06 मार्च 2023

प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप

प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप

ऐसा समझो—

सम्प्रदाय अतीत है, धर्म वर्तमान है। इसलिए जब भी कोई धार्मिक व्यक्ति पैदा होगा, सम्प्रदाय से संघर्ष निश्चित है। होगा ही। सम्प्रदाय यानी हिरण्यकश्यप; धर्म यानी प्रह्लाद। निश्चित ही हिरण्यकश्यप शक्तिशाली है, प्रतिष्ठित है। सब ताकत उसके हाथ में है। प्रह्लाद की सामर्थ्य क्या है? नया-नया उगा अंकुर है। कोमल अंकुर है। सारी शक्ति तो अतीत की है, वर्तमान तो अभी-अभी आया है, ताजा-ताजा है। बल क्या है वर्तमान का? पर मजा यही है कि वर्तमान जीतेगा और अतीत हारेगा; क्योंकि वर्तमान जीवन्तता है और अतीत मौत है।

हिरण्यकश्यप के पास सब था—फौज-फांटे थे, पहाड़-पर्वत थे। वह जो चाहता, करता। जो चाहा उसने करने की कोशिश भी की, फिर भी हारता गया। शक्ति नहीं जीतती, जीवन जीतता है। प्रतिष्ठा नहीं जीतती, सत्य जीतता है। सम्प्रदाय पुराने हैं।

नास्तिकता में ही आस्तिक पैदा होगा। तुम सभी नास्तिक हो। हिरण्यकश्यप बाहर नहीं है, न ही प्रह्लाद बाहर है। हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद दो नहीं हैं—प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटनेवाली दो घटनाएं हैं। जब तक तुम्हारे मन में सन्देह है—हिरण्यकश्यप है—तब तक तुम्हारे भीतर उठते श्रद्धा के अंकुरों को तुम पहाड़ों से गिराओगे, पत्थरों से दबाओगे, पानी में डुबाओगे, आग में जलाओगे—लेकिन तुम जला न पाओगे। उनको जलाने की कोशिश में तुम्हारे ही हाथ जल जाएंगे।

— *ओशो*
भक्ति—सूत्र, प्रवचन 16 से संकलित (प्रस्तुति अरुण साथी)

*होलिका की हार्दिक शुभकामनाएं*

03 फ़रवरी 2023

देश की 40% पूंजी 1 % के हाथ में है और बजट भी उसी के साथ में है

देश को 40% पूंजी 1 %  के हाथ में है और बजट भी उसी के साथ में है


बजट को समझने के लिए अर्थ नीति का ज्ञान होना वर्तमान में आवश्यक है परंतु मोदी सरकार के आने से पहले बजट को आम आदमी की समझ का माना जाता था । खैर, 2014 के बाद बात बदल गई। लोकलुभावन बजट की परिपाटी से हटकर कठोर फैसले हुए।  इस बार का बजट ऊपरी तौर पर लोकलुभावन है।

बजट को आम आदमी की नजर से भी देखना चाहिए। कम समझ रखते हुए भी कल से बजट को पढ़ते देखते कई बातें स्पष्ट रूप से सामने आ गई।

बजट को समझने से पहले एक महत्वपूर्ण बात जो गौण हो गई उसे समझना जरूरी है। इसी जनवरी महीने में विश्व आर्थिक मंच w.e.f. के वार्षिक बैठक दावोस में हुआ । यहां ऑक्सफैम इंटरनेशनल ने रिपोर्ट पेश किया । इस रिपोर्ट को असमानता का रिपोर्ट कहा गया।


इस रिपोर्ट में कहा गया कि भारत में कुल 1% धनी लोगों के पास भारत की कुल पूंजी का 40% हिस्सा है। 

इतना ही नहीं, निचले पायदान से 50% आम लोग भारत की पूंजी के मात्र 3% पर पल रहे।

उपरोक्त दो बातों को समझ कर यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि भारत में अमीर, अमीर होते रहेंगे और गरीब को गरीब होते जाना है।


हालांकि गरीब और अमीर की असमानता के यह खाई आज की बात नहीं है। दरअसल यह मनमोहन सिंह के 1991 में लाए गए उदारीकरण की नीति का ही परिणाम है।


देश के दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां पूंजीवादी पार्टियां हैं। ऐसे में लोक कल्याण और जनकल्याण दोनों बातें अब केवल सजावटी रह गई।


गौर करने की एक बात ऑक्सफैम इंटरनेशनल के रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि देश में धनी लोगों पर 10% अतिरिक्त टैक्स लगाकर गरीबों के पढ़ाई पर खर्च किया जाना चाहिए। साथ ही  कहा कि देश में अरबपतियों पर 2% का कर लगाकर कुपोषण के शिकार लोगों को मदद पहुंचाई जानी चाहिए।


इस बजट में यह सब गायब है। 

आम आदमी की भाषा में अगर कहे तो जब भी कोई जनधन खाता, मुफ्त बिजली और मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन की बात करें तो उसको चप्पल दिखाया जा सकता है।

 क्यों? क्योंकि जनधन के ज्यादातर खाते बेकार हो गए हैं और उसमें बीमा का लाभ भी लोगों को नहीं मिलता।  क्योंकि बिजली कनेक्शन और मुफ्त रसोई गैस का कनेक्शन मुफ्त था ही नहीं। यह मायाजाल था । मतलब कि यह गरीबों को ईएमआई पर दिया गया था।


इस बजट में फिर हुआ क्या है। दरअसल इस बजट में नवाचार पर विशेष ध्यान दिया गया है। मतलब के युवाओं को अब स्वरोजगार के लिए ही मन बना लेना चाहिए। सरकारी नौकरी के आस में अपने जीवन को बर्बाद करने से बेहतर है।।

बजट को ऐसे भी समझिए । कौशल विकास कब पर खर्च 1900 करोड़ से बढ़ाकर 3517 किया गया। फार्मा सेक्टर में 100 से बढ़ाकर 1250 करोड़ किया गया। पीएम आवास में 48000 से बढ़ाकर 79590  करोड़ किया गया। एकलव्य स्कूल में 2000 से बढ़ाकर 5943 करोड़ किया गया। इलेक्ट्रॉनिक वाहन में 2908 से बढ़ाकर 5172 करोड़ किया गया। मतलब कि केंद्र बिंदु यही है।


किसानों को मिलने वाले सब्सिडी को कम किया गया । किसानों के अनाज की खरीद के बजट को कम किया गया। यह लगभग 12%  कम किया जाना इस बात का द्योतक है कि किसानों के हित में अब कोई सोचने वाला नहीं।

 किसान को अलग आमदनी की दिशा में ले जाने के लिए बजट में बढ़ोतरी की गई जिसमें मुख्य रुप से किसानों के मत्स्य पालन और डेयरी उद्योग पर फोकस किया गया है। फल उत्पादन को भी बढ़ाने के लिए बागवानी मिशन में बजट दिए गए हैं। मोटे अनाज की बात भी की गई है। हालांकि जनसामान्य तक अभी इसकी जागरूकता नगण्य है।




01 फ़रवरी 2023

Mobile Addiction: क्या हम इंटरनेट के अफीम से नई पीढ़ी को नहीं बचा पाएंगे..?

