28 अक्तूबर 2014

तेतारपुर गांव में भजन-कीर्तन करते हुए ग्रामीण करते है गलियों की सफाई । कई दशकों से चली आ रही परम्परा का आज भी हो रहा है पालन।

बरबीघा, शेखपुरा, बिहार
(अरूण कुमार साथी)

साफ-सफाई को लेकर प्रधानमंत्री की पहल पर भले ही देश भर में जन जागरूकता अभियान चला कर सफाई की जा रही है पर एक गांव ऐसा भी है जहां ग्रामीण भजन-कीर्तन गाते हुए गांव की गलियों की सफाई करते है। ऐसा शेखपुरा जिला अर्न्तगत बरबीघा प्रखण्ड के जगदीशपुर पंचायत के तेतारपुर गांव में होता है। दशकों से चली आ रही इस परम्परा का आज भी गांव के लोग पालन कर रहे है।

तेतारपुर गांव में छठ पर्व पर प्रसिद्ध मेला लगता है और यहां का मालती पोखर के किनारे स्थित सुर्य मंदिर की महिमा दूर दूर तक फैली हुई है। ग्रामीण इसी आस्था से प्रेरित होकर कार्तिक माह में अहले सुबह चार बजे प्रभात फेरी निकालते है। प्रभात फेरी में किसी के हाथ में ढोलक होता है तो किसी के हाथ में हरम्युनियम। कोई झाल बजाता है तो कोई झारू लगाता है।

भजन-कीर्तन गाते हुए ग्रामीण जहां गांव की गलियों में घूमते है, वहीं युवा, बच्चे और बड़ी संख्या में महिलाऐं हाथ में झारू लेकर गांव की गलियों की सफाई करते है। बाद में यह प्रभात फेरी मालती पोखर सुर्य मंदिर पर आकर समाप्त हो जाती है। यह कार्यक्रम ग्रामीण पूरे कार्तिक माह भर चलाते है।

इसको लेकर ग्रामीण शिव सिंह कहते है कि भजन कीर्तन गा कर लोगों को जागृत किया जाता है जिससे प्रेरित होकर साफ-सफाई की जाती है। बच्चू सिंह, तनिक सिंह, कारू सिंह की माने गांव में यह परंपरा बनी हुई जिससे लोग अहले सुबह अपने-अपने घरों से निकल कर भजन भी गाते है और गलियों की सफाई भी करते है।

प्रसिद्ध ढोलकिया एवं तबला बादक ग्रामीण कृष्ण पासवान भी इस अभियान में शामिल होते है और कहते है कि गांव के युवाओं में भी इसका उत्साह है जिससे उत्साहित होकर मालती पोखर छठ घाट की सफाई युवाआंे ने की है।

छठ घाट की सफाई एवं प्रभात फेरी में अठ्ठारह वर्षिय युवा मनीष कुमार का प्रमुख योगदान रहता है। मनीष एक पैर से विकलांग है पर छठ घाट की सफाई में वह सबसे आगे रहता है। इसी तरह विपुल, गुलशन, शशी भूषण, प्रमोद सहित अन्य युवा भी सफाई अभियान बढ़ चढ़ कर भाग लेते है जबकि राधे सिंह, राजेन्द्र सिंह, देवेन्द्र सिंह, सुबोध सिंह, परशुराम सिंह की वरिष्ठ मंडली ढोल की थापों पर युवाओं को उत्साहित करते है।

आज जहां सफाई को लेकर जान जागरण का अभियान चलाया जा रहा है वहीं गांव वालों का यह छोटा सा प्रयास प्रेरणा देने वाला है।

20 अक्तूबर 2014

साथी के बकलोल वचन


साथी के बकलोल वचन
हरियाणा में जदयू कंडीडेट
के आयलो 38 वोट।

लगो है जनता जान गेल
सुशासन बाबु के दिल में
है कुछ खोंट।।

है दिल में कुछ खोंट की
अबरी है बिहार के बारी।

लगो है निकलिये जैतै
उनकर हेकरी सारी।।।

(यह पोस्ट androyad से पहली बार डाली है। बहुत ख़ुशी हुई।)

17 अक्तूबर 2014

बधिया किया हुआ आदमी...

