22 अगस्त 2016

व्यर्थ की बातें सुनता भारत

*यह देश व्यर्थ की बातें सुनने में बड़ा उत्सुक होता है।*
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सार्थक कोई भी बात सुनने में इस देश को बड़ी पीड़ा होती है, क्योंकि इससे अहंकार को चोट लगती है। और सदियों-सदियों तक हम जिस तरह की बातें सुनते रहे हैं, उन्हीं को हम समझते हैं कि धर्म-चर्चा है!

मेरे पास पत्र आते हैं कि आप काम-शास्त्र पर क्यों बोले? ऋषि-मुनि तो सदा ब्रम्हचर्य पर बोलते हैं।

मैं उनको कहता हूँ कि मैं न कोई ऋषि हूँ, न कोई मुनि हूँ -- मैं एक वैज्ञानिक हूँ! तुम छोड़ो तुम्हारे ऋषि-मुनि की बात। तुम्हारे ऋषि-मुनि जानें और तुम जानो। मैं न किसी का मुनि हूँ, न किसी का ऋषि हूँ। मैं एक वैज्ञानिक हूँ। मैं एक चिकित्सक हूँ। मैं औषधि देना चाहता हूँ। मैं सच में ही इलाज करने को उत्सुक हूँ। बीमारी का दार्शनिक विश्लेषण करने में जरा भी मेरा रस नहीं है; लेकिन बीमारी कैसे काटी जा सके, बीमारी के पार कैसे जाया जा सके...

मैं तुम्हारे प्राणों में पड़ गई मवाद को निकाल देना चाहता हूँ। हालांकि जब मवाद निकलेगी तो पीड़ा होगी। तुम नाराज हो जाओ पीड़ा से, तो फिर मवाद नहीं निकल सकती। और मवाद निकलेगी तो बदबू भी फैलेगी। लेकिन तुम बदबू भी नहीं फैलना देना चाहते। तुम कहते हो: इत्र छिड़क दो ऊपर से और रहने दो मवाद भीतर, बाहर मत निकालो। अब जो छिपा है, उसे उघाड़ना क्यों?

मगर वह मवाद तुम्हारे भीतर बढ़ रही है, गहरी होती जा रही है। तुम सड़ते जा रहे हो।

*यह देश बुरी तरह सड़ गया है। इस देश में अब जिंदा आदमी कम हैं, लाशें ही लाशें हैं। और दार्शनिक चर्चा चल रही है। मुर्दे इकट्ठे हैं और सत्संग कर रहे हैं। और सत्संग में ऐसी-ऐसी बातें होती हैं कि जिनका किसी से कोई संबंध नहीं, कोई लेना-देना नहीं।*

दार्शनिक प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं है। या तो उनका उत्तर है, वह बँधा-बँधाया है; उनका कोई मूल्य नहीं है। या फिर उनका उनका उत्तर ही नहीं है, तब भी कोई सार नहीं है।

पूछो जीवंत प्रश्न, पूछो जीवन की वास्तविकता से जुड़े प्रश्न! जीवन को सुलझाना है, आकाश की गुत्थियों में मत पड़ो। तुम्हारी छोटी-सी जिंदगी की जो गुत्थी है, तुम उसे सुलझा लो। उसके सुलझते ही सारा अस्तित्व सुलझ जाता है।

इसलिये मैं तो तुम्हें सलाह दूँगा मुकेश, कि भारतीय आदत छोड़ो। अच्छा हो मनोवैज्ञानिक प्रश्न पूछो, दार्शनिक प्रश्नों की बजाय, क्योंकि मनोविज्ञान तुम्हारी दशा है। वहाँ तुम हो। वहीं उलझन है। वही तुम्हारा रोग है। और जहाँ रोग है, वहीं इलाज किया जा सकता है!
#ओशो #Osho प्रस्तुति:- *अरुण साथी*

