25 दिसंबर 2019
हुड़दंग की बात

07 दिसंबर 2019
जब मैंने उस पागल कुत्ता को मार डाला

11 सितंबर 2019
नून रोटी खाएंगे गोदी को ही लाएंगे..

08 सितंबर 2019
लड़ने वाले हारते नहीं..

04 सितंबर 2019
हम मौत के कुआँ में वाहन चलाने के आदी है, सुधारने के लिए कठोरता जरूरी।
अरुण साथी
नए ट्रॉफिक नियम को लेकर हंगामा बरपा है। सोशल मीडिया में जोक्स और पटना की सड़क पे ऑटो का सड़क जाम। सभी का गुस्सा है कि जुर्माना दस गुणा बढ़ा दिया।
खैर, चर्चा होनी चाहिए। सबसे पहले । एक प्रसंग। अपने बिहार के सबसे छोटे से जिले शेखपुरा से। पत्थर हब होने की वजह से यहां ट्रकों की संख्या पर्याप्त से कई गुणा अधिक है। हर दिन कई ट्रक खरीद कर आते है। इसी क्षेत्र से जुड़े एक मित्र ने पूछा। कभी सोंचा है कि नए नए ट्रकों के चालक कहाँ से आ जाते है। उन्होंने बताया। ट्रॉकों के खलासी ( सहचालक) ही कुछ माह बाद नए ट्रॉकों पे चालक होते है! नाबालिग। बगैर सीखे। बगैर लाइसेंस के। परिणामस्वरूप वे सड़कों पे हत्यारे है। यह बसों, स्कार्पियो, बलोरो सब के लिए भी समान है।
खैर। बाइक की बात। खबरों से जुड़े रहने के नाते और हाल में हादसे का शिकार होने के बाद यह कह सकता हूँ कि बगैर हेलमेट बाइक चलाना मौत के कुआँ में चलना है। हमारी आदत ही नहीं है। न हेलमेट। न लाइसेंस। न नियम की जानकारी। नब्बे प्रतिशत बाइकर हेलमेट नहीं लगते। जो लगाते है उनमें आधे हेलमेट बेल्ट नहीं लगाते। परिणामतः रोज हादसे में मौत की खबरों से अखबार रंगे होते है। अभी बाइक से गिर कर महिलाओं की सर्वाधिक मौतें हो रही है। कारण। बाइक पे उल्टा बैठना। कहीं कुछ नहीं पकड़ना। और निश्चिंत होकर आराम कुर्सी जैसा बैठना। हेलमेट नहीं लगाना। फिर थोड़े से झटके में मौत के मुंह में। सीट बेल्ट भी नहीं बांधना हम अपनी शान समझते है। जो लगा ले उसके बुद्धू। नई पीढ़ी तो खैर। बाइक नहीं चलाते। मौत से खेलते है।
मतलब। हम सड़कों पे चलते है तब या तो आत्महत्या करते है। या फिर किसी की हत्या। बहुत कुछ है। जैसे चार पहिये वाहनों में एयर बैग के बिना गाड़ी विदेशों में बेचने की इजाजत नहीं। यहां है। कम पैसे के लालच में हम खरीद लेते है। हमारी सरकार ही हमे मौत के कुआँ में धकेल देती है।
एक आशंका। पुलिस बसूली करेगी। यह सच है। यह खत्म होने वाला नहीं। तब भी। सजा तो हमे मिलनी है। हम लगातार घूस देने से अच्छा नियम पालन को समझने लगेंगे।
लब्बोलुआब। हम बैगर कठोरता के नहीं सुधार सकते। नए नियम हमें मौत के कुआँ में जाने से रोकने के लिए है। हमारी जान बचाने के लिए। हाँ, कठोर है। पर हमारे लिए। हमें इसका स्वागत करना चाहिए।

