख्यमन्त्री की तस्वीर तो नहीं ही प्रकाशित की गई न ही कहीं उनका नाम ही दिया गया। बिहार केसरी के नाम से जाने जाने वाले तथा जिन्हें लोग प्यार से श्रीबाबू कहते है उनके पैतृक गांव शेखपुरा जिले के बरबीघा प्रखण्ड माउर के लोग बिहार सरकार के द्वारा इस प्रकार की उपेक्षा को लेकर काफी मर्माहत है। खास कर उनके साथ कई आन्दोलन में सक्रीय योगदान करने  करने वाले तथा उनके ग्रामीण चन्द्रीका सिंह भी इसे सरकार के द्वारा जानबुझ कर श्रीबाबू की उपेक्षा मानते है। विज्ञापन में तिलकामांझी, सर गणेश, दरोग प्रसार राय, भोल पासवान शास्त्री सहित अनेकों नामों को स्थान दिया गया और जिन्हें बिहार का गौरव माना गया पर बिहार के प्रथम मुख्यमन्त्री का नाम इसमें नहीं दिया गया है। विदित हो कि बिहार के नवनिर्माण में श्रीबाबू का नाम स्वर्णाक्षरों से लिखा हुआ है और बिहारकेसरी की जयन्ती पर नेता श्रीबाबू के विकास के मार्ग पर चलने के कसमें भी खातें है पर आज बिहार के गौरव में श्रीबाबू का नाम नहीं देकर उनको उपेक्षित करने का एक साजिश ही की है।
दूसरी तरफ इसे राजनीति से प्रेरित कदम भी बताया जा रहा है। श्रीबाबू सवर्ण समुदाय से आतें है और आज की राजनीति जिस रास्ते जा रही है उसमें महापुरूषों को भी जाति से जोड़ कर देखा जा रहा है और श्रीबाबू की उपेक्षा सरकार के इसी नज़रिये का परिचायक भी माना जा रहा है जबकि श्रीबाबू ताउर्म जाति तोड़ों के नारों को अपने साथ जीया और उस जमाने में जब छूआ छूत चरम पर था और दलितों का मन्दिर में प्रवेश निषेध था श्रीबाबू ने दलितों कें साथ देवघर मन्दिर में प्रवेश कर जाति बंधन को तोड़ने की मिशाल कायम की आज श्रीबाबू को जाति से जोड़ा जाना सचमुच दुखद है।

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