Mobile Addiction: क्या हम इंटरनेट के अफीम से नई पीढ़ी को नहीं बचा पाएंगे..?

अरुण साथी

जब मैं निम्नलिखित पंक्तियों को लिख रहा हूं तब इंटरनेट की दुनिया में 15 साल का सफर है । इस सफर में शुरुआती दिनों के इंटरनेट चलाने की जद्दोजहद और आज सर्वज्ञ इंटरनेट की दुनिया गूगल देवता से आगे बढ़कर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दुनिया का सफर तय करने का साक्षी बन रहा हूं। हालांकि मोबाइल एडिक्शन के शिकार खुद भी हूं और अनुभव से ज्यादा बड़ा हुआ है।
अनुभव है कि इन्हें निम्नलिखित पंक्तियों को लिखने पर मजबूर हुआ तो क्या हम इंटरनेट के अफीम से नई पीढ़ी को नहीं बचा पाएंगे। यह विचार मन में लगातार करौंधता रहता है। गांव में गरीब मजदूर का बेटा हो या गरीब सफाई कर्मी से लेकर गरीब किसान का बेटा, बेटी। सभी के हाथ में स्मार्ट मोबाइल है और उनमें एक खतरनाक इंटरनेट।

नवजात शिशु का खिलौना भी यही मोबाइल है तो किशोरों और युवाओं की पुस्तक भी यही मोबाइल।


बड़े बुजुर्ग के किस्से कहानी का औजार भी यही है और मनोरंजन का साधन भी।

खैर, इन सब के बीच जो इसका दुष्प्रभाव है वह कई प्रकरणों में उभर कर सामने आया है । यहां बात बच्चों पर इसके दुष्प्रभाव की है। सोशल मीडिया पर कई बार भावनाओं को भड़काने या हथियार लहराने को लेकर किशोर उम्र के लड़के पकड़े जाते हैं।


यह किशोर और बच्चे जुनूनी हो गए हैं। कभी कभी राजनीति को लेकर और ज्यादातर धर्म और जात को लेकर जुनून देखा जाता है।


धार्मिक और जातीय उन्माद से नई पीढ़ी को बचाना शायद ही अब संभव हो सकेगा।


हो यह रहा है कि धार्मिक और भेदभाव के उन्मादी विचार अब बड़ी तेजी से और आसानी से बच्चों की पहुंच में है। परिणाम स्वरूप भेदभाव का शिकार बच्चों के मन मस्तिक में बैठा जा रहा है।


इसी का परिणाम है कि बच्चे उन्मादी और कट्टरपंथी हो जा रहे हैं या आगे बढ़कर कहे कि हो गए हैं।


अभी एक स्कूल के संचालक मित्र ने बताया कि अब स्कूल के बेंच पर और ब्लैक बोर्ड पर धार्मिक उन्माद से जुड़े शब्दों को बच्चे लिख रहे हैं।


राजनेताओं को यह काम करना चाहिए पर दुर्भाग्य से वे इसे खाद और पानी दे रहे हैं। फसल लहलहाने पर वही तो इसे काटेंगे।

दुर्भाग्य से माता-पिता भी लाचार हैं। पिछले कुछ महीनों में कई मामलों का नजदीक से देखने का अवसर मिला है। बच्चों से मोबाइल छीन लेने भर से वे आत्महत्या कर लेते है। मतलब यह कि कोरोना से भी भयावह महामारी की चपेट में अब हमारी नई पीढ़ी है और दुर्भाग्य से इसके टीकाकरण की कोई पहल तक नहीं।

25 जनवरी 2023

बालिका दिवस पर ऑक्सीजन मैन के द्वारा सेनेटरी पैड बिलिंग मशीन लगाया गया

ऑक्सीजन मैन के साथ 

धुर दक्षिणपंथी और भाजपा समर्थक गौरव भैया का मंगलवार को पटना से प्रेम भैया के साथ शेखपुरा आना हुआ। वह अभ्यास मध्य विद्यालय शेखपुरा और हुसैनाबाद मध्य विद्यालय में बालिका दिवस के अवसर पर बच्चियों के लिए सेनेटरी पैड नैपकिन वेंडिंग मशीन लगाने के लिए पहुंचे थे। उन्होंने पहले ही बताया कि अभ्यास मध्य विद्यालय के प्रधानाध्यापक मुरारी जी ने उनसे संपर्क किया है। बालिका दिवस पर सेनेटरी पैड मशीन लगाया जाएगा । 

हमेशा की तरह उनका स्वागत करते हुए हम लोग अभ्यास मध्य विद्यालय और हुसैनाबाद पहुंचे। जहां वेटिंग मशीन लगाई गई । 

उनके साथ गांधीवादी प्रेम भैया भी थे। मंगलवार का दिन अच्छे से गुजरा गौरव भैया का स्नेह अपार है। उन्होंने जबरदस्ती रे वन का चश्मा भी पहनाया और फोटो सेशन भी हुआ। 
फोटो लेने में काफी उत्साह दिखाते हैं और उसे फेसबुक पर भी खूब लगाते हैं। मैं चश्मा के साथ संकोची हो जाता हूं परंतु उनकी जिद्द ने लगाने पर मजबूर किया। खैर, कल का दिन व्यस्तताओं का रहा... आज के इस दौर में दूसरों के लिए कुछ भी करने वाले कम मिलते है, गौरव भैया उनमें से एक हैं।

13 जनवरी 2023

बिहार को जातीय आग में झोंकने की तैयारी

हाय बिहार

बिहार को एक बार फिर नेताओं के द्वारा सोची समझी राजनीति और रणनीति के तहत वोट के लिए जातीय आग में झोंकने की तैयारी कर ली गई है।

 इसी तैयारी के तहत बिहार के शिक्षा मंत्री ने राम चरित्र मानस को फर्जी ग्रंथ बताकर एक बड़े वर्ग की भावनाओं को आहत करने का प्रायोजित काम किया है।


वहीं इसके माध्यम से जातीय ताने-बाने को तोड़कर अपने फायदे की रणनीति पर काम शुरू कर दिया गया है ।

2024 और 2025 तक इस आग को और पेट्रोल दी जाएगी । दुर्भाग्य से बिहार इस आग में जलने के लिए मजबूर होने वाला है। अफसोस कि नीतीश कुमार जैसे प्रखर (अब नहीं) नेता भी कहते हैं कि उनको कुछ पता नहीं, चलिए अब जाति जाति के आग में झुलसने के लिए हम लोग तैयार हो जाएं।

