सौ किलोमिटर लंबी सड़क पर पलती जिंदगी
हजारों मजदूरों का आसरा बना शेखपुरा का पहाड़
शेखपुरा, बिहार
अरूण साथी
साबुन सेंट बहार सिनेमा, खुश्बू इतर गुलाब की, बिछल फरस पर होवे मुजरा,
देखे मालीक टहल टहल, महल करे है चहल पहल, झोपरिया है सुनशान पड़ल,
झोपरिया में धरल डीबरिया तेल के बंदोवस्त नहीं, महल झरोखे बरे बिजरूया,
झोपरिया है अंधार परल। सर्वा गांव निवासी चंदेश्वर मांझी अपनी बदहाली और
लाचारी अपनी इस कविता के माध्यम से जाहिर करते हुए कहते है कि हमनी सब तो
भोरे चारे बजे उठ कर आवो हियै और ट्रक के सहारे सड़के पर अपन बाल-बच्चा
के जिन्दगी पालो हियै। यह कहानी है शेखपुरा के पहाड़ पर पत्थर लादने का
काम करने वाले मजदूरों की। ये मजदूर अहले सुबह जब लोग अपनी रजाई से
निकलते भी नहीं भुंजा या बासी रोटी लेकर सड़क पर आ जातें हैं और ट्रक का
इंतजार सड़क पर करते रहतें हैं। ट्रकों के सहारे हजारों की जिंदगी यहां
पलती है पर इसके लिए मजदूरों का घर सड़क ही होता है। मजदूर यहां पर
नास्ता करते है तथा भोजन भी यहीं होती है। यहां तक की कभी कभी शाम का
नास्ता भी मजदूरों को यहीं करना पड़ता है। मजदूरों का जत्था काम की आश
में सड़क के किनारे पटना जिले के वख्तयारपुर से लेकर नालान्दा जिले की
सड़क से होते हुए शेखपुरा की सड़कोें पर बैठा रहता है। उधर मोकामा से
सरमेरा हो कर आने वाली सड़क पर भी मजदूरों का जत्था काम की आश में ट्रकों
को रूकवाते नजर आतें हैं। लखीसराय जिले से शेखपुरा आने वाली सड़क मार्ग
पर भी जगह जगह मजदूरों का जत्था बैठा नजर आ जाएगा। शेखपुरा के पहाड़ के
सहारे अपने परिवार की परवरिश करने वाले मजदूर नरेगा अथवा रोजगार गारंटी
योजना के बारे में महज इतना जानतें है कि उनका कभी जॉब कार्ड बना था और
डाकघर में खाता भी खुला पर न तो जॉब कार्ड और न ही पास बुक उन्हें दिया
गया है। अपनी व्यथा बताते हुए सर्वा गांव निवासी रामविलास यादव, युगेश्वर
मांझी, महेश ठाकुर, साधु यादव तथा फुटू यादव कहतें है कि उन लोगों की
प्रति दिन की आमदनी 150 रू0 हो जाती है पर इसके लिए अपनी जान को जोखिम
में डाल कर ट्रकों को रूकवाना पड़ता है उस पर भी प्रति दिन काम नहीं
मिलता है और कई दिन सुबह से शाम तक टकटकी लगाने के बाद रात में बैरंग
वापस घर लौटना पड़ता है। इन मजदूरों कें लिए ट्रक पर पत्थर और गिटटी
लादना भी जान को जोखिम में डालने के समान है और कितनी बार खदान धंसने की
वजह से कुछ मजदूरों की जान चली जाती है। इसी तरह की अपनी व्यथा बताते
हुए मालदह गांव निवासी अरूण रविदास कहते है कि नरेगा के रूपयों पर अभी
दबंगों का कब्जा है और मजदूरों को इससे कोई लाभ नहीं मिलता और मजदूरों को
नरेगा के वनिस्पत पहाड़ में गिटटी लाद कर अच्छी कमाई हो जाती है।
इन मजदूरों कें सहारे भी कई लोग अपना रोजगार भी खड़ा कर चुकें है। इन
मजदूरों को पत्थर लादने के लिए ढोका और पंजा (जिससे गिटटी लादी जाती है)
भाड़े पर दिया जाता है और इसके लिए प्रति जत्था जिसमें चार मजदूर शामिल
होते है 30 रू0 वसुला जाता है।
बहरहाल शेखपुरा पहाड़ के सहारे हजारों जिंदगी पल रही है पर इस काम में
मजदूरों का घर सड़क ही बन गया है।
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