23 सितंबर 2021

यात्रा वृतांत:1: जो कहते हैं आजादी अभी अधूरी है उनको जालियांवाला बाग आना चाहिए

यात्रा वृतांत:1: जो कहते हैं आजादी अभी अधूरी है उनको जालियांवाला बाग आना चाहिए

अरुण साथी

यात्रा वृतांत की शुरुआत चौथे दिन से कर रहा हूं। पीछे का वृतांत अगली कड़ी में पेश करूंगा । 

चौथे दिन बुधवार को हम लोग अमृतसर शहर में थे। अमृतसर शहर दो हिस्सों में बंटा हुआ दिखाई दिया। एक हरमंदिर साहिब के आसपास का अंतरराष्ट्रीय दृश्य का मनमोहक अमृतसर तो दूसरा बाहरी बाजार में आम भारतीय बाजार जैसा गंदगी और कांय-किच।
सबसे पहले जालियांवाला बाग की बात। बहुत ही रोमांचक और भावुक। हालांकि पर्यटकों को लुभाने के लिए जालियांवाला बाग को एक अत्याधुनिक साज-सज्जा भी दिया गया है परंतु अंदर में जाने के बाद हर कोई भावुकता से भर जाता है।
हालांकि हर कोई कहना उचित भी नहीं होगा। कुछ नए कपल यहां केवल पिकनिक स्पॉट के रूप में घूमने के लिए आए हुए नजर पड़े। कुछ-कुछ पार्क के जैसा।

वर्तमान के बदलते दौर में ऐतिहासिक स्मरण के स्थल हो या धार्मिक स्थल। मोबाइल, सेल्फी और दिखावा इससे अलग नई पीढ़ी के लिए यहां कुछ भी नहीं होता। धार्मिक स्थलों पर भी पहली प्राथमिकता सेल्फी और फोटो खिंचवाने के दिखाई पड़ती है। हरमंदिर साहिब में भी यही कुछ रहा और जालियांवाला बाग में भी। मन को मारते हुए भी कई तस्वीरें खींचनी ही पड़ी। कुछ तस्वीर अपनी भी। 
खैर, जालियांवाला बाग आजादी के दीवानों के कुर्बानियों की जीवंत निशानी है। जिन्होंने देश के आजादी में योगदान देने के लिए हंसते-हंसते अपना बलिदान दे दिया। 

संकीर्ण रास्ते से आए जनरल डायर ने गोलियों की तड़तड़ाहट से सैकड़ों लोगों को भूंजा दिया। जान बचाने के लिए कई लोग जिस कुआं में कूदे।  वहां जाकर कौन भावुक नहीं होगा। लाशों से वह कुआं भर गया था।

हमारी भावना और आस्था देशभक्ति को भी धर्म से कम नहीं मानती तभी तो हम लोग भारत माता की प्रतिमा स्थापित कर पूजा भी करते हैं ऐसा ही कुछ कुछ जालियांवाला बाग में दिखा।


कुएं को सजा संवार कर खूबसूरत बना दिया गया है परंतु भावनात्मक लोग यहां पहुंच कर सेल्फी तो लेते ही हैं यहां आस्था से प्रभावित होकर रुपये भी कुएं में गिरा देते हैं। आसपास नोट भी पड़े हुए दिखाई पड़े और कुआं के अंदर भी नोट गिरे हुए हैं मिलते हैं।


जालियांवाला बाग की दीवारों पर गोलियों के निशान को चिन्हित कर दिया गया है। इस निशानी को देख कर किसकी आंखें नहीं भर आएगी। बेरहम गोलियों ने सब को छलनी कर दिया।


एक म्यूजियम जैसा बनाया गया है। वहां जालियांवाला बाग कांड का फिल्मांकन कर उसकी प्रदर्शनी लगातार होती रहती है। एक चौंकाने वाली बात यह भी नजर आई कि म्यूजियम में प्रभावित लोगों के परिवार वालों के बयान को लिखित रूप से उद्धृत किया गया है। सोचने की बात यह कि उसमें बयान देने वालों के नाम के साथ जाति का जिक्र किया गया है। पता नहीं इसके संयोजकों ने ऐसा क्यों किया? जाति का विवरण मुझे असहज ऐसा लगा।