जाति जाति के इसी आग में झुलसने की रणनीति के तहत जातीय जनगणना का काम भी शुरू किया गया है। भारतीय जनता पार्टी के धार्मिक उन्माद को जातीय उन्माद से तोड़ने और काटने की शायद यह रणनीति बनाई गई। परंतु अफसोस की एक बड़े वोटर के धार्मिक भावनाओं से ऐसा खिलवाड़ किया जा रहा जैसे उसकी भावनाओं का कोई कद्र ही नहीं। इस तरह दूसरे धर्मों के ग्रंथों में भी कुछ शब्द है,  उसके लिए एक शब्द नेता कह कर देखें, फिर समझ में आ जाएगा।

जातीय जनगणना बिहार में एक बार फिर से नफरत को हवा दे दी है। सवर्ण समाज के लोग आशंकित हैं। और निश्चित रूप से यह मान रहे हैं कि जनगणना के बाद एक बड़े पैमाने पर दमन की राजनीति शुरू होगी। 

07 जनवरी 2023

फिल्म पठान के बहाने बेशर्मों का रंग

फिल्म पठान के बहाने बेशर्मों का रंग

अरुण साथी

पठान सिनेमा का विरोध भगवा रंग के अश्लील ब्रा पेंटी पहन कर नाचने के लिए और बेशर्म रंग गाने के बोल के लिए हो रहा है, यह सच नहीं है। यह सच होता तो भाजपा सांसद मनोज तिवारी और रवि किशन के भगवा वस्त्र पहने अभिनेत्रियों के साथ उत्तेजक और अश्लील नृत्य का वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो गया है।

एक सच यह भी है कि बेशर्म रंग गाने के विरोध के बहाने ही कई तथाकथित लोगों के अंदर की अश्लीलता सामने आई और सोशल मीडिया पर बेशर्म रंग गाने के फोटो और वीडियो उन्होंने खूब शेयर किया।
एक सच इसमें यह भी है कि यदि धार्मिक आधार पर विरोध हुआ होता तो राम तेरी गंगा मैली गाने में मंदाकिनी की अश्लीलता (कट्टरपंथियों के अनुसार) विरोध का कारण बनती, परंतु उस समय गानों के बोल से गंगा मैली नहीं हुई। 


साफ बात, सच यह है कि वे लोग (कट्टरपंथी)  शाहरुख खान (मुसलमान)का विरोध कर रहे।

कारण वही गिनाया जा रहा। पाकिस्तान परस्ती। राष्ट्रभक्ति पर सवाल। यही ढाल है। कट्टरपंथी मानसिकता को तर्कपूर्ण ठहराने का।

ऐसी बात नहीं है कि भाजपा की सरकार के संरक्षण की वजह से ही यह हो रहा है। कांग्रेस, समाजवादी, वामपंथी, ममता बनर्जी इत्यादि भी यही करती है।

कुछ ही लोग हैं जो इन चीजों की सूक्ष्मता को समझते हैं। वहीं कई लोग अपने-अपने गुणा–भाग के अनुसार विरोध करते हैं।

हालांकि सोशल मीडिया के दौर में एजेंडा के हिसाब से विरोध और समर्थन का पोल भी खुल कर सामने आ ही जाता है।

ऐसा नहीं होता तो राजस्थान में कांग्रेसी सरकार के समय नूपुर शर्मा के द्वारा एक कथित ऐतिहासिक तथ्य को टीवी चैनल पर रखने भर से किसी की हत्या नहीं कर दी जाती।

ऐसा नहीं होता तो उत्तर प्रदेश में कमलेश तिवारी पर कथित तौर पर मुस्लिम कट्टरपंथियों के द्वारा ईशनिंदा के आरोप में देश को नहीं जलाया जाता और तिवारी की हत्या नहीं होती।

राजनीतिक दल, धार्मिक संगठन, तथाकथित बौद्धिक वर्ग और सरकारें अपने-अपने हिसाब से दंगाई और गुंडों का बचाव तथा विरोध करती रही हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगा और गुजरात दंगा जैसे कई उदाहरण है।

उपरोक्त बातों के लिए केवल राजनीतिक दल और नेताओं को जिम्मेदार ठहराने का चलन रहा है। इस वजह से हम अपनी जिम्मेदारियों से बच निकलते हैं।

यह अधूरा सच है। पूरा सच पहले मुर्गी की पहले अंडा जैसा उलझा हुआ है।

नौवा़खली में महात्मा गांधी भी इन चीजों से लड़े होंगे।

अपनी समझ स्पष्ट है। धर्म के इस अफीमी उन्माद से हमारी एक पूरी नई पीढ़ी कट्टरपंथी और उन्मादी हो गई है। जो पीढ़ी रोटी, रोजगार, महंगाई की बात करती वह धर्म के उन्माद की बात करती है।


जो पीढ़ी अनुसंधान, विज्ञान, आईटी सेक्टर, रॉकेट, चांद, मंगल ग्रह की बात करती वह कट्टरपंथ की भाषा बोल रही है।

 जो पीढ़ी खेती किसानी की गुणवत्ता सुधार, अधिक उपज, गरीबों की सेवा और प्रगतिशीलता कि बात करती, वह हजारों साल पुरानापंथी परंपरा, सभ्यता, संस्कृति, संस्कार की खोखली बातें करने लगी है।


और बस, उसी तर्क में पहले मुर्गी की पहले अंडा के विवाद में वे (कट्टरपंथी) पहले तवा गर्म करते हैं. फिर मसाला बनाते हैं। फिर अंडे को फोड़कर आमलेट बना कर उसे चट कर जाते हैं। 

बात स्पष्ट है। हमारे अंदर ही घृणा और हिंसा है ।  कभी राष्ट्र के नाम पर। कभी धर्म के नाम पर। कभी जाति के नाम पर । कभी गांव के नाम पर । कभी गोतिया के नाम पर। हम इसका प्रकटीकरण करते रहते हैं।


05 जनवरी 2023

एक स्वतंत्रता सेनानी के नाम राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का पत्र

लाला बाबू के साथ मेरा परिचय बहुत पुराना है और ख्याल है, यह केवल परिचय नहीं, आरंभ से ही आत्मीयता और बन्धुत्व रहा है।

लाला बाबू के साथ मेरी पहली मुलाकात सन् 1933 ई० में हुई थी जब बरबीघा के प्रस्तावित एच० ई० स्कूल का प्रधानाध्यापक बनकर काम कर रहा था और जब वे जेल से छूटकर आये थे। जेल में उन्होंने अपनी दाढ़ी बढ़ा ली थी और चेहरे की उस रोशनी से दीप्त वे घर पहुँचे थे। उस समयं की उनकी छवि के बारे में क्या कहूँ ? बहके हुए कवि से लेकर भगवान पैगम्बर तक उन्हें कुछ भी समझा जा सकता था। मुझे उनका वह रूप खूब पसन्द आया था। पीछे जब उन्होंने चेहरे को उस रोशनी को विदा कर दिया, तब एक खास चीज उनके चेहरे से सचमुच विदा हो गयी