17 अगस्त 2016

वासना और प्रेम

वासना की आंख से देखा जाना किसी को भी पसंद नहीं। प्रेम की आंख से देखा जाना सभी को पसंद है।

*तो दोनों आंखों की परिभाषा समझ लो।*

वासना का अर्थ है, वासना की आंख का अर्थ है कि तुम्हारी देह कुछ ऐसी है कि मैं इसका उपयोग करना चाहूंगा। प्रेम की आंख का अर्थ है, तुम्हारा कोई उपयोग करने का सवाल नहीं, तुम हो, इससे मैं आनंदित हूं। तुम्हारा होना, अहोभाग्य है! बात खतम हो गयी। प्रेम को कुछ लेना-देना नहीं है। वासना कहती है, वासना की तृप्ति में और तृप्ति के बाद सुख होगा; प्रेम कहता है, प्रेम के होने में सुख हो गया। इसलिए प्रेमी की कोई मांग नहीं है।

तब तो तुम अजनबी के पास से भी प्रेम से भरे निकल सकते हो। कुछ करने का सवाल ही नहीं है।

हड्डियों को हड्डियों से लगा लेने से कैसे प्रेम हो जाएगा! प्रेम तो दो आत्माओं का निकट होना है। और कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि जिसके पास तुम वर्षों से रहे हो, बिलकुल पास रहे हो, पास न होओ; और कभी ऐसा भी हो सकता है कि राह चलते किसी अजनबी के साथ तत्क्षण संग हो जाए, मेल हो जाए, कोई भीतर का संगीत बज उठे, कोई वीणा कंपित हो उठे। बस काफी है। उस क्षण परमात्मा को धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाना। पीछे लौटकर भी देखने की प्रेम को जरूरत नहीं है। पीछे लौट-लौटकर वासना देखती है। और वासना चाहती है कि दूसरा मेरे अनुकूल चले......
#Osho #ओशो
*प्रस्तुति-अरुण #साथी*

13 अगस्त 2016

स्वर्ग-नर्क

सदियों से तुम्हें झुठे विश्वास बेचे गए हैं ---ओशो

मुझे तुम्हारी आंतरिक सत्ता के विकास पर कार्य करना होता है। दोनों एक ही प्रक्रिया के अंग हैं: कैसे तुम्हें एक समग्र व्यक्ति बनाया जाए, उस सारी निस्सारता को, जो तुम्हें समग्र बनने से रोक रही है, कैसे नष्ट किया जाए। यह तो नकारात्मक पहलू है और सकारात्मक पहलू है कि कैसे तुम्हें प्रज्ज्वलित किया जाए ध्यान से, मौन से, प्रेम से, आनंद से, शांति से। मेरी देशना का यह सकारात्मक पहलू है।

लोगों को सकारात्मक पहलू से तो कोई झंझट नहीं है। मैं लोगों को ध्यान, शांति, प्रेम, मौन सिखाता हुआ पूरे विश्व में घूमता रह सकता था और किसी ने भी मेरा विरोध न किया होता।

परंतु इस तरह से मैं किसी की कोई मदद नहीं कर सकता था, क्योंकि फिर उस व्यर्थ को कौन नष्ट करता? और व्यर्थ को पहले नष्ट किया जाना है, यही तो रुकावट है। यही तुम्हारा पूरा का पूरा संस्कार है। बचपन से ही झूठों के साथ तुम्हारा पालन-पोषण किया गया है, और उन्हें इतनी बार दोहराया गया है कि तुम भूल ही गए हो कि वे झूठ हैं।

विज्ञापन का कुल रहस्य इतना ही है बस दोहराए जाओ। रेडियो पर, टेलीविजन पर, फिल्मों में, समाचार-पत्रों में, दीवारों पर, हर जगह बस दोहराए जाओ।