"डायर की गोलियों ने हिंदू और मुसलमानों में कोई भेद नहीं किया।" टी एस कार

सबसे पहले इसी पर नजर पड़ी। शायद देश की अखंडता और एकता के संदेश को लेकर यह बोर्ड जालियांवाला बाग में लगाया गया है। इसके साथ ही कई महापुरुषों के वक्तव्य को जगह-जगह बोर्ड में लगाया गया है। इसके माध्यम से यह भी बताने की शायद कोशिश की गई हो कि मुसलमानों का योगदान भी देश की आजादी में रहा है।
देशभक्ति या आस्था कहिए कि यहां बुजुर्ग लोग भी नजर आए। हालांकि पिकनिक के लिए घूमने आए परिवार और न्यू कपल के लिए यह एक पार्क जैसा सुखद एहसास देने वाला है। उनके लिए कुर्बानियों के ऐतिहासिक महत्व का कोई महत्व साफ दिखाई नहीं पड़ा।

जालियांवाला बाग को सुसज्जित भले बना दिया गया है परंतु दीवारों पर गोलियों के वर्तमान निशान हर देशभक्त को अपने शरीर पर लगे होने जैसा एहसास देने लगता है और जो लोग कहते हैं आजादी अभी अधूरी है उन्हें इस एहसास का अनुभव यहां आकर अवश्य करना चाहिए..

अगली कड़ी शीघ्र

17 सितंबर 2021

रिलायंस किराना दुकान और ईस्ट इंडिया कंपनी की फीलिंग

रिलायंस किराना दुकान और ईस्ट इंडिया कंपनी की फीलिंग

छोटे से कस्बाई शहर बरबीघा में भी रिलायंस स्मार्ट का किराना दुकान खुल गया। उसमें सब्जी, फल, मसाला, दूध, पनीर, घी, मक्खन से लेकर दाल चावल, बिस्कुट, चाय सभी कुछ उपलब्ध है।
निश्चित ही पूंजीवाद का यह एक सुरसा स्वरूप है। सब कुछ अपने कब्जे में कर लेने की कवायद दिखती है। यह ठीक वैसे ही मुक्तखोरी की बात होगी जैसे जियो मोबाइल। अब हर हाल में ₹200 महीना देना ही होगा। अनुभव लेने मैं भी गया। समान खरीद में आधा घंटा लगा तो बिल बनाने और चेक कर निकलने में एक घंटा।
बहुत कुछ जानकारी नहीं मिल सका पर बहुत भीड़ थी । शुभारंभ को लेकर। ₹16 किलो की भिंडी एक ₹9किलो। लहसुन ₹49 तो गोभी भी ₹49 प्रति पीस, चीनी 40 । बाजार से सस्ता । पता किया तो पता चला कि कंपनी का ही निर्देश है कि बाजार से हर कीमत पर सब्जी की कीमत कम रखना है। चाहे खरीद ऊंची कीमत पर ही क्यों ना हो।

छोटे व्यापारियों, फुटपाथ पर काम करने वाले, ठेला पर सब्जी बेचने वाले, ठेला पर फल बेचने वालों के पेट पर लात मारने की यह एक बड़ी कोशिश है। और इस कोशिश से भगवान भी गरीबों को नहीं बचा सकते। आखिर अम्बानी की कंपनी जो है!

एक जानकारी जो नोटिस में शायद ही किसी ने किया वह यह दे रहा हूं कि कोविड-19 में परदेस से पलायन कर अपने घर आए लोगों का एकमात्र रोजगार का साधन छोटा-छोटा किराना दुकान, सब्जी, फल दुकान बना और गांव, घर, शहर के गली मोहल्ले में किराना दुकान की भरमार हो गई। कमाई भले ही 10-50 हो पर इंगेज लोग हो गए। अब उन पर भी आफत आएगी।
उपभोक्ताओं को निश्चित ही पहली नजर में सामान सस्ता मिल जाएगा। परंतु 1 किलो भिंडी के लिए जब मॉल में लोग जाएंगे तो अतिरिक्त सामानों की खरीदारी का अतिरिक्त बोझ भी बढ़ेगा । ₹9 में 1 किलो भिंडी खरीदेंगे तो एक, दो दूसरों का सामान भी खरीद कर निकलेंगे और मुनाफा मेकअप हो जाएगा। यही फंडा पहली नजर में समझ में आया।