बरबीघा में काम करते समय मैं लाला बाबू के गहरे सम्पर्क में आ गया और ज्यों-ज्यों उनके समीप पहुंचता गया, उन पर मेरी सहज श्रद्धा में वृद्धि होती गयी। देशभक्ति का बाण उनकी हड्डी तक विंधा हुआ था और क्रान्तिकारी भावनाओं का सरूर उन पर गहराई से छा गया था। अपने परिवार के प्रति उनके भीतर मोह मुझे कभी भी दिखाई नहीं पड़ा। परिवार का सारा बोझ उनके छोटे भाई पर था, लाला बाबू देश के लिए फकीरी धारण किए हुए थे ।


स्त्री शिक्षा के लिए उनके भीतर बहुत बड़ा उत्साह था। किन्तु उनका गाँव, बिहार के प्रायः सभी गाँवों की तरह, मध्यकालीन संस्कारों में आकण्ठ डूबा हुआ था । तेऊस जमीन्दारों का गाँव था। लाला बाबू खुद जमींदार थे। लेकिन, जमींदारी संस्कारों को छोड़कर लाला बाबू चमक उठे थे, जैसे साँप केंचुल छोड़कर जगमगाने लगता है। लाला बाबू चाहते थे कि गाँव की बेटियाँ शिक्षा प्राप्त कर नयी दृष्टि प्राप्त करें। लेकिन जमींदारी संस्कृति लड़कियों को अन्धकार में रखना चाहती थी। अतएव बाज मामलों में लाला बाबू अपने गाँव में अजनबी की तरह जी रहे थे। मुझे याद है, अपने गाँव की एक सभा में उन्होंने भाषण देते हुए कहा था, हाजिरीन ! मैं चाहता हूँ कि मेरी छाती फट जाय और आप मेरे दर्द को देख लें ।

छोटे जमींदार बड़े ही नकली जीवन के आदी थे। बस पकड़ने को अगर उन्हें बरबीघा आना पड़ता तो बरबीघा तक वे कहारों के कंधे पर आते थे। मगर बस अगर शहर से बाहर पकड़ना होता तो पैदल ही सड़क तक पहुँच जाते थे। मगर, लाला बाबू का जीवन नकली नहीं था। उन्होंने अपने को उन लोगों से एकाकार कर लिया था, जिनके बीच उन्हें काम करना था। और जनता उन्हें बहुत प्यार करती थी। रोब-दाब की पेंच लाला बाबू में न आज है, न सन् 1933 में थी। फिर भी, जब मैं बरबीघा में था, लाला बाबू उस इलाके के बेताज बादशाह थे।

तब से लाला बाबू के जीवन को मैं दूर और समीप से बराबर देखता रहा हूँ और बरावर मेरा यही भाव रहा है कि लाला बाबू में स्पृहा नहीं है, स्वार्थ नहीं है, सेवा के पुरस्कार की कामना नहीं है। बिहार केसरी उनके परम आराध्य थे किन्तु उन्होंने जब लाला बाबू को अकारण कष्ट पहुँचाया, तब भी लाला बाबू का आनन मलिन नहीं हुआ, न उनके भीतर कोई ईष उत्पन्न हुई।

कांग्रेस के जो नेता और कार्यकर्त्ता आज बिहार में काम कर रहे हैं, उनके बीच लाला बाबू का मैं अरयंत श्रेष्ठ कोटि में गिनता हूँ।


 आदमी की सफलता पदों की भाषा में नहीं आंकी जानी चाहिए। पद सिधाई से हासिल नहीं होता, न सिधाई से चलनेवाला आदमी पदों पर ठहर पाता है। दुनिया को रोशनी उन लोगों से नहीं मिलती, जो दुनियादारी की दृष्टि से सफल समझे जाते हैं। सफलता चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो, वह सीमित चीज है। रोशनी की धार बड़ी असफलताओं से फूटती है। राम, कृष्ण, ईसा और गांधी असफल होकर मरे, इसीलिए वे संसार को आज तक प्रकाश दे रहे हैं। इसी प्रकार, विनोवा, साने गुरुजी, जयप्रकाश और कृपलानी असफलता के उदाहरण हैं। इसीलिए उनके साथ रोशनी जुड़ी हुई हैं।

सफलता पायी अथवा नहीं, 
उन्हें क्या ज्ञात ? 
दे चुके प्राण । 
विश्व को चाहिए उच्च विचार ? 
नहीं, केवल अपना बलिदान ।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर



12 दिसंबर 2022

आचार्य ओशो रजनीश मेरी नजर से, जयंती पर विशेष

आचार्य ओशो रजनीश मेरी नजर से, जयंती पर विशेष

अरुण साथी

भारत के मध्यप्रदेश में जन्म लेने के बाद कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी करते हुए एक चिंतक के रूप में आगे बढ़ते हुए विश्व के शक्तिशाली देश अमेरिका सहित पूरी दुनिया की सरकार को धर्म और अध्यात्म से डरा देने वाले आचार्य ओशो रजनीश को पढ़ लेना आदमी को, आदमी बनने जैसा है। ओशो कौन थे, इसे बस इस बात से समझ लें की पूरी दुनिया के देशों ने उन्हें अपने देश में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया। अमेरिका ने स्वीट पाइजन देकर उनकी हत्या करा दी।

आचार्य ओशो रजनीश को भले ही लोगों ने भगवान रजनीश कहना शुरू कर दिया हो परंतु भौतिकवादी से परहेज नहीं करते हुए शारीरिक सुख से आत्मिक सुख की व्याख्या कर संभोग से समाधि तक के सफर को तर्कपूर्ण ढंग से व्यक्त करने वाले चिंतक आचार्य ओशो रजनीश निश्चित रूप से सर्वधर्म समभाव और मानवतावादी एक अवतारी पुरुष थे।


वर्तमान समय में देश और दुनिया भर में धार्मिक कट्टरता का बढ़ना और धर्म के आधार पर अपने अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए मनुष्यता की हत्या बेहद खतरनाक दौर में है। इस दौर में ओशो की प्रासंगिकता सर्वाधिक बढ़ जाती है।


आचार्य ओशो रजनीश ने यूरोपीय देश में रहते हुए भी ईसाईयत पर भी जमकर प्रहार किया। वही इस्लाम पर भी कई करारा चोट किए। हिंदू धर्म की भी जमकर आलोचना की। कहने का मतलब यह कि आचार्य ओशो रजनीश ने मनुष्य को धार्मिक बनने की सीख दी, ना कि धर्म के आधार पर आडंबर करने की।

