14 मई 2024

क्या नीतीश कुमार उपहास के पत्र है...?

 क्या नीतीश कुमार उपहास के पत्र है...? 


पीएम नरेंद्र मोदी के रोड शो में सीएम नीतीश कुमार की उपस्थिति थी। इसमें सीएम के भाव भंगिमा को लेकर सोशल मीडिया पर उपहास उड़ाया जा रहा। सीएम निश्चित रूप से असहज थे। वे बीमार है, उसी दिन लगा। पिछले कई महीनों से वे बीमार चल रहे है। बीमार कोई, कभी भी हो सकता है। इस पर किसी का वश नहीं। अब सीएम नीतीश कुमार के बीमारी के बहाने कुछ लोग उनका उपहास उड़ा रहे। 


उपहास तो उनके विधान मंडल में स्त्री को लेकर दिए बयान पर भी हुआ। फिर चार हजार पार। फिर कुछ अलग अलग घटनाएं।

जो भी हो। सीएम नीतीश कुमार गंभीर रूप से बीमार है। बीमारी का असर मस्तिष्क पर है। 

अब इस वजह से बिहार को जंगल राज से निकाल कर गढ़ने में उनका, सिर्फ उनका योगदान खारिज तो नहीं हो जा सकता।

लालू के लाल तेजस्वी यादव इस समय बिहार की राजनीति में विपक्ष की एक मात्र धूरी है। ऐसा इसलिए नहीं कि और कोई है ही नहीं। बल्कि, ऐसा इसलिए की कन्हैया कुमार, पप्पू यादव जैसे कितने की राजनीतिक हत्या इसी धूरी को बनाने के लिए की गई।

आज फिर जातिवादी और अपराध के मोहरे बिहार के राजनीतिक शतरंज की बिसात पर चल दिए गए है। हर बार चला जाता रहा। इसमें पिता से एक कदम आगे पुत्र तेजस्वी है। इस बार गठबंधन में तेजस्वी यादव ने केवल और केवल अपने भविष्य को लेकर प्लान के अनुसार काम किया। धन जोड़े। अधिकारी बैठाओ। जातिवादी और धर्म का कार्ड खेलाे। राम चरित्र मानस विवाद, मनुस्मृति जलाना इत्यादि याद होगा। पिता से दस कदम आगे।

नीतीश कुमार ने इसे हमेशा बुद्धिमानी से तोड़कर, बिहार गढ़ा।

बनते और चमकते बिहार में कुछ कृतघ्न लोग इसे खारिज करते है। नीतीश कुमार ने अपराध, रोड, बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य इत्यादि से अलग भी बहुत कुछ किया है। शराबंदी, एक नेक फैसला था। अब नहीं है। 

नीतीश कुमार ने जो किया उसका कुछ उदाहरण दूंगा। 

बिहार के हर जिला में मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज, पोलिटेकनिक कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज, आईटीआई कॉलेज बिहार में खुले। यह अकल्पनीय लगता है। शायद देश का कोई ऐसा राज्य हो। 

बिहार का वह दौर चरवाहा विद्यालय का था। यह दौर नया है। 

अब सत्रह महीने साथ रहकर नौकरी और विकास का दावा करने वाले तेजस्वी यादव केवल झूठ फैला रहे। 

सच यह है कि के के पाठक और अतुल कुमार जैसे अधिकारी को नीतीश कुमार नहीं बैठाते तो क्या होता, सबको पता है। एक नहीं चली। कलबला के रह गए।

अब देखिए। बिहार में पुलिसिंग बदल गई। कल्पना नहीं किए थे कभी।

112, डायल सेवा पुलिसिंग में क्रांति है। सड़क पर मरते आदमी की जान बचाने, आग बुझाने, घरेलू झगड़ा। सब में आपके पास आधा घंटा में पुलिस पहुंच रही। एक दम आधुनिक व्यवस्था।

