27 नवंबर 2022

समीक्षा : खाकी द बिहार चैप्टर , Netflix पर आईपीएस अमित लोढ़ा और महतो गिरोह

समीक्षा : खाकी द बिहार चैप्टर , Netflix पर आईपीएस अमित लोढ़ा और महतो गिरोह

Netflix जैसे मोबाइल ओटीपी मंच पर बिहार के उस दौर की कहानी को आईपीएस अमित लोढ़ा की जुबानी सीने पर्दे पर उतारना और सच के करीब ले जाना अपने आप में बड़ी बात होती है । नेटफ्लिक्स पर बीती रात जागकर खाकी द बिहार चैप्टर के सभी सात सीरीज को एक बार में खत्म कर दिया  । 2005/06 तक के उस दौर को खूनी खेल, अपहरण, रंगदारी,जातीय संघर्ष के लिए जाना जाता है।

उसी दौर के आसपास आईपीएस अमित लोढ़ा ने कुख्यात महतो गिरोह के कहानी को द बिहार डायरी उपन्यास में संजोया तो नेटफ्लिक्स पर प्रख्यात  निर्देशक नीरज पांडे ने वेब सीरीज का रूप दे दिया।


वेब सीरीज में बिहार के एक पुलिस अफसर के जद्दोजहद और अपराध तथा राजनीतिक गठजोड़ के साथ अपराधी का जातीय संरक्षण, सभी कुछ इसमें है । पूरे वेब सीरीज को सच्चाई के आसपास रखते हुए प्रस्तुत किया गया है। हालांकि रोचकता के लिए कहीं कहीं मिठास की चासनी भी है ।


पहली ही कड़ी वहीं से शुरू होती है जहां से चंदन को ठोकने जा रहे एक दरोगा को राजनीतिक दबाव में वापस बुला लिया जाता है । फिर कहानी में दबंगों का वर्चस्व और हत्या, अपहरण का दौर सब कुछ है। पूरी कहानी जिले के कसार थाना के इर्द-गिर्द है।

कसार थाना आज भी अपनी जगह पर है। परंतु इस वेब सीरीज में मुख्य केंद्र यही थाना है । इस थाना के आसपास के गांव का यह ताना-बाना है। उन गांव में आज ही महतो गिरोह के आतंक को लोग याद करते हैं। इस वेब सीरीज में गिरोह के आतंक को मानिकपुर नरसंहार से रेखांकित किया गया है।


पूरी सीरीज को बहुत ही बारीकी से बुना गया है और अगली कड़ी देखने के लिए प्रेरित दर्शक हो जाते हैं । द वेडनसडे फिल्म जिसने भी देखी है वह नीरज पांडे का फैन है। तो इसमें उनके द्वारा सभी किरदारों और पूरी कहानी को जीवंत कर दिया गया है।

आशुतोष राना जैसे बड़े कलाकार भी इसमें हैं परंतु उनके किरदार को कम स्पेस दिया गया। रवि किशन का किरदार भी प्रभावशाली रहा। वहीं अमित लोढ़ा का किरदार कर रहे करण टेकर बखूबी अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। चंदन महतो के अभिनय में अविनाश तिवारी ने पूरे चरित्र को जीवंत कर दिया है।

खैर, इस सीरीज में चवनप्राश का किरदार खास रहा। चंदन महतो को कुख्यात बनाने और उसके अंत की पटकथा लिखने तक में।

शेखपुरा जिला के एसपी रहते हुए अमित लोढ़ा ने वाकई में गिरोह का सफाया किया। उसके खौफ को शेखपुरा के सड़कों पर उसे घुमा कर अंजाम तक पहुंचा दिया।

बस एक बात है कि सीरीज का चमनपरास आज राजनीति समाज सेवक है। चंदन महतो का आज भी जेल में ही सही, पर मौज है ।

और हां, आईपीएस अमित लोढ़ा एक बार फिर विभागीय चक्रव्यूह में फंसकर उसी तरह तड़प रहे हैं जैसे वेब सीरीज में।

भले ही बिहार के जंगल राज के दौर की सच्चाई को बयान करती हो परंतु वर्तमान में भी बहुत कुछ नहीं बदला है। अगर बदला होता तो इसी जिले में शराब तस्कर की पिटाई का आड़ लेकर दबाव बनाने के लिए वर्तमान पुलिस अधीक्षक कार्तिकेय शर्मा का पुतला सत्ताधारी दल के द्वारा नहीं जलाया जाता।

इसी जिले ने टाटी नरसंहार में नौ राजनीतिज्ञ की हत्या, दो प्रखंड विकास पदाधिकारी की हत्या, एक कन्या अभियंता की हत्या और जिले के संस्थापक,  दिग्गज राजनीतिज्ञ पूर्व सांसद रहे राजो बाबू की लाश खामोशी से देखी है।

