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समीक्षा : खाकी द बिहार चैप्टर , Netflix पर आईपीएस अमित लोढ़ा और महतो गिरोह
समीक्षा : खाकी द बिहार चैप्टर , Netflix पर आईपीएस अमित लोढ़ा और महतो गिरोह
Netflix जैसे मोबाइल ओटीपी मंच पर बिहार के उस दौर की कहानी को आईपीएस अमित लोढ़ा की जुबानी सीने पर्दे पर उतारना और सच के करीब ले जाना अपने आप में बड़ी बात होती है । नेटफ्लिक्स पर बीती रात जागकर खाकी द बिहार चैप्टर के सभी सात सीरीज को एक बार में खत्म कर दिया । 2005/06 तक के उस दौर को खूनी खेल, अपहरण, रंगदारी,जातीय संघर्ष के लिए जाना जाता है।
उसी दौर के आसपास आईपीएस अमित लोढ़ा ने कुख्यात महतो गिरोह के कहानी को द बिहार डायरी उपन्यास में संजोया तो नेटफ्लिक्स पर प्रख्यात निर्देशक नीरज पांडे ने वेब सीरीज का रूप दे दिया।
वेब सीरीज में बिहार के एक पुलिस अफसर के जद्दोजहद और अपराध तथा राजनीतिक गठजोड़ के साथ अपराधी का जातीय संरक्षण, सभी कुछ इसमें है । पूरे वेब सीरीज को सच्चाई के आसपास रखते हुए प्रस्तुत किया गया है। हालांकि रोचकता के लिए कहीं कहीं मिठास की चासनी भी है ।
पहली ही कड़ी वहीं से शुरू होती है जहां से चंदन को ठोकने जा रहे एक दरोगा को राजनीतिक दबाव में वापस बुला लिया जाता है । फिर कहानी में दबंगों का वर्चस्व और हत्या, अपहरण का दौर सब कुछ है। पूरी कहानी जिले के कसार थाना के इर्द-गिर्द है।
कसार थाना आज भी अपनी जगह पर है। परंतु इस वेब सीरीज में मुख्य केंद्र यही थाना है । इस थाना के आसपास के गांव का यह ताना-बाना है। उन गांव में आज ही महतो गिरोह के आतंक को लोग याद करते हैं। इस वेब सीरीज में गिरोह के आतंक को मानिकपुर नरसंहार से रेखांकित किया गया है।
पूरी सीरीज को बहुत ही बारीकी से बुना गया है और अगली कड़ी देखने के लिए प्रेरित दर्शक हो जाते हैं । द वेडनसडे फिल्म जिसने भी देखी है वह नीरज पांडे का फैन है। तो इसमें उनके द्वारा सभी किरदारों और पूरी कहानी को जीवंत कर दिया गया है।
आशुतोष राना जैसे बड़े कलाकार भी इसमें हैं परंतु उनके किरदार को कम स्पेस दिया गया। रवि किशन का किरदार भी प्रभावशाली रहा। वहीं अमित लोढ़ा का किरदार कर रहे करण टेकर बखूबी अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। चंदन महतो के अभिनय में अविनाश तिवारी ने पूरे चरित्र को जीवंत कर दिया है।
खैर, इस सीरीज में चवनप्राश का किरदार खास रहा। चंदन महतो को कुख्यात बनाने और उसके अंत की पटकथा लिखने तक में।
शेखपुरा जिला के एसपी रहते हुए अमित लोढ़ा ने वाकई में गिरोह का सफाया किया। उसके खौफ को शेखपुरा के सड़कों पर उसे घुमा कर अंजाम तक पहुंचा दिया।
बस एक बात है कि सीरीज का चमनपरास आज राजनीति समाज सेवक है। चंदन महतो का आज भी जेल में ही सही, पर मौज है ।
और हां, आईपीएस अमित लोढ़ा एक बार फिर विभागीय चक्रव्यूह में फंसकर उसी तरह तड़प रहे हैं जैसे वेब सीरीज में।
भले ही बिहार के जंगल राज के दौर की सच्चाई को बयान करती हो परंतु वर्तमान में भी बहुत कुछ नहीं बदला है। अगर बदला होता तो इसी जिले में शराब तस्कर की पिटाई का आड़ लेकर दबाव बनाने के लिए वर्तमान पुलिस अधीक्षक कार्तिकेय शर्मा का पुतला सत्ताधारी दल के द्वारा नहीं जलाया जाता।
इसी जिले ने टाटी नरसंहार में नौ राजनीतिज्ञ की हत्या, दो प्रखंड विकास पदाधिकारी की हत्या, एक कन्या अभियंता की हत्या और जिले के संस्थापक, दिग्गज राजनीतिज्ञ पूर्व सांसद रहे राजो बाबू की लाश खामोशी से देखी है।
उस दौर के कई कुख्यात लोग आज भी खादी पहनकर लहराते हुए दिखाई दे रहे हैं। बहुत कुछ नहीं बदला है, परंतु समय तेजी से बदल गया। कुल मिलाकर वेब सीरीज शानदार है। पटकथा लेखन, संवाद अदायगी, अभिनय, साज-सज्जा और लोकेशन, सभी कुछ।
वेब सीरीज को 10 में 9 अंक दिया जा सकता है।
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