19 अप्रैल 2019

ओशो को पढ़िए: भारत के जलते प्रश्न : युवा रास्ता भटक गया है?

आजादी के 68 साल बित गए लेकिन पहले की अपेक्षा युवाओं की मानसिकता में तेजी से गिरावट आई है। 70 के दसक में युवा बुद्धिमान हुआ करता था लेकिन अब नाशवान है। आज का युवा जहां रूढ़िवाद, परंपरागत, कर्मकांडी सोच और बाबाओं के चक्कर में फंसा हुआ है, वहीं वह पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण कर नशे और सेक्स में लिप्त हो चला है। तो दूसरी और नक्सलवादी और सांप्रदायिक गतिविधियों में वह भारत के उद्धार की बात सोचने लगा है... क्यूं? ...हालांकि पिछले कुछ वर्षों में सृजन के क्षेत्र में कार्य कर रहे युवाओं के कार्य को देखकर आशा की किरण जागी है...। इसी संदर्भ में प्रस्तुत हैं ओशो के विचार...

एक मित्र ने पूछा है कि कहा जाता है कि भारत का जवान राह खो बैठा है। उसे सच्ची राह पर कैसे लाया जा सकता है?

-पहली तो यह बात ही झूठ है कि भारत का जवान राह खो बैठा है। भारत का जवान राह नहीं खो बैठा है, भारत की बूढ़ी पीढ़ी की राह अचानक आकर व्यर्थ हो गई है और आगे कोई रास्ता नहीं है। आज तक जिसे हमने रास्ता समझा था वह अचानक समाप्त हो गया है और आगे कोई रास्ता नहीं है, और रास्ता न हो तो खोने के सिवाय मार्ग क्या रह जाएगा?

 

भारत का जवान नहीं खो गया है, भारत ने अब तक जो रास्ता निर्मित किया था, इस सदी में आकर हमें पता चला कि वह रास्ता है ही नहीं इसलिए हम बेराह खड़े हो गए हैं। रास्ता तो तब खोया जाता है, जब रास्ता हो और रास्ते से भटक जाएं। जब रास्ता ही न बचा हो तो किसी को भटकाने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। 

 

जवान को रास्ते पर नहीं लाना है, रास्ता बनाना है। रास्ता नहीं है आज और रास्ता बन जाए तो जवान सदा रास्ते पर आने को तैयार है, हमेशा तैयार है। क्योंकि जीना है उसे, रास्ते से भटककर जी थोड़े सकेगा! बूढ़े रास्ते से भटके, भटक सकते हैं। क्योंकि उन्हें जीना नहीं है और सब रास्ते- भटके हुए रास्ते भी कब्र तक पहुंचा देते हैं।

 

लेकिन जिसे जीना है, वह भटक नहीं सकता। भटकना मजबूरी है उसकी। जीना है तो रास्ते पर होना पड़ेगा, क्योंकि भटके हुए रास्ते जिंदगी की मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं। जिंदगी की मंजिल तक पहुंचने के लिए ठीक रास्ता चाहिए, लेकिन रास्ता नहीं है।

 

मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि युवक नहीं भटक गया है, हमने जो रास्ता बनाया था वह रास्ता ही विलीन हो गया; वह रास्ता ही नहीं है अब। आगे कोई रास्ता ही नहीं है। और अगर युवक वर्ग को ही गाली दिए चले जाएंगे कि तुम भटक गए हो, तो वह हमसे सिर्फ क्रुद्ध हो सकता है, क्योंकि उसे कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा है और आप कहते हैं भटक गए हो।

हमने कुछ रास्ता बनाया था, जो बीसवीं सदी में आकर व्यर्थ हो गया है। हमने रास्ता बनाया था। वह रास्ता ऐसा था कि उसका व्यर्थ हो जाना अनिवार्य था।

पहली बात तो यह है कि हमने पृथ्वी पर चलने लायक रास्ता कभी नहीं बनाया। हमने रास्ता बनाया था, जैसे बेबीलोन में टॉवर बनाया था कुछ लोगों ने स्वर्ग जाने के लिए। वह जमीन पर नहीं था, वह ऊपर आकाश की तरफ जा रहा था। स्वर्ग पहुंचने के लिए कुछ लोगों ने एक टॉवर बनाया था।

 
हिन्दुस्तान ने 5 हजार सालों से जमीन पर चलने लायक रास्ता नहीं बनाया, स्वर्ग पर पहुंचने के रास्ते खोजे हैं। स्वर्ग पर पहुंचने के रास्ते खोजने में पृथ्वी पर रास्ते बनाना भूल गए हैं। हमारी आंखें आकाश की तरफ अटक गई हैं। और हमारे पैर तो मजबूरी से पृथ्वी पर ही चलेंगे। 20वीं सदी में आकर हमको अचानक पता चला है कि हमारी आंखों और पैरों में विरोध हो गया है। आंखें आकाश से वापस जमीन की तरफ लौटी हैं तो हम देखते हैं, नीचे कोई रास्ता नहीं है। नीचे हमने कभी देखा नहीं।