पुराने समय में ऐसा सोचा जाता था कि जहाँ कहीं भी माँग होगी, पूर्ति अपने से हो जाएगी। अब, नियम यह नहीं है। अब नियम यह है कि यदि पूर्ति करने के लिए तुम्हारे पास कोई चीज है, माँग निर्मित करो। लोगों के मनों में कुछ शब्द बार-बार दोहराते चले जाओ ताकि वे भूल ही जाएँ कि वे इसे रेडियो पर, टेलीविजन पर, फिल्मों में, समाचार पत्रों में देख-सुन रहे हैं, और वे इस पर भरोसा प्रारंभ कर दें।

लगातार किसी वस्तु के बारे में सुनते-सुनते वे इसे खरीदना प्रारंभ कर देते हैं- साबुन, टूथपेस्ट, सिगरेट। इस तरह से तुम कोई भी चीज बेच सकते हो।

मैंने एक व्यक्ति के बारे में सुना है जिसे एक बड़ा सेल्समैन माना जाता था। उसकी कंपनी को उस पर बहुत गर्व था। कंपनी जमीन-जायदाद का व्यवसाय करती थी। जमीन का एक बड़ा-सा टुकड़ा उनके पास कई वर्षों से था। कंपनी ने बेचने की बहुत कोशिश की लेकिन कोई भी उस जमीन को खरीदने में उत्सुक न था।

आखिरकार जमीन के मालिक ने उस सेल्समैन को बुलवाया और उससे वह जमीन बेचने के लिए कहा। सेल्समैन ने कहा, 'आप चिंता न करें,' और उसने वह जमीन बेच दी।

बेचने के पंद्रह दिन बाद ही बारिश प्रारंभ हुई और वह जमीन पंद्रह फीट पानी में डूब गई। इसी कारण से उस जमीन को खरीदने में कोई उत्सुक न था। सड़क से देखकर कोई भी समझ सकता था कि बारिश में उसका क्या हाल होगा। क्योंकि चारों ओर से जमीन इतनी नीची थी।

जिस आदमी ने उस जमीन को खरीदा था, वह बहुत गुस्से और क्रोध में आया और मालिक के ऑफिस में घुस गया और बोला, 'यह व्यापार है या लूट? कहाँ है तुम्हारा सेल्समैन?'

मालिक ने उससे पूछा, 'बात क्या है? हुआ क्या है?'

उसने कहा, हुआ क्या?' सेल्समैन ने जो जमीन मुझे बेची है वह अब पंद्रह फीट पानी में डूबी हुई है। वह तो एक बड़ी सारी झील-सी बन गई है। अब मैं उस जमीन का क्या करूँगा। या तो मैं उस आदमी को जान से मार डालूँगा, या फिर मेरा पैसा वापस करो।'

मालिक ने कहा, 'चिंता न करें। आप बैठ तो जाएँ।'
मालिक ने सेल्समैन को बुलवाया। सेल्समैन ने कहा, 'यह कोई समस्या नहीं। आप मेरे साथ आएँ। मैं इस समस्या को अभी सुलझा देता हूँ। आपको अपना पैसा चाहिए? आप अपना पैसा पंद्रह दिन में सूद सहित वापस ले लें। क्योंकि मेरे पास और भी अधिक दाम देने वाला खरीददार मौजूद है।'

उस आदमी ने कहा, 'क्या?'
सेल्समैन बोला, 'अब आप अपना मन न बदलें। आप सूद सहित अपना पैसा वापस ले लें और उस जमीन को भूल जाएँ। वह इतनी सुंदर जमीन है...आप बारिश के बाद उस जमीन में एक सुंदर मकान बना सकते हैं और जब बारिश दुबारा आए, आप ऐसा इंतजाम कर सकते हैं कि पानी वहाँ से बाहर न जाए। पूरे शहर में आपका अपनी ही तरह का अलग मकान होगा, झील महल। और जहाँ तक अभी की बात है, मैं आपको नावें दे देता हूँ। हम उन्हें ऐसे ही किसी मौके के लिए बचाए हुए थे।'