आज बिहार के थाना भवन, थाना पुलिस की गाड़ी, सब सिनेमा जैसा लगता है। 

आज सरकारी अस्पताल में भले समय पर डॉक्टर नहीं आते। मन से इलाज नहीं करते। पर अस्पताल बदल गया, एक दम से। 

जैसे देखिए। सभी प्रखंड अस्पताल में सभी जांच, प्रसव, एक्सरे और सभी दवाई। सब कुछ है। जिला अस्पताल में डायलिसिस, अल्ट्रासाउंड की सुविधा।


बहुत नजदीक से इस बदलाव को महसूस कीजिए। आज बिहार में कोई सड़क हादसा या अपराध में घायल हो। संपन्न आदमी भी सरकारी एंबुलेंस से सबसे पहले सरकारी अस्पताल जा रहा। पहले निजी क्लीनिक जाते थे। रेफर होकर भी सरकारी एंबुलेंस से मेडिकल कॉलेज जा रहे। वहां भी आधुनिक सुविधाएं है। थोड़ी लचर ही सही।


जल जीवन हरियाली। पर्यावरण के लिए वरदान। तालाब की खुदाई का क्रांतिकारी कदम। खेत सिंचाई के लिए नहर खुदाई। हर खेत पानी।

बहुत कुछ है। कितना लिखे। जो पहले देखा। वही जानता। जो अभी देख रहे उनको भी देखना चाहिए। सड़क, बिजली ही नहीं कॉलेज, पुलिसिंग, खेत, अस्पताल भी नीतीश कुमार ने दिए है। पहले पच्चास हजार घूस देने के लिए चंदा होता था तभी जला हुआ ट्रांसफार्मर पन्द्रह  दिन बाद लगता था । आज चौबीस घंटे में बदलना तय है।

हां, कई राजनीतिक निर्णय, गलत, सही हो सकते है। यह सब राजनीति का हिस्सा है। राजद को पुनर्जीवन देकर पुनः बिहार को पीछे ढकेलने  का   रास्ता बनाने का श्रेय नतीश कुमार को ही है। तब भी, नीतीश कुमार के कामों को खारिज नहीं किया जा सकता। उपहास तो बिल्कुल ही उड़ाया नहीं जा सकता । इतना ही..

05 मई 2024

अथ श्री कौआ कथा

अथ  श्री कौआ कथा

अरुण साथी, व्यंग रचना

आजकल हर किसी का कान कौआ काट कर भाग रहा है । हर कोई कान लेकर भागने वाले कौवे के पीछे भाग रहा है। बचपन में दादा जी के साथ बैठने, सोने का यही फायदा था। वह अक्सर डांटते थे,  

कोय कह देलकौ कि कौआ कान ले के भाग गेलौ त पहले अपन कान देख, कौआ के पाछू मत भाग।

आज तो दादा जी गांव में है। पोता महानगरी। कौन बताएगा। कुछ दादाजी महानगरी हैं। वह भी कौआ के पीछे ही भाग भाग कर सबको बता रहे, कान लेकर भाग गया। 

गांव घर में भले कौआ विलुप्त हो गए। वर्चुअल दुनिया में कौवे ही कौवे हैं। 

कौवे भी कई प्रकार के कान लेकर भाग रहे हैं । कोई मंगलसूत्र तो, कोई लोकतंत्र। कोई संविधान बदल देगा। कोई कौआ धर्म का कान लेकर भाग रहा, कुछ जाति का। कुछ कौवे पाकिस्तानी हैं। 

अच्छा, धर्म का कान लेकर भागने वाले कौवे सर्वाधिक  हैं। कुछ कौवे एक धर्म का कान लेकर भाग रहे, तो उनके पीछे भागने वाले मूढ़ मतान्ध, धर्म खतरे में है, बात सबको भगा रहे। कुछ कौवे दूसरे धर्म का कान लेकर भाग रहे। उसके पीछे भागने वाले मूढ़ मतान्ध बता रहे, इस धर्म वालों से धर्म को खतरा है। 

अब धर्म का कान लेकर भागने वाले कौवे भी भांति भांति के हैं। इनमें कुछ छटे हुए बदमाश । कुछ लंपट। कुछ छौंडीबाज। नाकारा रहने वाले भी धर्म ध्वजा लेकर कौआ बन गए हैं। अब उनका जयकार है। हद तो यह की धर्म का कान लेकर भागने वाले कुछ कौवे बेहद सभ्रांत और अंग्रेजी दां है।

इन कौओं को व्हाट्सएप विश्वविद्यालय से बाकायदा जाति, धर्म का कान लेकर भागने का प्रशिक्षण दिया जाता है। एक से एक कौआ पढ़ाओ ज्ञानी, ध्यानी प्रोफेसर हैं। 


कुछ कौवे को तो बाकायदा धर्म का कान लेकर भागने के लिए बचपन से ही प्रशिक्षित किया जाता है। धर्म का कान लेकर भागने के लिए ये कौवे अपनी जान तक कुर्बान कर देते हैं।


तुम धर्म का कान लेकर भागो, सब तुम्हारे पीछे भागेंगे। सबसे आगे रहने का यही अचूक मंत्र है। 

अब, कौवे के पीछे भागने वाले गधे हैं कि आदमी, यह एक यक्ष प्रश्न है। 

 अब आज कोई युधिष्ठिर तो आने से रहे। बस।

सभी कौओं से क्षमा याचना सहित, अपना अपना कौआ साथी। 

04 मई 2024

हंस, राजेन्द्र यादव और नरेन्द्र मोदी

हंस, राजेन्द्र यादव और नरेन्द्र मोदी 

उनके लिए (वामपंथी) यह वर्ग भेद मनुस्मृति के वर्ण भेद से ज्यादा सख्त है । मैं सोचता हूं कि कोई नक्सली नेता अगर  हवाई जहाज में सफर कर रहा हो और उसी में अगर आडवाणी और नरेंद्र मोदी बैठे हो तो क्या वह नेता हवाई जहाज से कूद पड़ेंगे



हिंदूवादी गोविंदाचार्य के बहाने सारे कम्युनिज्म विरोधी शाखा मृग उछल कूद करने लगे।

ब्लॉक और फेसबुक की दुनिया इतनी निरंकुश और बेलगाम हो गई है कि वहां कोई भी कुछ भी लिख सकता है। हंस के वार्षिक आयोजन के बाद इसके बारे में ऐसी दूर की कौड़ियां लाई गई कि मैं चकित भी हूं और प्रसन्न भी । इन्हें नियंत्रित करने का क्या कोई उपाय हो सकता है?


उक्त बातें सितंबर 2013 के हंस के संपादकीय में साहित्य जगत के मूर्धन्य हस्ताक्षर और हंस के संपादक राजेंद्र यादव जी ने लिखी थी। संयोग से पुराने अंक पढ़ने की इच्छा हुई तो यही समाने था।


प्रसंग प्रेमचंद जयंती में हंस के पुनर्प्रकाशन के 28वें वर्ष के सालाना संगोष्ठी अभिव्यक्ति और प्रतिबंध विषय पर आयोजित समारोह का है।

उन्होंने अपना दर्द लिखा है ।  प्रखर वामपंथी वरवर राव और अरुंधति राय का समझ में गोविंदाचार्य की वजह से मुख्य समय में नहीं आना रहा।

पप्पू यादव के मंचासीन होने पर उनकी आलोचना का दर्द भी इसमें छलका और प्रसंग में आडवाणी को हिटलर बताने का प्रसंग भी उठा है। देश के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय पटल पर आज भी कुछ इसी तरह का मुद्दा है। लोकतंत्र और संविधान को खतरा। एक दशक बाद भी मोदी  और भाजपा विरोध का अंतत: यही मुद्दा रहता है। मूल मुद्दे गौण कर दिए जाते है।