ग्राहकों को भी फायदा है। ठंडा और दूध छोटे से शहर में कीमत से अधिक वसूले जाते हैं। दूध ₹4 प्रति लीटर प्रिंट से अधिक दुकानदार लेते हैं । ठंडा में प्रति बोतल ₹5 एक्स्ट्रा अनिवार्य रूप से ठंडा के नाम पर लिया जाता है। यहां ऐसी बात नहीं है। इसका असर होगा। दुकानदारों को इसपे विचार करना चाहिए। एक दिक्कत जो आम तौर पे दुकानदार करते है वह कम वजन देने का है। यहां वह नहीं है। एक बात यह भी की दुकानदारों में गहरी चिंता है। शाम में सभी दुकानदार यहां समझने बुझने आ रहे। आखिर अब दैत्याकार किराना दुकानदार से प्रतिस्पर्धा है। रणनीति तो बदलनी ही होगी।

यहां पर एक बात नहीं होगी कि जब हम किसी ठेला से सब्जी खरीदते हैं तो उसके घर का चूल्हा जलता है। उसके बच्चे पढ़ते हैं। और उसके घर में खुशहाली आती हैं। परंतु जब हम यहां से खरीदेंगे तो देश के सारी पूंजी के 25 फीसद पर कब्जा करके बैठे चंद लोगों के पूंजी में ही हम इजाफा करेंगे। किसी का भला नहीं हो सकेगा।

कुछ-कुछ ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी फिलिंग होने लगी है। बात भी वैसा ही है। देश में पूंजीवादी सरकार है। गरीबों की सुनने की कोई बात बिल्कुल ही नहीं है और वर्तमान में कोई गांधीजी भी नहीं है जो स्वदेशी आंदोलन जैसा मुद्दा उठा सकें। यहां तो गरीबों की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हो जाती है।

आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन और भूदान आंदोलन जैसे आंदोलनों ने सीलिंग से अधिक जमीन रखने वालों की जमीन पर कब्जा कर लिया। पूंजीवाद की सरकार में देश के 100 पूंजीपतियों के हाथ में 25 फीसद हिस्सा है । पर उसके कब्जे की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता । पर एक न एक दिन गरीब के चूल्हे जब खामोश होंगे तो गरीब की आवाज भी बुलंद होगी। लोकतंत्र में माया फैलाकर बहुत दिनों तक इन आवाजों को दबाकर नहीं रखा जा सकता। रिलायंस किराना दुकान में फल, सब्जी बेचने का विरोध तो किया ही जाना चाहिए। परंतु ऐसा करेगा कौन...? जात, धर्म में बांटें लोगों के शोषण की आवाज भला अब कौन, क्यों और किसलिए उठाएगा...? जय श्री राम...

11 सितंबर 2021

विलुप्त हो गई गुरूजी के साथ चकचंदा मांगने की परंपरा, गांव-गांव पूजे जाते थे बुद्धि के देवता गणेश

 अरुण साथी


कई भारतीय संस्कृति और परंपरा विलुप्त भी हो गई। पांच-सात दशक पहले तक ऐसी ही एक संस्कृति और परंपरा का चलन मगध क्षेत्र में गणेश उत्सव चतुर्थी के दिन से शुरू हो जाता था और एक पखवाड़े तक चलता था। इसे चकचंदा का नाम से लोग जानते है। हर गांव के सरकारी अथवा गुरु जी के पाठशाला में बुद्धि के देवता गणेश जी पूजे जाते थे। सरस्वती पूजा का आयोजन हाई स्कूल स्तर पर होती थी।
 
घर-घर घूम कर मांगते थे चकचंदा

भादो शुक्ल पक्ष चतुर्थी के दिन गांव के सभी स्कूल में गणेश की प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती थी। वही गुरुजी के साथ स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे चकचंदा के लिए गांव में घर-घर जाते थे। जहां गुरु जी को आदर और सम्मान से बैठाने के बाद कहीं अंग वस्त्र तो कहीं आनाज चंदा स्वरूप दिया जाता था।
 
बुजुर्गों को आज भी है याद
इसको लेकर बरबीघा के शेरपर गांव निवासी सत्तर वर्षीय विजय कुमार चांद कहते हैं कि अपने गांव में गुरु जी के साथ हुए चकचंदा मांगने के लिए जाते थे। हाथ में गुल्ली-डंडा लेकर उसे बजाना होता था। गुरु जी चारपाई पर बैठते थे। बच्चे चकचंदा गाते थे । अनाज अथवा वस्त्र इत्यादि अभिभावकों के द्वारा दिया जाता था।
 
65 वर्षीय समाजवादी नेता शिवकुमार कहते हैं कि वह पटना के बाढ़ अनुमंडल अंतर्गत बरूआने गांव में लगन गुरु जी के पिंडा (पाठशाला) पर पढ़ने के लिए जाते थे। गणेश चतुर्थी को चकचंदा मांगने की रस्म होती थी। इसके लिए एक छोटा और एक बड़ा, दो रंगीन डंडा हर बच्चे के हाथ में होता था। जिसे एक निश्चित धुन के साथ एक दूसरे से टकराकर बजाया जाता था। उसमें कपड़े का फीता भी लगा होता था और काफी खूबसूरत लगता था। गुरु जी के प्रति सम्मान की यह एक अनोखी परंपरा थी। गुरु जी बच्चों के साथ 15 दिनों तक घूमते थे। बच्चे चकचंदा गाते थे । उस समय मनोहर पोथी ही प्रमुख पुस्तक होती थी। चकचंदा गाने में अखियां लाल-पियर होलो रे बबुआ। कोठी पर पिटारा देखो इत्यादि गीत शामिल थे।
 
वहीं खोजागाछी निवासी 70 वर्षीय आनंदी पांडे, गोरे सिंह बताते हैं कि वह भी अपने गुरु जी के साथ चकचंदा में जाते थे। भादो चौठ गणेश जी आए, डंडा खेल गुरुजी पठाए यह गाया जाता था। वहीं कवि अरविंद मानव कहते है कि उस समय हमलोग भी निकलते थे। बाउआ रे बउआ लाल लाल झअुआ चकचंदा गाते थे।

04 सितंबर 2021

तेजस ट्रेन में नंग-धड़ंग एमएलए के लूज मोशन का सकारात्मक पक्ष

 तेजस ट्रेन में नंग-धड़ंग एमएलए के लूज मोशन का सकारात्मक पक्ष


हास्य  व्यंग्य
अति आधुनिक तेजस ट्रेन में बिहार के सत्ताधारी पार्टी के एक विधायक जब नंग-धड़ंग अवस्था में घूमते दिखे तो उसकी तस्वीर वायरल करने की अति दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना घटी। किसी ने इसके सकारात्मक पहलू को नहीं देखा। अब श्रीमान ने बताया कि उनको लूज मोशन हो गया था।  नहीं भी बताते तो लोग मान कर चलते हैं कि जातीय समीकरण और सत्ता के संरक्षण से विधायक बनने पर हाजमा खराब हो ही जाता है। सो इनकाे भी लू मोशन हो गया। वैसे भी बिहारी राजनीति लूज मोशन की शिकार रही है। कभी कभी पीएम मटिरियल बनने के लिए भी लूज मोशन हो जाता है। यह तो अप्राकृतिक प्रक्रिया है।

 सो कौन, कब, कहां बदबू फैला दे, कहा नहीं जा सकता। मंडल, कमंड, जातीय गणना। कितनी बदबू।
 
माना कि वे अर्धनग्न अवस्था में घूमते देखे गए। परंतु यह क्या कम है कि वह पूर्ण रुप से नग्न अवस्था में नहीं दिखाई दिए! यात्रियों ने जब इसका विरोध किया तो उन्होंने मानवता का परिचय देते हुए केवल गाली-गलौज ही की।  अति आधुनिक तेजस ट्रेन के स्पीड का आनंद पूर्ण वस्त्र में कभी नहीं लिया जा सकता। सो इन्होंने प्राकृतिक अवस्था को प्राप्त करते हुए तेजस ट्रेन के अति द्रुतगामी होने का आनंद लेने के लिए केवल अर्धनग्न अवस्था  को चुनकर यात्रियों के साथ-साथ रेल और देश पर अति उपकार किया। भावनाओं को समझें।