कामाग्नी को दमित करने
लेकर हंसुली-लहरनी
निकाल लिया जाता है
उसका अण्डकोश
कर दिया जाता है
जानवरों का
बधिया...



जाति-धर्म
गोत्र-गोतिया
शुद्र-ब्राह्मण
काला-गोरा
शिया-सुन्नी
ईसाई-यहूदी

नामक कई औजारों से
निकाल लिया जाता है
आदमी के दिमाग से
उसका
स्वबोध.....

और कर दिया जाता है आदमी का बधिया...

16 अक्तूबर 2014

उफ.. हत्यारा समाज..

यह मंजर देखकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की आदमियता सिसक उठेगी, मेरा भी कलेजा मूंह में आ गया पर बिहार पुलिस ने संवेदनहीनता की प्रकाष्ठा पार कर दी। बुद्धवार की शाम में खबर मिली की शेखपुरा जिले के बरबीघा थाना के कोल्हाड़ाबीघा गांव में नवविवाहिता की हत्या कर शव को गांव में ही जला दिया गया। सूचना पर वहां पहूंचा तो पता चला कि नालन्दा जिले के सरमेरा गांव निवासी अठठारह वर्षिय राजनन्दनी को उसके पति मोहन राम एवं अन्य परिजनों ने हत्या कर दी और गांव के बाहर खेत में शव को जला दिया गया।

(घर के आगे पुलिस का इंतजार करते पीड़ित परिजन)

पुलिस से बहुत विनती करने के बाद भी आरोपी युवक को पकड़ने और हत्या के सबूत जुटाने पुलिस गांव में नहीं पहूंची और हारकर लड़की के परिजन आरोपी युवक के घर पर दिन भर धरने पर बैठे रहे। 
मैं जब वहां पहूंचा तो परिजनों ने सारी बात बताई और फिर जहां युवती के शव को जलाया गया उस जगह को दिखाने ले गए। वहां पहूंचा तो रोम रोम सिहर उठा। शव को जलाने के बाद उस खेत मे हल चला कर उसे जोत दिया गया पर जलने का अवशेष वहां बिखरे पड़े थे। जलाने में उपयोग किए गए लकड़ी और अन्य सामान भी वहीं थे। उसके बाद परिजनों ने दिखाया कि कैसे जलाने के बाद अवशेष छुपाने के लिए उसके राख को जगह जगह खेतों मे ले जाकर फेंका गया है।

खेतों में फेंके गए राख में जले होने के अवशेष साफ दिख रहे थे। कहीं मांस के लोथरे फेंके हुए थे तो कहीं हडडी..। कहीं राख में युवती के चूड़ी और उसकी पायल मिली तो कहीं उसकी बनारसी साड़ी, जिसे देख उसके पिता फफक पडे़......।

फिर परिजनों ने वह जगह भी दिखाई जहां अधजले शव को दफनाए जाने की संभावना थी। उसके बाद एक बार फिर पुलिस को फोन किया गया जिसमें स्पीकर आॅन कर हमें भी सुनाया गया जिसमें थाना प्रभारी ने साफ कहा कि ‘‘हमे और भी बहुत काम है जांच करने के बाद कार्यवाई होगी जहां जाना है जाओ..।’’

(जले हुए अवशेष दिखाते परिजन )

देर शाम पर परिजन लाश के जलाने के जगह पर मिले सबूतों की रक्षा करते रहे पर पुलिस नहीं पहूंची...और परिजन कहते रहे कि ‘‘सर मोटा पैसा ले लिया है सर पुलिस नहीं आएगी, हार कर ही आपके पास पहूंचा.... किसी तरह मेरी बेटी को इंसाफ दिला दिजिए....बड़ी दुलरी थी... अभी कम्पटीशन की तैयारी कर रही थी..सोंचा था नौकरी चाकरी हो जाएगी तो चिंता दूर हो जाएगी....बोलिए सर अभी तो शादी में ही पांच लाख खर्चा किया जिसका कर्जा अभी तक नहीं चुकाया है अब चार महीना बाद ही एक लाख कहां से देते...