ओशो की कई बातें आज ही जेहन में हमेशा विपरीत परिस्थिति में कौंध जाता है। बचपन के उस दौर में जब बहुत कम समझ थी। एक ग्रामीण किशोर था। उसी समय ऊपर से कवर फटा हुआ एक पुस्तक हाथ लगी।  कबाड़ के ढेर से उठा उस पुस्तक को जब पढ़ना शुरू किया तो बरबस ही रोचक लगने लगी। उस में पढ़ी गई बातें आज भी जीवन के हर मोड़ पर काम आता है । पुस्तक में पढ़ा की एक राजा ने वित्त मंत्री के लिए एक नौकरी निकाली। उसमें बड़ी संख्या में गणित के विशेषज्ञों ने आवेदन दिया। राजा ने उसमें से कुछ लोगों को चयनित कर के एक बड़े से कमरे में बंद कर दिया। शर्त रखी कि अपने हिसाब किताब जोड़, घटाव कर जो बाहर आएगा उसे ही मंत्री पद मिलेगा । सभी विद्वानों ने गणित के हिसाब से जोड़ , घटाव, गुणा, भाग करना शुरू कर दिया। उसी में से एक व्यक्ति शांत चित्त होकर बैठ गया। कुछ देर के बाद अचानक से उठा और दरवाजा खोलकर बाहर चला गया।

 इस छोटी सी कहानी के माध्यम से ओशो रजनीश ने यह बताया कि सत्य को खुद महसूस करो। तब उसे मानो। जब सत्य की खोज करोगे तो जो सत्य है वह अवश्य मिलेगा। बशर्ते उसे कोई खोज करने वाला हो। इसलिए वह व्यक्ति पहले इस सत्य को खोजने गया कि दरवाजा बंद है अथवा खुला हुआ।

ओशो रजनीश ने स्पष्ट कहा कि ईश्वर है । यह मैं भी मानता हूं। परंतु तुम ईश्वर को खुद जानो तब मानो। किसी के कहने पर मत मान लो। जैसे कि पंडित, मुल्लाह, पोप के कहने से अथवा माता-पिता के कहने से तुम ईश्वर को मान लेते हो।


आचार्य ओशो रजनीश ने यह भी कहा कि आदमी का धर्म क्या होगा इसे बस इतनी सी बात से समझ ले।  कोई मुसलमान के घर में जन्म लिया बच्चा यदि हिंदू के घर पलता है और हिंदू के घर जन्म लिया बच्चा मुसलमान के घर पलता है, तब उसका धर्म क्या होगा? बस इसी बात से तुम्हारे धर्म की व्याख्या हो जाती है।


आचार्य ओशो रजनीश ने अष्टावक्र गीता से लेकर बुद्ध , महावीर लाओत्सो, कन्फ्यूशियस आदि के उदाहरणों को लेकर अपने तर्क की कसौटी पर उसे कसा और दुनिया भर के लोगों को एक नया संदेश दिया। नया जीवन दिया। एक नया मानव बनाया।




लोगों को प्रेरणा भी दिया है। एक कविता, उसी के है साहिल उसी के किनारे , तलातुम में फस कर जो दो हाथ मारे।


 इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से व्याख्या किया है कि किनारे पर बैठने वालों को कभी कुछ हासिल नहीं होता। हासिल वही करते हैं जो तूफान में उतरकर, समुंद्र की गहराइयों में उतर कर दूसरे किनारे तक जाने का हौसला करते हैं ।


एक बड़ी सीख जो मेरे लिए जीवनमंत्र है वह यह कि अपने एक प्रवचन में उन्होंने कहा to behole to be preserved। बचना चाहते हो तो झुक जाओ। उदाहरण में बताया कि तूफान जब आता है तो बड़े-बड़े दरख़्त उखड़ जाते हैं परंतु घास जो झुक जाता है वह बच जाता है। मेरे लिए उनका एक और शब्द जीवन का मूल मंत्र रहा जिसमें उन्होंने कहा की पराजय के क्षण में जो टिक सकता है और विजय में जो हट सकता है। उसका अहंकार तिरोहित हो जाएगा । मतलब अहंकार खत्म होगा। उन्होंने समझाया कि अंधकार ही है जो पराजय में हमें छुप जाने और विजय  में सीना तान कर आगे आने के लिए प्रेरित करता है।




किशोरावस्था में ओशो रजनीश के पढ़ लेने का ही परिणाम था कि प्रेम में पड़ गया।  उन्होंने प्रेम की जो व्याख्या की वस्तुतः वही प्रेम है। शादी विवाह के आडंबर से हटकर उन्होंने प्रेम को प्राथमिकता देने की बात कही। वर्तमान समय के आधुनिक युग में जैसे हम खुद को कबीलाई युग में ले जा रहे हैं और धार्म, सभ्यता, संस्कृति के नाम पर गलत को ही सही ठहराने का चलन है।

ओशो रजनीश ने अपने प्रवचनों में स्पष्ट रूप से कहा कि विवाह नामक संस्था एक समझौता है इसमें प्रेम नहीं है। यह भी कहा कि बाद में प्रेम हो जाए यह संभव है। परंतु प्रेम अगर हो तो ही जीवन सफल और सार्थक होता है। प्रेम विवाह को असफल होने और तलाक के बिंदु पर एक प्रश्न के जवाब में आचार्य ओशो रजनीश ने कहा था कि जब प्रेमी और प्रेमिका प्रेम में होते हैं तो विवाह से पहले जब मिलते हैं तो दोनों अपने-अपने अच्छाइयों को ही दिखाते हैं। और देखते हैं। ऐसे में जब दोनों विवाह के बंधन में बंधते हैं तो उनकी बुराइयां सामने आती है और दोनों को आघात लगता है। यही मूल कारण है कि प्रेम विवाह कई बार असफल होते हैं। यदि हम बुराइयों को देख लें और दिखा दे तो असफलता कम होगी।


आचार्य ओशो रजनीश का मूल मंत्र ध्यान था। उन्होंने संगीत के स्वर लहरियों पर झूमते हुए नाचने को भी ध्यान कहा और संभोग से समाधि तक अपने विवादित पुस्तक में संभोग की प्रक्रिया को भी ध्यान का एक माध्यम बताया और तर्क की कसौटी पर उसे कस दिया।

ओशो ने हंसने गाने को सर्वश्रेष्ठ ध्यान माना। ओशो अपने अपने धर्म को हंसता हुआ धर्म कहते हैं।


 उन्होंने मुल्ला नसरुद्दीन के बहाने कई ऐसे ऐसे चुटकुले सुनाए जो लोटपोट कर दें।

ओशो की एक बात जो सबसे अच्छा लगी वह यह कि उन्होंने यह भी कहा कि तुम वही लोग हो जो तुम्हें चांद दिखाता है तो तुम उसकी उंगली ही पकड़ लेते हो। ईश्वर चांद में है। उंगली में नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि महावीर, बुद्ध, रैदास, कबीर ने मूर्ति पूजा का विरोध किया तो लोग उनकी ही मूर्ति बना कर पूजा करने लगे। कबीर ओशो के आत्मा में बसे। धर्म ग्रंथों की जो व्याख्या आचार्य ओशो रजनीश ने की वैसे व्याख्या देखने सुनने को नहीं मिली। कबीर के दोहों को उन्होंने नया आकार दे दिया। 11 दिसंबर पर उनकी जयंती को लेकर आचार्य को मेरा प्रणाम कि मुझे आदमी बनाया।

27 नवंबर 2022

समीक्षा : खाकी द बिहार चैप्टर , Netflix पर आईपीएस अमित लोढ़ा और महतो गिरोह

समीक्षा : खाकी द बिहार चैप्टर , Netflix पर आईपीएस अमित लोढ़ा और महतो गिरोह

Netflix जैसे मोबाइल ओटीपी मंच पर बिहार के उस दौर की कहानी को आईपीएस अमित लोढ़ा की जुबानी सीने पर्दे पर उतारना और सच के करीब ले जाना अपने आप में बड़ी बात होती है । नेटफ्लिक्स पर बीती रात जागकर खाकी द बिहार चैप्टर के सभी सात सीरीज को एक बार में खत्म कर दिया  । 2005/06 तक के उस दौर को खूनी खेल, अपहरण, रंगदारी,जातीय संघर्ष के लिए जाना जाता है।

उसी दौर के आसपास आईपीएस अमित लोढ़ा ने कुख्यात महतो गिरोह के कहानी को द बिहार डायरी उपन्यास में संजोया तो नेटफ्लिक्स पर प्रख्यात  निर्देशक नीरज पांडे ने वेब सीरीज का रूप दे दिया।


वेब सीरीज में बिहार के एक पुलिस अफसर के जद्दोजहद और अपराध तथा राजनीतिक गठजोड़ के साथ अपराधी का जातीय संरक्षण, सभी कुछ इसमें है । पूरे वेब सीरीज को सच्चाई के आसपास रखते हुए प्रस्तुत किया गया है। हालांकि रोचकता के लिए कहीं कहीं मिठास की चासनी भी है ।


पहली ही कड़ी वहीं से शुरू होती है जहां से चंदन को ठोकने जा रहे एक दरोगा को राजनीतिक दबाव में वापस बुला लिया जाता है । फिर कहानी में दबंगों का वर्चस्व और हत्या, अपहरण का दौर सब कुछ है। पूरी कहानी जिले के कसार थाना के इर्द-गिर्द है।

कसार थाना आज भी अपनी जगह पर है। परंतु इस वेब सीरीज में मुख्य केंद्र यही थाना है । इस थाना के आसपास के गांव का यह ताना-बाना है। उन गांव में आज ही महतो गिरोह के आतंक को लोग याद करते हैं। इस वेब सीरीज में गिरोह के आतंक को मानिकपुर नरसंहार से रेखांकित किया गया है।


पूरी सीरीज को बहुत ही बारीकी से बुना गया है और अगली कड़ी देखने के लिए प्रेरित दर्शक हो जाते हैं । द वेडनसडे फिल्म जिसने भी देखी है वह नीरज पांडे का फैन है। तो इसमें उनके द्वारा सभी किरदारों और पूरी कहानी को जीवंत कर दिया गया है।

आशुतोष राना जैसे बड़े कलाकार भी इसमें हैं परंतु उनके किरदार को कम स्पेस दिया गया। रवि किशन का किरदार भी प्रभावशाली रहा। वहीं अमित लोढ़ा का किरदार कर रहे करण टेकर बखूबी अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। चंदन महतो के अभिनय में अविनाश तिवारी ने पूरे चरित्र को जीवंत कर दिया है।

खैर, इस सीरीज में चवनप्राश का किरदार खास रहा। चंदन महतो को कुख्यात बनाने और उसके अंत की पटकथा लिखने तक में।

शेखपुरा जिला के एसपी रहते हुए अमित लोढ़ा ने वाकई में गिरोह का सफाया किया। उसके खौफ को शेखपुरा के सड़कों पर उसे घुमा कर अंजाम तक पहुंचा दिया।

बस एक बात है कि सीरीज का चमनपरास आज राजनीति समाज सेवक है। चंदन महतो का आज भी जेल में ही सही, पर मौज है ।

और हां, आईपीएस अमित लोढ़ा एक बार फिर विभागीय चक्रव्यूह में फंसकर उसी तरह तड़प रहे हैं जैसे वेब सीरीज में।

भले ही बिहार के जंगल राज के दौर की सच्चाई को बयान करती हो परंतु वर्तमान में भी बहुत कुछ नहीं बदला है। अगर बदला होता तो इसी जिले में शराब तस्कर की पिटाई का आड़ लेकर दबाव बनाने के लिए वर्तमान पुलिस अधीक्षक कार्तिकेय शर्मा का पुतला सत्ताधारी दल के द्वारा नहीं जलाया जाता।

इसी जिले ने टाटी नरसंहार में नौ राजनीतिज्ञ की हत्या, दो प्रखंड विकास पदाधिकारी की हत्या, एक कन्या अभियंता की हत्या और जिले के संस्थापक,  दिग्गज राजनीतिज्ञ पूर्व सांसद रहे राजो बाबू की लाश खामोशी से देखी है।

उस दौर के कई कुख्यात लोग आज भी खादी पहनकर लहराते हुए दिखाई दे रहे हैं। बहुत कुछ नहीं बदला है, परंतु समय तेजी से बदल गया। कुल मिलाकर वेब सीरीज शानदार है। पटकथा लेखन, संवाद अदायगी, अभिनय, साज-सज्जा और लोकेशन, सभी कुछ।

वेब सीरीज को 10 में 9 अंक दिया जा सकता है।

16 नवंबर 2022

निरंकुश पत्रकारिता के दौर में स्व नियोजन की बात


Arun Sathi
जब चारों ओर घनघोर अंधेरा हो तो दो तरह के काम किए जा सकते हैं। पहला, हम भी अंधेरे का आधिपत्य स्वीकार कर लें और उसी का साथ हो कर कर सुखचैन का जीवन यापन करें । दूसरा, हम दीया बन जाए। टिमटिमाते दीया। तब क्या होगा। आचार्य ओशो रजनीश कहते हैं कि अंधेरे का अपना अस्तित्व नहीं होता है। जहां भी।जहां कहीं भी रोशनी होगी, वहां से अंधेरे का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।



जीवन के हर क्षेत्र में दीया बनने की जरूरत है। वह चाहे समाज हो शासन-प्रशासन हो या सीधा-सीधा कहे तो न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और चौथा खंभा भी । ऐसी भी बात नहीं है कि वर्तमान और भूत काल में दीया लोग नहीं बने हैं। खुद जले हैं और प्रकाश फैलाया है। बस हमारे समाज की यह प्रवृत्ति रही है कि वह अच्छाई की चर्चा गाैण कर, बुराई की चर्चा में स्वाद लेता है।
 

आदरणीय कुलदीप नैयर का एक आलेख  सेमिनार से उद्धृत कर रहा हूं। उन्होंने कहा था कि पत्रकार को कभी डीएम, एसपी, जज नहीं समझना चाहिए। दूसरी बात उन्होंने कही थी कि पत्रकार का पेशा नहीं है । यह राष्ट्र और समाज निर्माण की भागीदारी का मंच है। जिम्मेवारी है। पेशा यदि करना हो तो इसके लिए समाज के कई क्षेत्र खाली हैं। वही करना चाहिए।


दुर्भाग्य से इस एक दशक में अचानक से सब कुछ बदल गया है। कर लो दुनिया मुट्ठी में जब यह स्लोगन रिलायंस ने दिया उस समय किसी ने नहीं सोचा होगा कि सच में एक मोबाइल पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेगा।
 

हम में से कई साथी उसी दौर के पत्रकारिता कर रहे हैं जब कार्यालय, अस्पताल और चाय की दुकानों से खबरें ढूंढनी पड़ती थी। आज  व्हाट्सएप पर खबरें   चलकर हमारे पास आ जाती है। इस वजह से यह बहुत मुश्किल दौर है। इसी वजह से फेक न्यूज़ का दौर भी है। इसी वजह से पत्रकार  का सम्मान और गरिमा में चौतरफा गिरावट है। न्यूज़ चैनल के ब्रेकिंग न्यूज़ की आपाधापी से निकलकर अब मोजो का युग है। मोबाइल जर्नलिस्ट।  खबर कहीं बनी, हर कोई मोबाइल में उसे कैद कर अपने चहेते लोगों को भेजता है । सोशल मीडिया पर लगाता है । वहां से खबरें प्रसारित हो जाती है।


फिर शुरू हो जाता है पीपली लाइव फिल्म जैसा नजारा। ठीक पीपली लाइव फिल्म में जो होता है वह आज होते हुए आप देख सकते हैं। वह चाहे पटना में ग्रेजुएट चाय वाली का मामला हो, हरनौत का सोनू हो अथवा नवादा में छह लोगों के आत्महत्या के बाद लाशों पर गिद्धों के मोबाइल लेकर मंडराने का, यही सब कुछ देखने को मिल रहा है।


हम सोशल मीडिया के जिस दौर में जी रहे हैं वहां निंदक नियरे राखिए अथवा नहीं, दूर से भी निंदक आपकी निंदा करेंगे । अभी हाल ही में एक बारात में कुछ लोग गए हुए थे। बहुत अच्छी व्यवस्था थी। खूब मिठाई खिलाया गया। गांव के एक बुजुर्ग जो अक्सर चुगली करने में माहिर होते हैं उनसे जब पूछा कि कैसी व्यवस्था है।  उम्मीद थी कि वह कहेंगे कि बहुत शानदार परंतु उन्होंने उस पूरी व्यवस्था में भी कमी खोज ली और कहा कि सब कुछ तो ठीक था परंतु रसगुल्ला बहुत अधिक मीठा था।

मोबाइल जर्नलिज्म के इस दौरान सोशल मीडिया पर खबरों का पोस्टमार्टम भी होने लगा है। अब यदि किसी बाहुबली, दबंग अथवा गैंगस्टर के विरोध में खबरें चलती हैं तो सोशल मीडिया पर उसका पोस्टमार्टम उसके गिरोह के सदस्य सक्रिय होकर करते हैं। कभी कभी तो ऐसा लगने लगता है जैसे सही में सही खबर को उठाकर गलती कर दिया गया हो। सोशल मीडिया पर कम उम्र के लड़कों के हावी होने का ही नतीजा है कि यदि कोई पिस्तौल के साथ अपनी तस्वीर और वीडियो लगाता है तो सभी लोग वाह-वाह करने लगते हैं । मुझे लगता है कि यदि कोई यह भी लिख दे कि वह किसी की हत्या आज कर दिया तो कई लोग उसकी तारीफ कर देंगे आज हम इसी दौर में जी रहे।

परंतु इस दौर में से हमें अच्छी चीजें निकालनी होगी । उदाहरण  खुद बनना होगा। तभी समाज में बदलाव होगा। जैसे पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने कहा है कि हम बदलेंगे युग बदलेगा । हालांकि आज हमारी मानसिकता है कि युग बदल जाए परंतु हम नहीं बदले।

02 नवंबर 2022

सोशल मीडिया की आभासी दुनिया से आत्मीय संबंध तक । एक अनुभव

#आभासी दुनिया से #आत्मीय संबंध तक

सोशल मीडिया पर एक दशक बाद सबकुछ बदल गया है। #धार्मिक उन्माद का चरमोत्कर्ष,   जातीय गोलबंदी, #सायबर माफिया, झूठे समाचार, दूसरे को नीचा दिखाना, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बताना, वैभव दिखाना, लड़कियों को आकर्षित करना, विवाहेत्तर संबध की तलाश आदि इत्यादि का आज यह बड़ा मंच गया। 
एक दशक पहले, उस दौर के आभासी दुनिया के लोग आज आत्मीय है। वैचारिक मतभेद के बाद भी कभी किसी को नीचा नहीं दिखाया गया। ऐसे ही दो विचारधारा के लोग आज  #मित्रवत है। घूर दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रबल समर्थक सुधांशु शेखर और आधा अधूरा वामपंथी विचारधारा के समर्थक अरुण साथी।
सुधांशु शेखर 7 साल से #ऑस्ट्रेलिया में है। वहां की नागरिकता ले ली है। एनआरआई बन गए। बीजा लेकर अपने घर आए हैं। पुराने गया जिला के कुर्था थाना के उत्तरामा गांव निवासी हैं। अब उनका गांव अरवल में। 
दक्षिणपंथी विचारधारा का इसलिए कि जब भी कभी नरेंद्र मोदी के विरुद्ध, हिंदुत्व के विरुद्ध अथवा सेकुलर से संबंधित पोस्ट किया इनके तीखे कमेंट मिले। कभी कभी फोन करके एक घंटा से अधिक समझाया।

