29 अप्रैल 2024

जब मैं मर जाऊंगा

 आज समाचार के साथ साथ अपनी भावनाओं को भी लिख दिया। मरना तो यथार्थ है। तब यह भी होगा क्या?



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जब मैं मर जाऊंगा
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सोंच रहा हूं
जब मैं मर जाऊंगा
तो क्या होगा
कुछ लोग आएंगे
दुख जता कर
चले जाएगें
कुछ अपनों की आंखों में
सच के आंसू होंगे
कुछ यह देखने आएगें
कि सच में
मैं मरा, की नहीं
सोंच तो यह भी रहा
कि मेरी लाश के
सिरहाने बैठ कर
पीठ पीछे गाली देने वाले भी
झूठ बोलते हुए
मुझे भला आदमी कहते हुए
कैसे दिखेगें
सोंच तो यह भी रहा
कि मरने के बाद ही
सब के सब भला क्यों
बना दिए जाते
सोंच रहा हूं कि
मरने के बाद
यह सब मैं
देख पाऊंगा या नहीं

20 अप्रैल 2024

#बिहार में कम #मतदान, तथ्य और सत्य

#बिहार में कम #मतदान, तथ्य और सत्य 

बिहार में कम मतदान को लेकर सभी चिंतित है। यह स्वाभाविक भी है। बिहार  के  नवादा  लोकसभा  में  सर्वाधिक  कम  मतदान  हुआ। इसके कई कारण है। इसके तथ्य और सत्य अलग अलग है। एक  बात यह भी है कि  42 डिग्री का प्रचंड गर्मी  में चुनाव था। इस साल कम लगन था। लगन  के  दिन  ही  चुनाव  की  तारीख रख दिया गया। कई घरों में शादी थी तो वे दिन में सोये रहे। कई लोग शादी में शामिल होने बाहर चले गए।
पहले चरण में  प्रचार का कम समय मिला। अंतिम दिन तक टिकट के लिए माेलभाव, तोड़जोड़।  इससे कार्यकर्ता उत्साहहीन हो गए। अब पार्टी प्राइवेट लिमटेड कंपनी की तरह काम करती है। कार्यकर्ता का महत्व कम गया। जीताने वाले को टीकट देती है। वह चाहे अपराधी हो।  दागी हो। वंशवादी हो।  कल तक भ्रष्टाचारी  हो ।  सब  धो पोंछ कर पी जाना है। तब कार्यकर्ता भी उदासीन हो गए। पहले पार्टी कार्यकर्ता वोटर को घर से निकालने में लगे रहते थे, इस बार यह सब कम देखने को मिला। 
एक  कारण पार्टी का गठबंधन रहा। कल तक गाली देने वाले आज गले मिल रहे। तो  उदासीन  होना  स्वाभाविक  है। 

एक कारण चुनाव आयोग के वातानुकूलित अधिकारियों की रही। उनके  द्वारा  आम  जन  की  समस्याओं  का  ध्यान  नहीं  रखा  गया। लगन और गर्मी दो कारक है। चुनाव आयोग ने प्रचार पर कड़ा अंकुश लगाया है। असर  रहा  कि  गांव  और  गलियों में चुनाव का शोर थम गया। इससे हमे सकुन तो मिला, उत्साह कम गया। 
ठोस कारक देखिए। बिहार में पलायन एक सत्य है। वोटर गांव में नहीं है। मांझी जी का वोटर का पूरा गांव और टोला खाली है। दूसरी सभी  जातियों में भी पलायान है। प्रदेश जाकर बिहार में खुशहाली ला रहे। अपने  देह  पर  सितम  उठा  घर,  परिवार  खुशहाल  कर  रहे। गांव में रहने वाले ज्यादातर वोटर वोट देने के लिए गए है। कुछ कथित वीआईपी लोग सोए रहे।

तब जो वोटर हैं ही नहीं वो वोट कैसे करेंगें ।एक  कारण  सरकार  बदलने  का  विकल्प का अभाव भी रहा। तो वोट करने कुछ नहीं  निकले। कुछ को बीएलओ ने मतदाता पर्ची नहीं दिया तो प्रभावित हुआ। पहले पार्टी कार्यकर्ता भी पर्ची देते थे, अब कार्यकर्ता सोशल मीडिया पर चेहरा चमकाते है। 

इस समीकरण से बिहार में 70 प्रतिशत मतदान हुआ है। 5 प्रतिशत चुनाव आयोग की अदूरदर्शिता से कम हुआ। 5 प्रतिशत प्रचंड गर्मी ने रोका। 5 प्रतिशत उत्साह की कमी। हां, 15 प्रतिशत पलायन से वोट नहीं हुआ।  जो लोग प्रचंड गर्मी की बात करते हैं उनके लिए 85 वर्षीय बुढ़ी माता राबड़ी देवी बानगी है। घाटकुसुंभा टाल में बीच दोपहर। घर से एक किलोमीटर दूर। वोट देकर जा रही है। 

नवादा में राजद का बूथ मैनेजमेंट तगड़ा था। कई बूथ पर सिपाही से लेकर पुलिस पदाधिकारी और पीठासीन तक, कोई न कोई राजद समर्थक मिले। वे अपनी ताकत लगाकर वोट को रोक रहे थे। मुझे बूथ पर नहीं जान देने वाले भी राजद समर्थक पुलिस पदाधिकारी थे और वरीय अधिकारी द्वारा सूचना पर संज्ञान नहीं लिया जाना, चिंता का विषय है।