मंजर ने मुझे बेचैन कर दिया, अजीब सी झटपटाहट और बेचैनी रात भर रही। आखिर हम इतने निर्मम क्यों है....? दहेज की खातिर लड़कियो को मार दिया जाता है या फिर मरने के लिए विवश कर दिया जाता है? आखिर क्यों लड़कियां ही आत्महत्या भी कर लेती है? कई सवाल मन को मथ रहे है पर जबाब नहीं मिल रहा है.....इस सबके मूल में दहेज ही है तो फिर दहेज की बलि बेदी पर चढ़ी बेटियों के खून के छींटे हम सब के दामन पर भी लगे हुए है...उफ..हत्यारा समाज...

15 अक्तूबर 2014

जब मां बनाती थी भंगरोय्या से काजल..


इस पौधे को देखकर बचपन की बातें याद आ जाती है जब मां काजल बनाने के लिए भंगरोय्या  (लाल दुभी) नामक इस धास को लाने के लिए कहती थी। इस धांस का रस निकाल कर मां उसे कपड़े में भिंगो देती थी और फिर उसकी बत्ती बना कर करूआ तेल (सरसों) का दीया अंधेरे जगह में जलाती थी और फिर उससे निकले कालिख से काजल बनाती थी। इस कालिख को मां फुलिया कहती थी।


फुलिया को गाय के घी में मिला कर काजल बनाती थी और कहती थी यह काजल ठंढी होती है और जब उसे करूआ तेल में मिला कर बनाती थी तो कहती थी यह गर्म होती है.. प्रकृति के साथ यह थी हमारी परंपरागत ज्ञान जो आज के विज्ञान से बहुत आगे थी। एक संवाद..एक आत्मीयता..

आज चरन्नी का काजल सौ, दो सौ में बिकती है। उसका ऐसा ब्रान्डिग किया गया कि महिलाऐं अब घरेलू काजल को बनाना और लगाना भूल गई। हलांकि गांव में अभी भी बहुत महिलाऐं इसी नुस्खे से काजल बनाती है पर घीरे घीरे कुकरौंधा का पैधा भी अब बहुत कम मिलने लगा है....

बात सहज है कि पुंजीवाद के इस दौर में विज्ञापन के हथियार से साम्राजवादियों ने हमसे हमारी संस्कृति, हमारी परम्परा और हमारी आत्मीयता भी छीन रही है और हमें एहसास भी नहीं होता...

01 अक्तूबर 2014

मैला आँचल...विभोर....विभोर..

मैला आँचल

रेणु जी को पढ़ते हुए लगता है अपने आस पास सब देख रहा हूँ
...बोली चाली...और कथा चरित्र , सब कुछ जिन्दा लगता है ....जैसे मेरे गांव की घटना हो...देखिये.. जब गीत होता है ...अरे वो बुडबक बभना....चुम्मा लेबे में जात नहीं रे जाए.....गांव के कई  तथाकथित सभ्य और पाखंडी चेहरे आँखों के आगे नाचने लगते है...

और जब गांधीवादी बालदेव  जी कहते है की खटमल बहुत हो गया तो क्या घर को ही आग लगा देनी  चाहिए....तो आज के हालात..को कोसने वाले हमारे जैसों के लिए करारा जबाब मिल जाता है...

और कॉमरेड कालीचरण.. कैसे डकैती केस में कौंग्रेस के द्वारा फंसा दिया जाता है और बेचारा पार्टी की  बदनामी से चिंतित है और पार्टी उसे छोड़ देती है...इस्तेमाल कर ...

और कैसे आजादी के बाद कौंग्रेस पार्टी पे संघर्ष करने वालों की जगह सेठ- साहूकार कब्ज़ा कर लेते है और सच्चे कॉंग्रेसी को मार देते है....

और काली टोपी वाले.संघी.....दबंग के साथ मिलके.. हिन्दू हिन्दू चिल्लाते है...

और एक पगला डॉक्टर भी... बेचारा....गांव में जीवन देने में जुट जाता है.. पगला....ओह... ओह..
विभोर....विभोर..

सच मुच मौन कर देते है रेणु....