उस दौर के कई कुख्यात लोग आज भी खादी पहनकर लहराते हुए दिखाई दे रहे हैं। बहुत कुछ नहीं बदला है, परंतु समय तेजी से बदल गया। कुल मिलाकर वेब सीरीज शानदार है। पटकथा लेखन, संवाद अदायगी, अभिनय, साज-सज्जा और लोकेशन, सभी कुछ।

वेब सीरीज को 10 में 9 अंक दिया जा सकता है।

16 नवंबर 2022

निरंकुश पत्रकारिता के दौर में स्व नियोजन की बात


Arun Sathi
जब चारों ओर घनघोर अंधेरा हो तो दो तरह के काम किए जा सकते हैं। पहला, हम भी अंधेरे का आधिपत्य स्वीकार कर लें और उसी का साथ हो कर कर सुखचैन का जीवन यापन करें । दूसरा, हम दीया बन जाए। टिमटिमाते दीया। तब क्या होगा। आचार्य ओशो रजनीश कहते हैं कि अंधेरे का अपना अस्तित्व नहीं होता है। जहां भी।जहां कहीं भी रोशनी होगी, वहां से अंधेरे का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।



जीवन के हर क्षेत्र में दीया बनने की जरूरत है। वह चाहे समाज हो शासन-प्रशासन हो या सीधा-सीधा कहे तो न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और चौथा खंभा भी । ऐसी भी बात नहीं है कि वर्तमान और भूत काल में दीया लोग नहीं बने हैं। खुद जले हैं और प्रकाश फैलाया है। बस हमारे समाज की यह प्रवृत्ति रही है कि वह अच्छाई की चर्चा गाैण कर, बुराई की चर्चा में स्वाद लेता है।
 

आदरणीय कुलदीप नैयर का एक आलेख  सेमिनार से उद्धृत कर रहा हूं। उन्होंने कहा था कि पत्रकार को कभी डीएम, एसपी, जज नहीं समझना चाहिए। दूसरी बात उन्होंने कही थी कि पत्रकार का पेशा नहीं है । यह राष्ट्र और समाज निर्माण की भागीदारी का मंच है। जिम्मेवारी है। पेशा यदि करना हो तो इसके लिए समाज के कई क्षेत्र खाली हैं। वही करना चाहिए।


दुर्भाग्य से इस एक दशक में अचानक से सब कुछ बदल गया है। कर लो दुनिया मुट्ठी में जब यह स्लोगन रिलायंस ने दिया उस समय किसी ने नहीं सोचा होगा कि सच में एक मोबाइल पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेगा।
 

हम में से कई साथी उसी दौर के पत्रकारिता कर रहे हैं जब कार्यालय, अस्पताल और चाय की दुकानों से खबरें ढूंढनी पड़ती थी। आज  व्हाट्सएप पर खबरें   चलकर हमारे पास आ जाती है। इस वजह से यह बहुत मुश्किल दौर है। इसी वजह से फेक न्यूज़ का दौर भी है। इसी वजह से पत्रकार  का सम्मान और गरिमा में चौतरफा गिरावट है। न्यूज़ चैनल के ब्रेकिंग न्यूज़ की आपाधापी से निकलकर अब मोजो का युग है। मोबाइल जर्नलिस्ट।  खबर कहीं बनी, हर कोई मोबाइल में उसे कैद कर अपने चहेते लोगों को भेजता है । सोशल मीडिया पर लगाता है । वहां से खबरें प्रसारित हो जाती है।


फिर शुरू हो जाता है पीपली लाइव फिल्म जैसा नजारा। ठीक पीपली लाइव फिल्म में जो होता है वह आज होते हुए आप देख सकते हैं। वह चाहे पटना में ग्रेजुएट चाय वाली का मामला हो, हरनौत का सोनू हो अथवा नवादा में छह लोगों के आत्महत्या के बाद लाशों पर गिद्धों के मोबाइल लेकर मंडराने का, यही सब कुछ देखने को मिल रहा है।


हम सोशल मीडिया के जिस दौर में जी रहे हैं वहां निंदक नियरे राखिए अथवा नहीं, दूर से भी निंदक आपकी निंदा करेंगे । अभी हाल ही में एक बारात में कुछ लोग गए हुए थे। बहुत अच्छी व्यवस्था थी। खूब मिठाई खिलाया गया। गांव के एक बुजुर्ग जो अक्सर चुगली करने में माहिर होते हैं उनसे जब पूछा कि कैसी व्यवस्था है।  उम्मीद थी कि वह कहेंगे कि बहुत शानदार परंतु उन्होंने उस पूरी व्यवस्था में भी कमी खोज ली और कहा कि सब कुछ तो ठीक था परंतु रसगुल्ला बहुत अधिक मीठा था।

मोबाइल जर्नलिज्म के इस दौरान सोशल मीडिया पर खबरों का पोस्टमार्टम भी होने लगा है। अब यदि किसी बाहुबली, दबंग अथवा गैंगस्टर के विरोध में खबरें चलती हैं तो सोशल मीडिया पर उसका पोस्टमार्टम उसके गिरोह के सदस्य सक्रिय होकर करते हैं। कभी कभी तो ऐसा लगने लगता है जैसे सही में सही खबर को उठाकर गलती कर दिया गया हो। सोशल मीडिया पर कम उम्र के लड़कों के हावी होने का ही नतीजा है कि यदि कोई पिस्तौल के साथ अपनी तस्वीर और वीडियो लगाता है तो सभी लोग वाह-वाह करने लगते हैं । मुझे लगता है कि यदि कोई यह भी लिख दे कि वह किसी की हत्या आज कर दिया तो कई लोग उसकी तारीफ कर देंगे आज हम इसी दौर में जी रहे।

परंतु इस दौर में से हमें अच्छी चीजें निकालनी होगी । उदाहरण  खुद बनना होगा। तभी समाज में बदलाव होगा। जैसे पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने कहा है कि हम बदलेंगे युग बदलेगा । हालांकि आज हमारी मानसिकता है कि युग बदल जाए परंतु हम नहीं बदले।

02 नवंबर 2022

सोशल मीडिया की आभासी दुनिया से आत्मीय संबंध तक । एक अनुभव

#आभासी दुनिया से #आत्मीय संबंध तक

सोशल मीडिया पर एक दशक बाद सबकुछ बदल गया है। #धार्मिक उन्माद का चरमोत्कर्ष,   जातीय गोलबंदी, #सायबर माफिया, झूठे समाचार, दूसरे को नीचा दिखाना, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बताना, वैभव दिखाना, लड़कियों को आकर्षित करना, विवाहेत्तर संबध की तलाश आदि इत्यादि का आज यह बड़ा मंच गया। 
एक दशक पहले, उस दौर के आभासी दुनिया के लोग आज आत्मीय है। वैचारिक मतभेद के बाद भी कभी किसी को नीचा नहीं दिखाया गया। ऐसे ही दो विचारधारा के लोग आज  #मित्रवत है। घूर दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रबल समर्थक सुधांशु शेखर और आधा अधूरा वामपंथी विचारधारा के समर्थक अरुण साथी।
सुधांशु शेखर 7 साल से #ऑस्ट्रेलिया में है। वहां की नागरिकता ले ली है। एनआरआई बन गए। बीजा लेकर अपने घर आए हैं। पुराने गया जिला के कुर्था थाना के उत्तरामा गांव निवासी हैं। अब उनका गांव अरवल में। 
दक्षिणपंथी विचारधारा का इसलिए कि जब भी कभी नरेंद्र मोदी के विरुद्ध, हिंदुत्व के विरुद्ध अथवा सेकुलर से संबंधित पोस्ट किया इनके तीखे कमेंट मिले। कभी कभी फोन करके एक घंटा से अधिक समझाया।

हिंदू मुस्लिम को इनके द्वारा मुसलमानों की धार्मिक survival का सवाल बता कर अक्सर डरा कर चुप करा दिया जाता है। मुसलमानों का हिंदू, ईसाई, सिख, बौद्ध, यहूदी किसी के साथ सामंजस्य नहीं करने का और दूसरे धर्म के लोगों को काफिर मानने का तर्क निरुत्तर कर देता है।
खैर, इससे अलग ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न से चलकर एक बार फिर अपनी धरती को देखने के लिए बिहार पहुंचे। पटना, बेगूसराय होते हुए मुझसे भी मिलने के लिए आए। तीन दिनों का सानिध्य रहा। अपने बरबीघा के आसपास जो भी जगह थी उसे देखने के लिए ले गया। छठ पूजा का वैभवी देखा और आध्यात्मिक जुड़ाव से भी अनुभव किया। 10 सालों के बाद बहुत कुछ बिहार में नहीं बदलने की बात भी कही । यह भी कहा कि बिजली की व्यवस्था दुरुस्त हो गई है। परंतु सड़क पर गड्ढे ही गड्ढे हैं। हालांकि हम लोगों के लिए सड़क बेहतर है परंतु ऑस्ट्रेलिया के हिसाब से नहीं।
सबसे खास बात यह कि ऑस्ट्रेलिया में बसने के बाद भी उनमें तड़क-भड़क नहीं दिखा। यहां से दिल्ली जाने के बाद मेरे को तेरे को करने वालों के जैसा ऐंठन भी नहीं दिखा। आम चाल बोलचाल की भाषा हिंदी और मगही में बातचीत। साधारण खानपान के बीच उनको विदा कर दिया। आज सोशल मीडिया के वजह से आभासी दुनिया से निकलकर हम लोग आत्मीय संबंध में जुड़ गए हैं और मित्रवत है। बस बहुत है।

नोट: बिहार केसरी का जन्म भूमि, अमामा महाराज का किला भी दिखाया।