28 अगस्त 2019
अशांन्ति की तलाश
अशांन्ति की तलाश
अरुण साथी
370 और 35 ए में तीन की प्राथमिकता है। ठीक वैसे ही इसे हटाये जाने से तीन को जलन हो रही है। एक पड़ोसी पाक। दूसरा अपने देश के नापाक। तीसरा युवराज गैंग।
जार जार घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। दुख का कारण कश्मीर है। 70 सालों तक कश्मीर से उनकी राजनीति चलती थी । आज एक झटके से राजनीति को खत्म कर दिया गया। बावजूद वे निराश नहीं है ।
राजनीति के बारे में कहा जाता है कि यह संभावनाओं का खेल है। बाबू लोग कश्मीर में अपनी इन्हीं संभावनाओं के तहत अशांति की तलाश में जाना चाहते हैं परंतु जाने नहीं दिया जा रहा, घोर कलयुग आ गया।
इंटरनेट बंद है।फोन बंद है। इससे भी काफी परेशानी हो रही है। पाकिस्तान प्रायोजित जितना झूठा वीडियो वायरल हो रहा है उसका कोई फायदा तो नहीं मिल रहा। अब इंटरनेट चालू होता है तो कश्मीर को लहकाने में मदद मिलती।
अब बारूद के ढेर पर कश्मीर बैठा है और बाबू लोग को आग लगाने नहीं दिया जा रहा । वाकई में यह घोर असंवैधानिक बात है।
इसीलिए बाबू लोग काफी नाराज हैं और इस कदम को असंवैधानिक इमरजेंसी का हालात और ना जाने क्या क्या कह रहे हैं। संविधान की हत्या कहना तो आम बात हो गई है। भला बताइए कि जिस कश्मीर में पहले पत्थरबाजों के गिरोह का आतंक था। अब ऐसी खबर नहीं आ रही तो बाबू लोगों को परेशानी तो होगी। अब इनकी राजनीति कैसे चलेगी। भाई लोकतंत्र में विपक्ष को भी जिंदा रहने का अधिकार है कि नहीं।
माना कि आप बहुत कुछ अच्छा कर रहे हैं परंतु सब कुछ अच्छा कर दीजिएगा तो विपक्षी क्या चुल्लू भर पानी मे डूब कर आत्महत्या कर ले।
इसी बीच एक मघ्घड़ काका ने पूछ लिया। अच्छा बताइए आज से पहले कश्मीर क्या बुद्धम शरणम गच्छामि का माहौल था? क्या कश्मीर में पत्थरबाजी नहीं होती थी? क्या कश्मीर में आतंकवादियों और सेना के बीच मुठभेड़ नहीं होता था? आए दिन लोग नहीं मारे जाते थे? सब टुकुर टुकुर उनका मुंह ताकने लगा...

26 अगस्त 2019
वह हृदय नहीं पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं

14 अगस्त 2019
मौत से साक्षात्कार
मौत तो सुनिश्चित है। फिर। डर कैसा। सुनों। लड़ता रहूंगा। चलता रहूंगा। गिरता रहूंगा।

17 जून 2019
जो लोग अपने मां—बाप को प्रेम दे पाते हैं, उन्हें ही मैं मनुष्य कहता हूं..
ओशो को पढ़िए
आपने कल माता और पिता के बारे में जो भी कहा, वह बहुत प्रिय था। माता—पिता बच्चों को प्रेम देते हैं, लेकिन बच्चे माता—पिता को प्रेम क्यों नहीं दे पाते हैं?
