हुड़दंग आज भी जारी है मेरे दोस्त.........................
अभी अभी आंख खुली, करीब दस बज रहे है, सारे शरीर में हरारत है, थकान बहुत हो गई। देर रात तक होली खेलता रहा। सुबह सात बजे से शुरू हुई होली देर रात तक अपने चरम थी। फागुन की गीतों और ढोलक-झाल की थापों पर झूमते-नाचते लोग, गलियों में धूमना और दोस्तों के दरवाजे पर दस्तक, सबकुछ आनन्द के अतिरेक सा। सुबह मिटटी की होली जो प्रारंभ हुई तो वह दोपहर तक चली। सारे शरीर पर कीचड़ ही कीचड़, दोस्तों की बीबी को रसोई से खींच कर कीचड़ में डुबोआ, दोस्तों ने भी ऐसा ही किया। मोटरसाईकिल की डिक्की में मिटटी भरकर उसमें पानी भर दिया दो तीन मोटरसाईकिल पर सभी दोस्त सवार हो सड़कों पर हुड़दग मचाया। फैजाबाद मोहल्ले में मस्जीद के पर मिल गए वार्ड पाषर्द मो0 अनवर साफ सुथरे, स्नान कर आए थे उनके सामने मोटरसाईकिल रूकी और सभी उनपर ऐसे टुट परे मानों किसी ने माधुमक्खी के छते को छेड़ दिया हो। होली के आनन्द का अतिरेक मेरे घर में होता है। मेरी बीबी रीना से होली खेलने में सभी डरते है या कहें कि उत्साहित रहते है। मिट्टी की होली में सभी को कीचड़मय करना सभी के जबाब पर हाजीरजबाब और सभी को लाजबाब करती होली मनाती है वह। करीब एक धंटे के इण्टरवल के बाद कुर्ता पहन फिर हमलोग निकले रंगों से सराबोर होने, शाम में थोड़ी ठंढ थी सो रंगों में भींगने में ठंढ भी लग रही थी और आनन्द भी आ रहा था। शाम शाम तक भींगें। लोगों को गुलाल लगाया। पुआ और दहीबड़े का लुत्फ उठाया। देर शाम जब हमलोगो सोंचा कि अब रंग नही गुलाल से होली खेलेंगें तो महिलायें बाज नहीं आयी और रंगती ही रह गई।
मेरे गांव में फिर होलैया की टीम निकली। ढोलक-झाल पर झुमते लोग घर-घर घूम होली के गीत गाये। जलबा कैसे के भरी जमुना गहरी, जलबा कैसे के, ठारी भरी नन्दलाल जी निरखे, निहुरी भरी भींगें चुनरी, तथा यौवना के श्रृगार चोलिया काहे न लइला हो बालम और फिर अंखिया भइले लाल एक नीन्द सोऐ दे बलमुआ इन गीतों पर सारा जहां जैसे झूम झूम गया। जिनके घर मेहमान आए हुए है वहां महफिल जमती है और उनके स्वागत में होली गायी गई। मेहमानों का मतलब दामाद या बहनोई से है को अश्लील, इतनी भद्दी भद्दी गालियां दी जाती है कि सुन कर घबरा जाएगा और वह भी बुजुर्गो के श्रीमुख से, पर बुरा न मानों होली है कह दो सब खत्म, और सदाआनन्द रहे यह द्वारे होली मोहन खेले होली हो गाते हुए टीम आगे चली जाती है इस काफीले का अन्त मन्दिर में भगवान के भजन के साथ हो जाता है। हलांकि बहुत से गांव में यह परंपरा अब धीरे धीरे खत्म होती जा रही है और नई पीढ़ी मे कोई ढोलक बजाने बाला और होली गाने वाला नहीं मिलता तथा शराब रंग में भंग कर रहा है पर फिर भी होली का आनन्द अभी बाकी है।
खास बात जो होली मे अब दिखने लगी है वह है जाति और धर्म के बंधन का टूटना। मुस्लीम भाईयों ने भी जम कर होली खेली और रंगों का उत्सव मनाया वहीं मुसहर और डोम जाति के लोगों ने भी सवर्णें के माथे पर रंग लगाया। तभी तो लेमुआ डोम का बेटा विनोद मालिक के संबोधन के साथ नहीं बल्कि बबलू भैया के संबोधन के साथ माथे पर अबीर लगाया। मन प्रसन्न हो गया और यह उन्हें देखना चाहिए जो मोटे चश्में से समाज को देखते है और बांटने की राजनीति करते है।
"सही में मज़ा आया होगा... बढ़िया पोस्ट
जवाब देंहटाएंप्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com