बाकी सब ठीक है।

(डिस्क्लेमर: राजद को ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए। मतदान प्रतिशत उनके सार्थक गांवों में भी कम ही हुआ है। )

14 अप्रैल 2024

सतुआनी या बिसुआ भारतीय संस्कृति का एक अनोखा पर्व

#बिसुआ #सतुआनी

आज सत्तुआ खाने का पर्व है। हमारा देश भी अदभुत है। सनातन परंपरा और भी अदभुत। वैज्ञानिक समझ। वैज्ञानिक परंपरा।  वैज्ञानिकता को धर्म से जोड़ने वाला देश। धर्म।

सत्तू। एक समय में गांव से गरीबों को गाली दिया जाता था या औकात बताई जाती थी तो कहा जाता था,

 "सतुआ खइते दिन जाहौ आऊ फूटनी करे हे।"

पर देखिए, इसी सत्तू को पर्व से जोड़ गया है। अमीर। गरीब। सबका पर्व।

कहा जाता है की सतुआनी के बाद अन्य पर्व खत्म हो जातें है। ऐसी मान्यता है। 
कहावत है। नागपंचमी पसार, बिसुआ उसार। मतलब नागपंचमी से पर्व शुरू, बिसुआ के बाद खत्म। हालांकि इस साल अभी चैती दुर्गा पूजा और छठ बाकी है।

बिसुआ का एक अपना महत्व भी है। कई जगह सत्तू से पूजा भी होती है। कई जगह सत्तू से साथ जौ भी चढ़ाया जाता है। जौ आज विश्व भर में प्रसिद्ध है। मिलेट में शामिल।

आज जबकि फास्ट फूड या इंस्टेंट फूड का जमाना है, इसके नुकसान सभी बता रहे।

कई तरह के हानिकारक रसायन इनमें दिया जाता है। घटिया तेल। और खतरनाक रसायन अजीनोमोटो। कहते है यह बेहद खतरनाक है। 

खैर। आज गांव गांव चाउमिन, एग रोल, मोमो बिक रहे। भीड़ भी है।

वहीं सत्तू। एक पौष्टिक आहार। शुद्ध। प्रोटीन  युक्त। स्वास्थ्य वर्धक। सुपाच्य। 

हालांकि आज कई लोगों का यूरिक एसिड बढ़ा होता है। वैसे लोगों के लिए प्रोटीन वर्जित है। फिर भी पुरानी परंपरा में सत्तू सिर्फ चने का नहीं होता था। 

मिलौना सत्तू सबसे अधिक उपयोगी माना जाता। कहा जाता था की यह पेट ठंडा रखता है।

और उपयोगकर्ता जानते है कि सत्तू के सेवन से प्यास अधिक लगती है। तो गर्मी में पानी अधिक पीना पड़ता है, जो फायदेमंद है।

सत्तू। सबसे इंस्टेंट फूड है। झटपट तैयार। कई तरह से उपयोग। घोर कर पीना। सान कर खाना। नमक। चीनी। मीठ्ठा। सब से साथ। 

बुजुर्ग लोग खेत में गमछी पर ही सत्तू सान कर खा लेते थे। 

आज सत्तू का चलन बढ़ा है। कई नवाचार कंपनी भी है। मतलब यह की भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म का जुड़ाव यहां भी प्राकृतिक से है। प्रकृति की पूजा से है। 

खैर, आज शुद्ध चने का सत्तू। शुद्ध देशी गाय का घर का घी। भूरा। सान के खा लिए। एक अलग स्वाद। किसी भी मिठाई से स्वादिष्ट।

01 अप्रैल 2024

बदलते गांव की कहानी

#गांव #खेत #खलिहान

खेती किसानी में एक बड़ा बदलाव देख रहा। अब दलहन, तेलहन की खेती नगण्य है। सिर्फ गेहूं की खेती। एक बदलाव यह भी की अब उपज तीन गुणा बढ़ा है। पहले एक मन प्रति कट्ठा बेहतर उपज माना जाता था। आज धान, गेहूं तीन मन प्रति कट्ठा तक उपज है। 
पहले रबि की खेती में सरसो, तीसी सामान्य तौर पर किया जाता। आज सब खत्म। तीसी तो विलुप्त। जबकि आज तीसी की उपयोगिता औषधीय है। मधुमेह में रामबाण माना जाता।

इसी तरह खेसारी की खेती बंद। चना, मसूर, अरहर बहुत कम। 
इधर, टीवी पर एक कीटनाशक का विज्ञापन देखा। कहा गया, मोथा को जड़ से खत्म कर देता। फिर याद आया, मोथा अब मेरे यहां विलुप्त है। पहले खूब होता था। गेहूं के खेत में। दादी का नुस्खा था। मोथा का जड़ (कंद) को खाने से खांसी ठीक हो जाती है। खूब उपयोग किया था। अब विलुप्त। कितना कुछ बदल गया। अब गेहूं के खेत में अमेरिका से आया जहरीला अमेरिकन घास प्रचुर है। इसके संपर्क से ही दमा होता है। खेत को बंजर बनाता है।

खेत में बिजली का पहुंचना सुखद है। मेरे इलाके में बिजली न हो तो धान की खेती अब असंभव है। इसका एक दुखद पहलू यह की बिजली का सस्ता तार (एल्यूमिनियम पर प्लास्टिक कवर) किसान बोरिंग में ले जाते है। लगभग नंगा होता है। उससे हर साल किसानों की जान चली जाती है। खेत में टहलना अब जानलेवा है। दोष बिजली विभाग पर आता है। धीरे धीरे बहुत कुछ बदलता देख रहा...जाने और क्या बदले...

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