31 मई 2020

बिहारी हैं हम : हमसे है सब बेदम

अरुण साथी

बिहारी होने को लेकर अक्सर चर्चा होती रही है। कभी-कभी सकारात्मक संदर्भ में तो ज्यादातर नकारात्मक संदर्भ में। बाद के दिनों में लालू प्रसाद यादव के गंवई अंदाज को लेकर नकारात्मक संदर्भ में बिहार को उछाला जाता रहा। घोटाला बगैरा से इतर की बातें हैं। खैर, वर्तमान में बात। बिहारी हैं हम। हम से ही सब बेदम के रूप में करना चाहता हूं। 

दरअसल कोरोना काल में हम बिहारियों ने अजीब तरह की प्रतिक्रिया दी है। पहले तो यह कि बाहर में फंसे होने का ऐसा कोहराम मचाया की न्यूज़ चैनल से लेकर अखबारों में यही छाया रहा। व्यक्तिगत अनुभव में यह महसूस किया कि बाहर में फंसे रहने की बातों में भूख की समस्या कम और घर आने की मुमुक्षा सर्वाधिक थी।


होनी भी चाहिए। हम बिहारी गांव में पले बढ़े हैं। होम सिकनेस हमारी कमजोरी है।


 सुबह अगर पटना के लिए निकले तो जैसे तैसे काम खत्म करके घर भाग कर आने की अजीब सी ललक हमारे डीएनए में है। फिर कोरोना काल में घर जाने की ललक भला कैसे नहीं होती! तो ज्यादातर ने भूख से बदहाली की ऐसी हवा उड़ाई की हवा-हवा हो गया। अब इसी हवा-हवाई बातों में असर ऐसा हुआ कि एक हजार किलोमीटर से लेकर ढाई हजार किलोमीटर तक बीवी बच्चों के साथ पैदल चल दिया। तो किसी ने कर्ज लेकर साइकिल खरीदी और घर के लिए निकल गया।


 कोई मोटरसाइकिल कर्ज लेकर खरीदी और दो साथियों के साथ घर आ गया। किसी ने ट्रक का जुगाड़ किया। कंटेनर का जुगाड़ किया। प्रति व्यक्ति 5000 देकर घर तक का सफर किया। ये बातें यह साबित करने के लिए काफी है कि भूख समस्या कम थी, घर आने की मुमुक्षा अधिक। 


नीतीश कुमार अपनी बातों पर अड़े रहे। जहां हो, वहीं रहो। परंतु महाराज जोगी जी ने ऐसा रास्ता खोला कि उपद्रव हो गया। पैदल आने वालों के दर्द को ऐसा दिखाया कि हार कर प्रवासियों को लाने की मजबूरी बनी। नतीजा यहां क्वारन्टीन सेंटर में रखा गया। अब प्रवासी बिहारियों का स्वभाव कहां बदलने वाला था। सो उन्होंने आधा घंटा देर से चाय मिलने पर। नाश्ते में बिस्कुट या सत्तू मिलने पर। खाने में केवल आलू की सब्जी मिलने पर रोड जाम, उपद्रव और हंगामा शुरू कर दिया।


 सरकारी योजना के द्वारा बाल्टी, थाली, मच्छरदानी, बेडशीट नहीं मिलने पर रोड जाम। हंगामा शुरू हो गया। उनको अपनी जान की परवाह कम और सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलने का गुस्सा अधिक।


 यह सच है कि बिहार में आपातकाल की स्थिति में आपदा विभाग से मिलने वाले लाभ का 10% भी प्रवासी श्रमिकों को नहीं मिल रहा। अधिकारियों और नेताओं की जेब में पैसा जाएगा। कोई कुछ कर ही नहीं सकता। पूरी तरह से मैनेज मामला लगता है।

 बावजूद इसके हम बिहारी अपनी जान की परवाह कम और छोटी-छोटी बातों के लिए अपनी जान को खतरे में डाल देने की कोशिश ज्यादा करते रहें। भगवान बचाए हम बिहारियों को। हम खुद ही खुद को बदनाम करते हैं। एक बार फिर से हम पूरी दुनिया में बदनाम हुए। कोरोना काल में 5 किलो अनाज के लिए सौ दो सौ की भीड़ सड़क पर हंगामा कर रही। हमारी जान की कीमत बस पांच सेर अनाज है। यह हमारी जहालत है या कुछ और, हम खुद तय करेंगे...

28 मई 2020

मैं भूखे रहकर आत्महत्या कर रहा हूं! इसके लिए किसी राजा का दोष नहीं है..

अरुण साथी

दो ही तरह के जर्नलिज्म का दौर चल रहा है। एक दौर सुपारी जर्नलिज्म का है। जहां मुद्दे को ऐसे उछाला जाता है जैसे गांव की कोई झगड़ालू औरत छोटी सी बात को लेकर महीनों सड़क पर निकल गाली गलौज करती रहती हो। नतीजा भारत की पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता को खो चुका है। ठीक उसी तरह जैसे भेड़िया आया , भेड़िया आया की कहानी में। इसमें कई नामी-गिरामी जर्नलिस्ट स्नाइपर की तरह कैमरा और कलम से खास विरोधी पर ही निशाना साध हत्या कर साधु बने हुए हैं।
दूसरा पुजारी जर्नलिज्म का दौर है। वहां भक्ति काल के योद्धाओं के द्वारा साष्टांग चरण वंदन किया जा रहा है। चरणामृत का प्रसाद जिन्होंने ग्रहण कर लिया उन्हें ऐसा महसूस होता है जैसे अमरत्व प्राप्त हो गया। कुछ तो इसी चरणामृत का पान कर जर्नलिस्ट कम प्रवचनकर्ता अधिक हो गए।

इन सब से अलग भी कुछ है जिन्होंने अलग रास्ते को चुना। उनके लिए सुपारी किलर की व्यवस्था है। और आज वे जिंदा लाश बने हुए हैं।

इन्हीं सब में आम आदमी का दुख दर्द दिखाने की विश्वसनीयता अब किसी के पास नहीं। दुखद यह कि वही आम आदमी में ही एक बड़ा वर्ग सच को बर्दाश्त नहीं करता और कीलर की तरह सोशल मीडिया में उस सच को मारने के लिए कुतर्कों का ऐसा जाल बुनता है कि सच का दम घुट जाता है। 

इसी कुतर्कों के जाल में बिहारी मजदूरों के दर्द का गला घोट दिया गया। इन जालों के कुशल बुनकरों ने कुतर्कों का ऐसा धागा उपयोग किया कि भूखे-प्यासे दम तोड़ने वाले मजदूर भी की आत्मा कलप उठी। मजदूर के पांव के फोले आंसू बहा कर पूछ रहे हैं। कौन सुनेगा, किसको सुनाएं, इसलिए चुप रहता हूं।

अब मुजफ्फरपुर में रेल से आई एक मां ने दम तोड़ दिया। उसके बच्चे अबोध है। चादर में लिपट कर मां को जगाने का प्रयास करते रहे। यह तय है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भूख से मरने का कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता है। मिलेगा भी कैसे। हत्यारे कब अपनी हत्या का सबूत छोड़ते हैं। इसके साथ-साथ रेलगाड़ियों से कई लाशें निकल रही हैं। कई पैदल आने वालों ने रास्ते मे दम तोड़ दिया। कई का तालाबंदी में दम निकल गया।


दुखद यह है कि लाशों के पास कोई सुसाइड नोट लिखा हुआ नहीं मिल रहा है। या कि मिला भी होगा ! वह भी वायरल किया जाएगा! इसमें लिखा होगा, मैं भूखे रहकर आत्महत्या कर रहा हूं। इसके लिए किसी सरकार, किसी अधिकारी, किसी  किसी राजा का दोष नहीं है। मैं इसके लिए दोषी हूं। और सरकार इस दोष की सजा जो मुकर्रर करें, मैं कबूल कर लूंगा!!


चलिए इस दौर में हम सब गवाह हैं। यह दौर भी बदलेगा। सदा ना रहा है, सदा ना रहेगा, जमाना किसी का...

03 मई 2020

काश की सीता के लिए धरती नहीं फटती

स्वयंभू भगवान
घोषित होने हेतु
अपने पराये को
निकृष्ट, पापी, कलंकिनी
घोषित करना ही पड़ता है
मर्यादापुरुषोत्तम होने के 
लिए स्त्री की अग्निपरीक्षा
लेनी ही पड़ती है

कलंकिनी हो वनवासिनी
सीता के लिए
कल धरती फटी थी
और वह उसमें समा गयी

आज की सीता 
भी हमारे आसपास
कलंकिनी घोषित हो
अग्नि में समा जा रही
और हम 
मर्यादापुरुषोत्तम
बने पूजनीय हो 
जाते है..

काश की सीता के लिए
धरती नहीं फटती
और वह जीवित रह
नारी सशक्तिकरण
का प्रतीक बनती
तो जाने कितनी
सीता आज जीवित
रहती....