और उस सेल्समैन ने उस आदमी को दो नावें भी बेच दीं। मालिक वहीं खड़ा यह सारा दृश्य देख रहा था। वे नावें एकदम बेकार थीं- सालों वे वहीं पड़ी सड़ रही थीं।

जिस समय भी उनको पानी में उतारा जाता, उसी समय वे डूब जातीं। मालिक ने अपने सेल्समैन से कहा, 'तुम तो और अधिक मुसीबत खड़ी कर रहे हो।'

सेल्समैन बोला, 'आप चिंता न करें। यदि मैं उतनी बड़ी मुसीबत झेल सकता हूँ, तो मैं इन दो नावों से भी निपट सकता हूँ। तुम्हें तो बस आकांक्षा जगा देनी है- 'झील महल'। वह आदमी तो केवल एक मकान बनाने की सोच रहा था। तुमने उसकी इच्छा को, आकांक्षा को 'झील महल' में बदल दिया।

सेल्समैन ने कहा, 'जरा सोचिए, यदि आप 'झील महल' बनाना चाहें, पहले तो आपको एक झील बनानी पड़ेगी। और हम आपको बनी-बनाई तैयार झील दे रहे हैं, और उसका एक पैसा भी नहीं ले रहे हैं।'

सदियों से आदमी को विश्वास, सिद्धांत, मत बेचे गए हैं जोकि एकदम मिथ्‍या हैं, झूठे हैं, जो केवल तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं, तुम्हारे आलस्य का प्रमाण हैं। तुम करना कुछ चाहते नहीं, और पहुँचना स्वर्ग चाहते हो।

और ऐसे लोग हैं जो तुम्हें नक्शे, सरल विधियाँ देने को तैयार हैं, जितनी चाहो उतनी सरल विधि। बस परमात्मा का नाम लेते, दो-तीन मिनट उसे स्मरण करते सुबह उठ जाओ, इतना पर्याप्त है। कभी-कभी गंगा चले जाओ, वहाँ जाकर डुबकी लगा आओ ताकि तुम्हारे समस्त पाप नष्ट हो जाएँ, तुम पवित्र हो जाओ। और सभी धर्मों ने ऐसी तरकीबें बना रखी हैं। काबा चले जाओ और सभी कुछ माफ कर दिया जाएगा।

मुसलमान गरीब लोग हैं और वे गरीब हैं अपने विश्वासों के कारण। वे धन को सूद पर लेने या देने के खिलाफ हैं। अब सारा व्यवसाय सूद पर ही निर्भर है, उन्हें गरीब रहना ही होगा। और उन्हें बताया गया है कि जीवन में कम से कम तुम्हें एक बार काबा अवश्य जाना चाहिए। काबा के पत्थर के चारों ओर सात चक्कर लगा लो, तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो जाएँगे और सभी पुण्य बरस जाएँगे। इतना कर लेना पर्याप्त है। इतनी सरल और आसान विधियाँ!

पंडित-पुरोहित तुम्हें सरल विधियाँ बताते हैं क्योंकि तुम आलसी हो। सच तो यह है कि तुम अपने अंतस की खोज के लिए कुछ करना ही नहीं चाहते हो।

स्वर्ग कोई कहीं ऊपर बादलों में नहीं है। यह तुम्हारे भीतर है और इसके लिए तुम्हें गंगा या काबा या गिरनार जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हें केवल 'स्वयं' तक पहुँचने की आवश्यकता है। परंतु कोई पंडित-पुरोहित या तथाकथित धर्म नहीं चाहते कि तुम स्वयं तक पहुँचो, क्योंकि जैसे ही तुम स्वयं की खोज पर निकलते हो, तुम सभी तथाकथित धर्मों- हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के बंधनों से बाहर आ जाते हो। उस सभी के बाहर आ जाते हो, जो मूढ़तापूर्ण और निरर्थक है। क्योंकि तुमने स्वयं का सत्य पा लिया होता है।

साभार : ओशो उपनिषद
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन