मौका था बिहार दिवस पर पुरस्कार वितरण का। तेलकार मध्य विद्यालय में पुरस्कार वितरण के रूप में अव्वल आये बच्चों के बीच पुरस्कार का वितरण किया जा रहा था। सभी बच्चे पुरस्कार प्राप्त कर शिक्षकों का अर्शीवाद लेने के लिए पैर छू कर उन्हें प्रणाम कर रहे थे। सिलसिला चल रहा था तभी एक वाकया ने अचम्भित कर दिया।
विद्यालय के प्रधानाध्यापक अनील सिंह ने पुरस्कार लेने के लिए पुकार लगाई दिलशान कुमार। दिलशान नाम का बारह-चौदह साल का लड़का पुरस्कार लेने के लिए आया और पुरस्कार ग्रहण कर उसने प्रधानाध्यापक को प्रणाम करने की जगह हाथ मिलने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया। मैं भी वहीं था बोल पड़ा, अरे यह क्या करते हो प्रणाम करो। पर उसने प्रणाम करने के बजाय लगभग जबरन प्रधानाध्यापक से हाथ मिलाई और किसी को प्रणाम किये बगैर ही चला गया।
मैं बोला, ‘‘नया जनरेशन है शायद इसलिए।’’
पर नहीं वहीं बगल मे बैठे शिक्षक मोहम्मद कलीम ने तुरंत जबाब दिया.
‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है इस्लाम में खुदा के अलावा किसी के सामने झुकने की मनाही।’’
मैं स्तब्ध रह गया। यह कैसा धर्म है? उस दिन से लेकर आज तक यह बात दिमाग से नहीं निकल रही है।
कबीर दास ने कहा है कि
गुरू गोबिंद दोउ खड़े, काके लागूं पांव।
बलिहारी गुरू आपनो गोबिंद दियो बताया।।
अर्थात ईश्वर से पहले हम गुरू को प्रमाण करते है क्योकि ईश्वर के बारे मे मुझे वही बताते है।
कबीर दास इससे भी एक कदम आगे निकल कर कहते है कि
बलिहारी गुरू आपनो, घड़ी घड़ी सौ सौ बार।
मानुष से देवत किया, करत न लागी बार।।
कबीर दास कहते है कि गुरू तो धन्य है जिन्होने हम जैसे मनुष्य को छोटे से प्रयास से देवता बना दिया।
फिर आगे बढ़ते हुए कबीर दास कहते है
कबीरा ते नर अंध है, गुरू को कहते और।
हरि रूठे गुरू ठौर है, गुरू रूठै नहीं ठौर।।
अर्थात गुरू का स्थान ईश्वर से उपर है यदि ईश्वर रूठ जाये तो गुरू के यहां ठिकाना मिल जाएगा पर यदि गुरू रूठ गए तो कहीं ठिकाना नहीं मिलेगा।
फिर कबीर दास ने कहा कि
राम रहे वन भीतरे गुरू की पूजी ना आस।
कहे कबीर पाखण्ड सब झूठे सदा निराश।।
अर्थात ईश्वर कहां है यह गुरू के बिना ही यदि कोई कहता है कि मैने जान लिया तो यह पाखण्ड है।
कबीर दास से मेरा आशय महज इतना है कि लोग इसपर भी धर्म की आड़ लेकर विवाद न खड़ा न करे और असल मुददे से भटक जाए। असल मुददा यह है कि गुरू का स्थान ईश्वर से पहले है या नहीं?
बचपन से आज तक हमने भी यही सीखा है पर इस्लाम की कट्टरता का इस घटना से जोड़ कर देखने पर बरबस ही विवश हो जा रहा हूं। मन तो मेरा तब भी बेचैन होता है जब छोटे छोटे बच्चों के हाथों में क ख ग और ए बी सी डी की किताब की जगह धर्मोपदेश की किताब होती है।
मैं समझता हूं की धर्म को स्वतंत्र होना चाहिए। बच्चे का धर्म क्या है यह हम क्यांे बताए। खोजने दिजिए उसे उसका अपना अपना धर्म। और सबसे बढ़कर यह की बड़ों के आगे सर झुकाने का मतलब होता है अपने अहंकार को तिरोहित करना। तब क्या इस्लाम अहंकारी बनाता है?