—तीन बातें समझनी जरूरी हैं।
एक तो आपसे मैंने कहा कि अपने माता—पिता को प्रेम दें। प्रश्न जिन्होंने पूछा है, वे बच्चों से अपने लिए प्रेम मांग रहे हैं। वहीं भूल हो गई है।
सभी मां—बाप बच्चों से प्रेम मांगते हैं। आपके मां—बाप ने भी आपसे मांगा होगा और आप नहीं दे पाए। आप भी अपने बच्चों से मांग रहे हैं और प्रेम पाने की संभावना बहुत कम है। आपके बच्चे भी अपने बच्चों से मांगेंगे।
जो मैंने कहा था, वह कहा था बच्चों के लिए मां —बाप को प्रेम देने के लिए। मां—बाप बच्चों से प्रेम मांगें, इसके लिए नहीं। और प्रेम कभी मांगकर मिलता नहीं, और मांगकर मिल भी जाए, तो उसका कोई मूल्य नहीं है। जहां मांग पैदा होती है, वहीं प्रेम मर जाता है।
दूसरी बात, मां —बाप का प्रेम बच्चे के प्रति स्वाभाविक, सहज, प्राकृतिक है। जैसे नदी नीचे की तरफ बहती है, ऐसा प्रेम भी नीचे की तरफ बहता है। बच्चे का प्रेम मां—बाप के प्रति बडी अस्वाभाविक, बड़ी साधनागत घटना है। वह जैसे पानी को ऊपर चढाना हो।
तो गुरजिएफ का जो सूत्र था, वह यह था कि जो लोग अपने मां—बाप को प्रेम दे पाते हैं, उन्हें ही मैं मनुष्य कहता हूं; क्योंकि अति कठिन बात है।
सभी मां—बाप अपने बच्चों को प्रेम देते हैं, वह सहज बात है। उसके लिए मनुष्य होना भी जरूरी नहीं है, पशु भी उतना करते हैं। मां —बाप से बच्चे की तरफ प्रेम का बहना नदी का नीचे उतरना है। बच्चे मां—बाप को प्रेम दें,तो ऊर्ध्वगमन शुरू हुआ। अति कठिन बात है।
मां—बाप सोचते हैं, हम इतना प्रेम बच्चों को देते हैं, बच्चों से हमें प्रेम क्यों नहीं मिलता? सीधी—सी बात उनकी स्मृति में नहीं है। उनका अपने मां—बाप के प्रति कैसा संबंध रहा? और अगर आप अपने मां—बाप को प्रेम नहीं दे पाए, तो आपके बच्चे भी कैसे दे पाएंगे?और जैसा आप अपने बच्चों को दे रहे हैं,आपके बच्चे भी उनके बच्चों को देंगे, आपको क्यों देंगे?
यह प्राकृतिक पशु .में भी हो जाता है। इसलिए मां—बाप इसमें बहुत गौरव अनुभव भ करें कि वे बच्चों को प्रेम करते हैं। यह सीधी स्वाभाविक, प्राकृतिक घटना है। मां—बाप बच्चों को प्रेम न करें, तो अप्राकृतिक घटना होगी। बच्चे मां—बाप को प्रेम करें, तो अस्वाभाविक घटना घटती है, बहुत बहुमूल्य। क्योंकि वहां प्रेम प्रकृति के चक्र से मुक्त हो जाता है, वहां प्रेम सचेतन हो जाता है।
इसलिए सभी प्राचीन संस्कृतियां माता—पिता के लिए परम आदर का स्थापन करती हैं। और इसे सिखाना होता है। इसके संस्कार डालने होते हैं। इसके लिए पूरी संस्कृति का वातावरण चाहिए, पूरी हवा चाहिए, जहां कि यह ऊपर की तरफ उड़ना आसान हो सके।
नीचे की तरफ उतरने में कुछ भी गौरव—गरिमा नहीं है। कठिन और भी है। जब एक बच्चा पैदा होता है, तो बच्चा तो निर्दोष होता है,सरल होता है। और बड़ी बात है—वही उसका गुण है, जिसकी वजह से आपका प्रेम उसकी तरफ बहता है—असहाय होता है, हेल्पलेस होता है। असहाय को प्रेम देने में आपके अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। असहाय को बड़ा करने में आपको बड़ा रस आता है। फिर बच्चा निर्दोष होता है। उसको घृणा करने का तो कोई उपाय भी नहीं। उस पर कठोर होने में आपको मूढ़ता मालूम पड़ेगी।
पर जैसे—जैसे बच्चा बडा होता है, वैसे—वैसे आपका प्रेम सूखने लगता है; वैसे—वैसे आप कठोर होने लगते हैं! जैसे—जैसे बच्चा अपने पैरों पर खडा होने लगता है, वैसे—वैसे आप और बच्चे के बीच खाई बढ़ने लगती है। क्योंकि अब बच्चा असहाय नहीं है। और अब बच्चे का भी अहंकार पैदा हो रहा है। अब बच्चा भी संघर्ष करेगा, प्रतिरोध करेगा, बगावत करेगा, लड़ेगा। अब उसकी जिद्द और उसका हठ पैदा हो रहा है। उससे आपके अहंकार को चोट पहुंचनी शुरू होगी।
नवजात बच्चे को प्रेम करना बड़ा सरल है। लेकिन जैसे ही बच्चा बड़ा होना शुरू होता है, प्रेम करना मुश्किल, कठिन होने लगता है।
ठीक इससे उलटी बात खयाल में रखें कि बच्चे के लिए आपको प्रेम करना बहुत कठिन है, घृणा करना सरल है। क्योंकि आप शक्तिशाली हैं। और निर्बल हमेशा शक्तिशाली को घृणा करेगा। शक्तिशाली दया बता सकता है निर्बल के प्रति, लेकिन निर्बल को दया बताने का तो कोई उपाय नहीं है। निर्बल शक्तिशाली को घृणा करेगा।
बच्चा अनुभव करता है, असहाय है और आप शक्तिशाली हैं। बच्चा अनुभव करता है,वह परतंत्र है और सारी शक्ति, सारी परतंत्रता का जाल आपके हाथ में है। जैसे ही बच्चे का अहंकार बड़ा होगा—बड़ा होगा ही, क्योंकि वही गति है जीवन की—जैसे ही बच्चा सजग होगा और समझेगा मैं हूं, वैसे ही आपके साथ संघर्ष शुरू होगा।
आप चाहेंगे आज्ञा माने, और बच्चा चाहेगा कि आशा तोड़े। क्योंकि आज्ञा मनवाने में आपके अहंकार की तृप्ति है और आशा तोड्ने में उसके अहंकार की तृप्ति है। और बच्चे के मन में आपके लिए घृणा होगी, और आपका प्रेम सिर्फ जालसाजी मालूम होगी। क्योंकि प्रेम के नाम पर आप बच्चे का शोषण कर रहे हैं,ऐसा बच्चे को प्रतीत होगा। और सौ में नब्बे मौके पर बच्चा गलती में भी नहीं है। प्रेम के नाम पर यही हो रहा है।
यह सारी घृणा बच्चे में इकट्ठी होगी। अगर बच्चा लड़का है, तो पिता के प्रति घृणा इकट्ठी होगी, अगर लड़की है, तो मां के प्रति घृणा इकट्ठी होगी। कोई बेटा अपने बाप को आदर नहीं कर पाता। आदर करना पड़ता है,मजबूरी है, लेकिन भीतर से बगावत करना चाहता है। कोई लड़की अपनी मां को प्रेम नहीं कर पाती। दिखलाती है, वह शिष्टाचार है। लेकिन भीतर ईर्ष्या, जलन और संघर्ष है। इसलिए गुरजिएफ की बात मूल्यवान है कि जो व्यक्ति अपने मां—बाप को प्रेम कर पाए, उसे ही मैं मनुष्य कहता हूं। क्योंकि यह बड़ी कठिन यात्रा है।
इसलिए आप अगर अपने बच्चों को प्रेम करते हैं, तो बहुत गौरव मत मान लेना। सभी अपने बच्चों को प्रेम करते हैं, आपके बच्चे भी करेंगे। इसमें कोई विशेषता नहीं है। लेकिन अगर आप अपने मां—बाप के प्रति आदर करते हैं, प्रेम करते हैं, सम्मान रखते हैं, तो जरूर गौरव की बात है, जरूर महत्वपूर्ण बात है। क्योंकि यह एक चेतनागत उपलब्धि है। और यह तब ही हो सकती है, जब आप मूल के प्रति श्रद्धा से भर जाएं।
अन्यथा हर बेटे को ऐसा लगता है कि बाप मूढ़ है। और जैसे—जैसे आधुनिक विकास हुआ है शिक्षा का, वैसे—वैसे यह प्रतीति और गहरी होने लगी है।
शायद बाप उतना पढ़ा—लिखा न हो,जितना बेटा पढ़ा—लिखा है। बाप बहुत—सी बातें नहीं भी जानता है, जो बेटा जान सकता है। रोज शान विकसित हो रहा है। इसलिए बाप का ज्ञान तो पिछड़ा हो जाता है; आउट आफ डेट हो जाता है।
तो बेटे के मन में स्वभाविक हो सकता है कि बाप कुछ भी नहीं जानता। श्रद्धा कैसे पैदा हो? श्रद्धा किन्हीं तथ्यों पर आधारित नहीं हो सकती। श्रद्धा तो सिर्फ इस बात पर आधारित हो सकती है कि पिता उदगम है, स्रोत है; और जहां से मैं आया हूं, उससे पार जाने का कोई उपाय नहीं। मैं कितना ही जान लूं, मैं कितना ही बड़ा हो जाऊं अपनी आंखों में, मेरा अहंकार कितना ही प्रतिष्ठित हो जाए, लेकिन फिर भी मूल और उदगम के सामने मुझे नत होना है। क्योंकि कोई भी अपने उदगम से ऊपर नहीं जा सकता।
कोई वृक्ष अपने बीज से ज्यादा नहीं होता। हो भी नहीं सकता। बीज में पूरा वृक्ष छिपा है। कितना ही विराट वृक्ष हो जाए वह छोटे—से बीज में छिपा है। और उससे अन्यथा होने की कोई नियति नहीं है। और अंतिम फल जो होगा वृक्ष का, वह यह होगा कि उन्हीं बीजों को वह फिर पुन: पैदा कर जाए।
उदगम से आप कभी बड़े नहीं हो सकते। मूल से कभी विकास बड़ा नहीं हो सकता। वृक्ष कभी बीज से बड़ा नहीं है, कितना ही बडा दिखाई पड़े। इस अस्तित्वगत घटना की गहरी प्रतीति माता—पिता के प्रति आदर से भर सकती है।
लेकिन आप माता—पिता की तरह इसको मत सुनना, इसको बेटे और बेटी की तरह सुनना। यह आपके माता—पिता के प्रति आपकी श्रद्धा के लिए कह रहा हूं। अब जाकर अपने घर में आप अपने बच्चों से श्रद्धा मत मांगने लगना। क्योंकि तब आप बात समझे ही नहीं, चूक ही गए।
और जिस समाज में भी माता—पिता के प्रति श्रद्धा कम हो जाएगी, उस समाज में ईश्वर का भाव खो जाता है। क्योंकि ईश्वर आदि उदगम है। वह परम स्रोत है।
अगर आप अपने बाप से आगे चले गए हैं तीस साल में, आपके और बाप के बीच अगर तीस साल की उम्र का फासला है, आप इतने आगे चले गए हैं बाप से, तो परम पिता से,परमेश्वर से तो आप बहुत आगे चले गए होंगे। अरबों—खरबों वर्ष का फासला है। अगर परमात्मा मिल जाए, तो वह बिलकुल महाजड़,महामूढ़ मालूम पड़ेगा। जब पिता ही मूड मालूम पड़ता है, अगर परमात्मा से आपका मिलन हो,तो वह तो आपको मनुष्य भी मालूम नहीं पड़ेगा।
पीछे की ओर, मूल की ओर, उदगम की ओर सम्मान का बोध अत्यंत विचार और विवेक की निष्पत्ति है। वह प्रकृति से नहीं मिलती। विमर्श, चिंतन, ध्यान से उपलब्ध होती है।
पर ध्यान रखना, जो भी मैं कह रहा हूं वह आपसे बेटे और बेटियों की तरह कह रहा हूं पिता और माता की तरह नहीं।

11 जून 2019
धार्मिक आधार पे जागती है हमारी संवेदनाएं...कहीं रुदन, तो कहीं खामोशी क्यों..
अरुण साथी
कठुआ में काठ मारने वाली घटना दुष्कर्म के आरोपियों को जिस दिन आजीवन कारावास की सजा दी गई ठीक उसी दिन कई लोग अलीगढ़ में हुए दुष्कर्म को लेकर कैंडल मार्च निकाल रहे थे। दोनों घटनाओं में अलग-अलग वर्ग पीड़िता के प्रति संवेदना दिखाने लगे और आरोपियों को सरेआम फांसी पर लटकाने अथवा अन्य तरीकों से खुद ही सजा देने की बात उठाने लगे।
जैसे भारत मे कोई न्याय व्यवस्था हो ही नहीं! और ठीक उसी दिन बिहार के मुजफ्फरपुर में 41 बच्चों की मौत की खबर भी आ रही थी पर यह खबर कहीं दिख नहीं रही। अथवा किसी कोने में दम तोड़ रही है। इन बच्चों की मौत एक बुखार की वजह से हो रही है जिसके बारे में अमेरिका के चिकित्सक भी कुछ कहने से इनकार कर दिया। इन मर रहे बच्चों का धर्म क्या है।
यह सोशल मीडिया के उन्मादियों को पता करना चाहिए। क्योंकि किसी बच्चे की मौत से हमारी संवेदनाएं नहीं जगती! वह धर्म के हिसाब से जगती है। बच्चों के मौत से हमारी संवेदनाएं जगी होती तो हम इस पर भी कुछ लिख रहे होते परंतु अब हमारी संवेदनाएं धर्म विशेष के प्रति नफरत को लेकर जगती है अथवा सुषुप्त अवस्था में चली जाती है। इन्हीं घटनाओं से सोशल मीडिया के हमाम में हम सब नंगे हुए है।
हम सब मतलब हम सब। सेकुलर, कॉम्युनल सब। कठुआ की घटना में जैसे ही आरोपियों को एक धर्म वालों के द्वारा दूसरे धर्म का बताया गया और फिर उस धर्म को कटघरे में खड़ा करके आंसू बहाए जाने लगे, ऑन द स्पॉट कठोर से कठोर सजा देने की बात होने लगी और तथाकथित सेकुलर समाज एवं धर्म विशेष के लोगों ने सोशल मीडिया पर अपनी डीपी बदली और जमकर कैंडल मार्च निकाला ठीक उसी दिन यह इबारत लिखी गई कि दूसरे धर्म के लोग भी ऐसा ही करेंगे। उसके बाद से नफरत की यह इबारत लिखी जाने लगी और अलीगढ़ दुष्कर्म के बाद दूसरे धर्म के लोगों ने एक धर्म विशेष को कटघरे में खड़ा करते हुए सजा की मांग कर डीपी बदल ली और कैंडल मार्च निकाला। इस सब के बीच इससे भी गंभीर जो घटना सामने आई वह यह कि कठुआ के बाद धर्म विशेष के लोगों ने दुष्कर्मी को एन केन प्रकारेण अपने कुतर्क से बचाव करने लगे। अलीगढ़ में भी ठीक ऐसा ही होने लगा और दुष्कर्मी के धर्म वाले कुतर्क गढ़कर सोशल मीडिया पर एक दूसरे से उलझने लगे। सोशल मीडिया का यह सबसे नकारात्मक चेहरा है। इससे समाज को बांट चुका है।
नफरत की ज्वाला जलने लगी है। जिसमें समाज भी जल रहा है। किसी भी घटना पर त्वरित टिप्पणी से पिछले दो सालों से बचने लगा हूं। रोहित बोमिल, बीफ कांड का प्रकरण हो अथवा कठुआ का प्रकरण। जब एक वर्ग धर्म विशेष के आरोपी को सजा दिलाने के लिए खड़े होते हैं और वही वर्ग ठीक उसी तरह के जघन्य का अपराधों में खामोशियों को ओढ़ लेते हैं तब सवाल उठने लगते हैं। खैर, अब यह सब बात बेमानी हो गई है। नफरत की हवा जबरदस्त वही है और रग रग में पेवस्त है। अब दुष्कर्मी, हत्यारे, अपने और पराए धर्म के होने पर ही उसके विरोध अथवा समर्थन में हम उतरते हैं। नफरत का महाजाल ऐसा कि उसमें उलझ कर मानवता और सामाजिकता दम तोड़ रही है। मानवीय आधारों पर विचार रखने वालों को भी ऐसी घेराबंदी की जाती है कि वे त्राहिमाम करने लगते हैं। क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया में दोनों तरफ से कट्टरपंथी हावी हो गए।
तथाकथित सेकुलर समाज के तुष्टीकरण की नीति ने एक धर्म के कट्टरपंथियों को बोलने का मौका दे दिया। मुझ जैसे कुछ लोग इसी वजह से खामोश भी हो गए। जाने आगे और क्या होगा। डर तो लगता है। सबसे बड़ा डर सोशल मीडिया के उन्मादी जमातों से है। डराने के लिए यूपी के पत्रकार की रीट्वीट के जुर्म में गिरफ्तारी इसी का संकेत है..

19 मई 2019
भक्तिकाल में महाभक्त
भक्तिकाल में महाभक्त
(अरुण साथी, भक्तों के भय से कांपते हाथों ने बटन दबाया है, इसमें मेरी कोई गलती नहीं, माफ कर दियो बाबा..)
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कसम से भक्त परंपरा में ऐसे महा भक्त की भक्ति को देखकर बाबा केदार भी फूट फूट कर रोने लगे। ध्यान, योग, कैमरा, इंजीनियर, मुस्टंडे गार्ड, और 24 घंटे लाइव प्रसारण! बाबा केदार ने सोचा भी नहीं होगा कि ऐसे अद्भुत, अदम्य भक्त भी उनकी भक्ति करेंगे! ध्यानकक्ष में जब कैमरा गया तो बाबा का अंतःकरण भी अंतर्नाद कर उठा!
बाबा तो औघरदानी हैं उनको यह सब बात समझ कहां आने वाली पर भक्त परंपरा के महाभक्त साहिब ने बाबा के आंख में आंसू भर दिए। क्या गजब की भक्ति थी। 24 घंटे से आम आदमी परेशान हैं कि कोई न्यूज़ चैनल वाले हमारी भी तस्वीर दिखा दे। रोजी रोजगार की बात उठा दे। हाय। अब तो भूखे रामखेलावन को भी भरोसा हो गया कि उसका बेटा जरूर दिन भर ताश खेल के भी बेरोजगार नहीं है। जरूर वह अपनी लुगाई को सब कमाई दे रहा है। भला इस रामराज्य में कोई बेरोजगार हो सकता है क्या।
चिलचिलाती धूप में बनठन के निकाली हसीना तो एकदम से भड़क गई है। क्यों जी, हमे भी भाव दो। हम भी आदमी है। चैनल वाला बेचार क्या करता। देशद्रोही कहके खिसक लिया।
महा भक्त की भक्ति में डूबे भक्त चैनल सीधा भक्ति परंपरा का निर्वाह करते हुए महा भक्त का प्रसारण कर रहे हैं। महा भक्त के अभिनय कला कौशल की क्षमता का वैसे तो पूरी दुनिया ने लोहा मान लिया है पर आज के अभिनय कला, रूपसज्जा और भेषभूषा ने रविश जैसे को भी लोहा मनवा ही दिया। आखिर कर बाबा केदार को ही कहना पड़ा, बस कर पगले, रुलाएगा क्या...😢😢😢
(डिस्क्लेमर: बर्दास्त की भी हद होती है भाई जी)