हिंदू मुस्लिम को इनके द्वारा मुसलमानों की धार्मिक survival का सवाल बता कर अक्सर डरा कर चुप करा दिया जाता है। मुसलमानों का हिंदू, ईसाई, सिख, बौद्ध, यहूदी किसी के साथ सामंजस्य नहीं करने का और दूसरे धर्म के लोगों को काफिर मानने का तर्क निरुत्तर कर देता है।
खैर, इससे अलग ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न से चलकर एक बार फिर अपनी धरती को देखने के लिए बिहार पहुंचे। पटना, बेगूसराय होते हुए मुझसे भी मिलने के लिए आए। तीन दिनों का सानिध्य रहा। अपने बरबीघा के आसपास जो भी जगह थी उसे देखने के लिए ले गया। छठ पूजा का वैभवी देखा और आध्यात्मिक जुड़ाव से भी अनुभव किया। 10 सालों के बाद बहुत कुछ बिहार में नहीं बदलने की बात भी कही । यह भी कहा कि बिजली की व्यवस्था दुरुस्त हो गई है। परंतु सड़क पर गड्ढे ही गड्ढे हैं। हालांकि हम लोगों के लिए सड़क बेहतर है परंतु ऑस्ट्रेलिया के हिसाब से नहीं।
सबसे खास बात यह कि ऑस्ट्रेलिया में बसने के बाद भी उनमें तड़क-भड़क नहीं दिखा। यहां से दिल्ली जाने के बाद मेरे को तेरे को करने वालों के जैसा ऐंठन भी नहीं दिखा। आम चाल बोलचाल की भाषा हिंदी और मगही में बातचीत। साधारण खानपान के बीच उनको विदा कर दिया। आज सोशल मीडिया के वजह से आभासी दुनिया से निकलकर हम लोग आत्मीय संबंध में जुड़ गए हैं और मित्रवत है। बस बहुत है।

नोट: बिहार केसरी का जन्म भूमि, अमामा महाराज का किला भी दिखाया।

29 अक्तूबर 2022

ब्राह्मणवाद से आजादी, छुआछूत से आजादी

ब्राह्मणवाद से आजादी, छुआछूत से आजादी


ब्राह्मणवाद और छुआछूत हिंदू धर्म के लिए इसे सबसे बड़ा अभिशाप माना गया है। इसी को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करके हिंदू धर्म के विरुद्ध प्रचार करने में बड़े-बड़े महारथी लगे रहते हैं। इसी का परिणाम है कि एक बड़े वर्ग में हिंदू धर्म को लेकर घृणा का भाव व्यापक रूप से देखा जाता है। व्हाट्सप्प विश्वविद्यालय इसमें काफी कारगर साबित हो रहा।
हालांकि मैं हिंदू धर्म का ध्वजवाहक नहीं हूं परंतु एक हिंदू हूं। सनातन धर्म को मानता हूं। इसी वजह से सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखता हूं। 

बचपन से कुछ चीजों को देखता रहा हूं जिसको लेकर अब समझ बनी है कि ऐसे सकारात्मक बातों को प्रचारित नहीं किया गया।   

इसी में छठ महापर्व भी शामिल है। छठ महापर्व पर ब्राह्मण से किसी तरह का पूजा नहीं कराया जाता। सारा विधि विधान परंपरागत रूप से की जाती है।

जातीय छुआछूत मिटाने को लेकर डोम जाति से सूप दौरा लेकर उपयोग किया जाता है। उसी में अर्घ्य पड़ता है। माली से फूल लेने, पासी से पानी फल लेने, धोबी से पलटा (व्रती का कपड़ा ) लेने सहित कई जातियों की उपयोगिता इसमें है।

सबसे खास बात के छठ घाट पर सभी जाति के व्रत करने वाली एक साथ भगवान सूर्य की उपासना करते हैं। सभी लोग जब सूर्य की उपासना में अर्घ्य करते हैं तो बगैर जाति देखें जल अर्पण करते हैं। यहां तक कि छठ व्रत करने वाली महिलाओं को बगैर जाति देखे सभी लोग पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं।


18 अक्तूबर 2022

सुखी दांपत्य जीवन का राज

सुखी दांपत्य जीवन का राज

अरुण साथी, (हास्य व्यंग्य)

किसी संत पुरुष ने पत्नी की बनाई कड़वी चाय की प्रशंसा की और अपने भक्तों को सुखी दांपत्य जीवन का इसे ही राज बताया। जब से यह ज्ञान प्राप्त हुआ है इस मंत्र को मान लिया गया है। इस मंत्र रूपी नुस्खे को कई बार आजमाया है। जैसे कि कलेजा पर पत्थर रखकर  पत्नीजी को गाहे-बगाहे रूपमती और गुणवंती बताते रहना पड़ता है। इसका सीधा असर सुखी दांपत्य जीवन पर पड़ता है।
 

पत्नी जी को पति से प्रेम हो अथवा नहीं हो परंतु मिर्ची से प्रेम नैसर्गिक है। सो है। आप एक लाख बार कोशिश कर लीजिए इस अटूट प्रेम बंधन को तोड़ना असंभव होगा। इसी मिर्च प्रेम की व्याख्या पत्नी जी के सामने जब करना पड़े तो वहां भी संत का मंत्र काम आता है। पत्नी जी ने आज मशरूम बनाई। खाने के बाद एक मित्र का कॉल आ गया। पत्नी जी वहीं थी। बस क्या था। सुखी दांपत्य जीवन का मंत्र अपना लिया। जब दोस्त ने पूछा कि क्या खा रहे हो और कैसा बना है मैंने कहा, पत्नी जी के हाथ में तो जैसे जादू है। इतना स्वादिष्ट मिर्चाय मशरूम बनाई है कि वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। स्वाद ऐसा है कि खाते-खाते  आंखों से झर झर खुशी के आंसू बह रहे हैं।  और तो और खाने के तुरंत बाद रसोई में जाकर एक मुट्ठी चीनी से आतीशी स्वाद को  काबू करना पड़ा। 

 

पत्नी जी की पाक कला का प्रशंसक हर पति होता है। ना हो तो जान सांसत में पड़ जाए । इसी पाककला का प्रशंसक मैं भी हूं ।  अब देखिए इटली और चीन के पाक विशेषज्ञों को भारत आकर शोध करना चाहिए। कैसे उनके व्यंजनों में भारतीय प्रतिभावान पत्नियों ने पंच फोरन का छौंक मारकर उसके स्वाद में 12 चांद लगा दिए । पाक कला का ही नमूना है कि मैगी नूडल्स और पास्ता का भारतीय संस्करण पत्नी जी के बुद्धिमान होने का सूचक है। तभी तो इसे मिर्च मसाला के साथ बनाकर सब्जी के रूप में रूपांतरित कर दिया गया है।

संत महाराज के दिए हुए मंत्र अक्सर काम आते हैं। अब एक-दो दिन के बाद गंदे होने पर भी कपड़े को बदलना कानूनन जुर्म हो गया है । उसको चार-पांच दिन पहनना पड़ता है। कभी-कभी प्रेम बस पत्नी जी पूछ ले कि इतने दिनों तक गंदा कपड़ा क्यों पहने हुए हैं तो उन्हें यह बताना पड़ता है कि राष्ट्रीय जल बचाओ अभियान में सक्रिय भूमिका दे रहे हैं।  जब आप यह सब नुस्खा आजमाते हैं तो गुणवंती पत्नी जी यह सोचने पर विवश हो जाती हैं कि पति के रूप में गधा उनको मिला है कि बैल।