 
इस देश में हमने एक पारलौकिक संस्कृति बनाने की कोशिश की थी। बड़ा अद्भुत सपना था, लेकिन सफल नहीं हुआ, न सफल हो सकता था। इस पृथ्वी पर रहने वाले को इस पृथ्वी की संस्कृति बनानी पड़ेगी, पार्थिव। इस पृथ्वी की संस्कृति हमने निर्मित नहीं की।

 
मैंने सुना है कि यूनान में एक बहुत बड़ा ज्योतिषी एक रात एक गड्ढे में गिर गया। चिल्लाता है, बड़ी मुश्किल से पास की किसी किसान औरत ने उसे निकाला। जब उसे निकाला, तब उस ज्योतिष ने कहा है कि मां, तुझे बहुत धन्यवाद। मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं, तारों के संबंध में मुझसे ज्यादा कोई नहीं जानता। अगर तुझे तारों के संबंध में कुछ जानना हो तो मैं बिना फीस के तुझे बता दूंगा, तू चली आना। मेरी फीस भी बहुत ज्यादा है।

 
उस बूढ़ी औरत ने कहा, बेटे तुम निश्चिंत रहो, मैं कभी न आऊंगी, क्योंकि जिसे अभी जमीन के गड्ढे नहीं दिखाई पड़ते हैं उसके आकाश के तारों के ज्ञान का भरोसा मैं कैसे करूं?

 
भारत कोई 3 हजार साल से गड्ढे में पड़ा है आकाश की तरफ आंखें उठाने के कारण। नहीं, मैं यह नहीं कहता हूं कि किन्हीं क्षणों में आकाश की तरफ न देखा जाए, लेकिन आकाश की तरफ देखने में समर्थ वही है, जो जमीन पर रास्ता बना ले और विश्राम कर सके। वह आकाश की तरफ देख सकता है, लेकिन जमीन को भूलकर अगर आकाश की तरफ देखेंगे तो गहरी खाई में गिरने के सिवाय कोई मार्ग नहीं है।

लेकिन पूछा जा सकता है कि भारत के जवान ने इसके पहले यह भटकन क्यों न ली? 20वीं सदी में आकर क्या बात हो गई?

रास्ता- मैं कह रहा हूं, 3 हजार साल से हमारी पूरी संस्कृति ने जमीन पर रास्ता ही नहीं बनाया।

अगर हम पुराने शास्त्र पढ़ें तो उनमें हमें मिल जाएगी किताबें, जिनका नाम है, 'मोक्ष मार्ग', मोक्ष की तरफ जाने वाला रास्ता। लेकिन पृथ्वी पर चलने वाले रास्ते के संबंध में एक भी किताब भारतीय संस्कृति के संबंध में नहीं है। स्वर्ग जाने का रास्ता भी है, नर्क जाने का रास्ता भी है, लेकिन पृथ्वी पर चलने के रास्ते के संबंध में कोई बात नहीं है।

साभार : भारत के जलते प्रश्न (स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का)

सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

18 अप्रैल 2019

धर्म

धर्म
(सच्ची घटना पे आधारित लघु कथा)
अरुण साथी
हमलोग चार-पांच साथी एक स्कूल में बैठे हुए थे तभी तीन बुजुर्ग गेरुआ वस्त्र पहने, कांधे पर एक धार्मिक संस्था का थैला लटकाए, हाथों में कुछ पत्र-पत्रिकाएं लिए हुए पहुंचे और स्कूल के निदेशक से बात करने लगे। उन्होंने अपनी धार्मिक संस्था के बारे में खूब प्रशंसा की। साथ ही में बताया कि अब वे सेवानिवृत्त हो गए हैं और अपना जीवन धर्म के नाम समर्पित कर दिया है।

वे महाशय बोलते ही जा रहे थे! बोलते ही जा रहे थे! सभी लोग चुपचाप थे। बोलने के क्रम में उन्होंने बताया कि सेवानिवृत्ति के बाद गांव में उनके द्वारा एक हनुमान जी का मंदिर बनाया गया है उसमें सुबह-शाम पूजा और भगवत कथा करते हैं। साथ धार्मिक संस्था के द्वारा आयोजित यज्ञ के लिए उन्होंने चंदे की रसीद भी बढ़ा दी और मनमाफिक चंदा भी लिया।

खैर, इसी बीच वहां बैठा आर्यन उनको एकटक देख रहा था। फिर अचानक उनको टोका,

"सर आप तो चौधरी जी है ना? चौधरी सर! एसपी हुआ करते थे।"

वे खुश हो गए।

"हां, मैं ही हूँ। श्याम लाल चौधरी।"

"अच्छा सर, आप मुझको नहीं पहचाने। मैं 10 साल पहले आपसे मिला था। मेरे बाबूजी की हत्या हो गई थी। हत्यारे को पकड़ने के लिए कर्ज लेकर आपको आपको पच्चास हजार दिया था। आपने उल्टा अनुसंधान रिपोर्ट में सभी को अपराध से मुक्त कर दिया था।उसके बाद सभी अपराधियों ने मेरे घर पर कब्जा कर मुझको गांव से भगा दिया सर।"

चौधरी जी का मुँह देखने लायक था। काटो तो खून नहीं। सब लोग टुकुर टुकुर उनका मुंह देखने लगे।