16 अक्तूबर 2021

दलित सवर्णों से पहले मंदिर में करते हैं प्रवेश, होता है प्रतीकात्मक युद्ध

दलित सवर्णों से पहले मंदिर में करते हैं प्रवेश, होता है प्रतीकात्मक युद्ध
सवर्णों और दलितों के बीच भेदभाव, छुआछूत, शोषण, दमन के किससे से हटकर एक सकारात्मक यथार्थ की दूसरी क़िस्त। हालांकि इस तरह के यथार्थ को ना तो सोशल मीडिया पर ज्यादा उछाल मिलेगा, ना ही बड़े बड़े मीडिया घराने इस को महत्व देंगे। ऐसी बात नहीं है कि सकारात्मक बातें नहीं है पर समाज में घृणा को बढ़ाने के मामले अधिक मिलते हैं। ऐसी बात नहीं होती तो बिहार केसरी डॉक्टर श्री कृष्ण सिंह, ब्राह्मणों और पंडितों से लड़कर मुख्यमंत्री रहते हुए देवघर के मंदिर में दलितों के प्रवेश को लेकर इतना संघर्ष नहीं करते। समाज को दलितों से भेदभाव, छुआछूत मिटाने के लिए संदेश नहीं देते।
खुशी-खुशी सवर्ण दलितों से पराजय को स्वीकार करते हैं। खुशी खुशी उन्हें सबसे पहले मंदिर में प्रवेश करने दिया जाता है। खुशी-खुशी जब दलित मंदिर में पूजा कर लेते हैं तब सवर्णों की पूजा शुरु होती है।


शेखपुरा जिले में यह मामला मेहुस गांव में भी देखने को मिलता है। यह भूमिहार बहुल गांव है। यहां माता माहेश्वरी का सिद्धि पीठ है। जहां नवमी के दिन भूमिहार और दलितों के बीच प्रतीकात्मक युद्ध होता है। इस युद्ध में भूमिहार समाज के लोग रावण की सेना बनते हैं और दलित समाज के लोग राम की सेना बनते हैं ।

दोनों के बीच नवमी के दिन प्रतीकात्मक युद्ध होता है । इस युद्ध में भूमिहार समाज के लोग दलितों को मंदिर में प्रवेश करने से रोकते हैं। दोनों सेना में युद्ध होती है और भूमिहार समाज के लोग इसमें खुशी खुशी हार जाते हैं। और फिर दलित मंदिर में खुशी खुशी प्रवेश करते हैं। जिसके बाद सभी तरह की पूजा गांव में शुरू होती है।


यह परंपरा कई सदियों पुरानी है। ग्रामीण अंजेश कुमार कहते हैं कि इस परंपरा के कई मायने हैं। रावण और राम के युद्ध के बहाने दलित समाज को सम्मान देने और आपसी भेदभाव मिटाने को लेकर यह परंपरा वर्षो से चली आ रही है। दलित समाज के लोग पहले मंदिर में प्रवेश करते हैं तभी मंदिर में किसी तरह की पूजा पाठ शुरू होती है। दलितों के मंदिर में प्रवेश की रोक को लेकर देश दुनिया में कई चर्चाएं हैं परंतु यहां माता महेश्वरी के मंदिर में दलित ही पहले मंदिर में प्रवेश करते हैं। प्रतीकात्मक युद्ध होता है। भूमिहार की हार होती है।और दलित मंदिर में प्रवेश कर पूजा का शुभारंभ करते हैं। भाईचारा और सामंजस्य का यह एक अनूठी मिसाल है जो देश में कहीं नहीं मिलेगी।

15 अक्तूबर 2021

बली बोल में दलितों और सवर्णों का सामंजस्य

बली बोल में दलितों और सवर्णों का सामंजस्य

अरुण साथी

सवर्णों के द्वारा (खास, भूमिहार-राजपूत) दलितों से भेदभाव, छुआछूत, शोषण, दमन के किस्से आम हैं। परिणामतः वही भेदभाव, छुआछूत, शोषण, पर कहीं-कहीं दमन विपरीत धारा में बहने लगी है। कई राजनीतिक दल के मुखिया, जनप्रतिनिधि, और सत्ताधीश इसी कुंठा के साथ आगे बढ़ रहे हैं। कुछ सामाजिक, राजनीतिक और सोशल मीडिया पे सक्रिय लोग इसमे लगे है।

राजनीति की रोटियां चिताओं पर सेंकी जाने लगी है। भीम आर्मी जैसे संगठन आग में घी देने लगे। नतीजा नफरत, घृणा चरमोत्कर्ष पर है । यह सच है कि भेदभाव, छुआछूत, और शोषण, दमन के शिकार दलित हुए हैं। यह भी सच है कि इन्हीं सब के विरुद्ध सवर्णों ने आवाज उठाई। संघर्ष किया। लड़ाई लड़ी। जीत भी मिली।

 एक सच यह भी है कि अच्छाइयों को उस तरह से प्रचारित प्रसारित नहीं किया जाता जिस तरह से घृणा को। इसी तरह की एक अच्छाई बरबीघा के पिंजड़ी गांव में देखने को मिलती है। वर्षों से यहां यह परंपरा है । बली बोल। थोड़ा अंधविश्वास! थोड़ी परंपरा। बहुत सारा जातीय समानता।

परंतु इसके बारे में कम लोग ही जानते हैं। इस परंपरा में दलित समुदाय की पूरी टोली भूमिहारों के टोले में घर-घर घूमती है। बली बोल का नारा लगता है। हाथ मे लाठी, तलवार, भला, फरसा, गंडासा लिए हुए। भूमिहार अपने घरों के आगे हथियार, भाला, लाठी, झाड़ू रखते हैं। जिसको लांघ कर यह लोग निकलते हैं। मान्यताओं की माने तो यह सुरक्षा की गारंटी है।

दलित के पैर छूटे सवर्ण


इस परंपरा में दलित भगत श्रवण पासवान की भूमिका रहती है। चार-पांच पीढ़ियों से श्रवण पासवान के पुरखे इसके अगुआ रहे। अब श्रवण अगुआ है। उसके पैर सवर्ण जाति के बच्चे, बुजुर्ग महिलाएं सभी छूते हैं। प्रणाम करते हैं। स्वागत करते। शराब लाल रंग का डिजाइनर कपड़ा लपटे रहते है। वहीं कमर में घुंघरू होता है।



सभी का स्वागत होता है। दान दक्षिणा दिया जाता है। उसी तरह से ही गलियों में बीमार और कमजोर लोग सो जाते हैं और उसको लांघ कर दलितों की टोली चलती है। यह मान्यता है कि इससे निरोग लोग रहते हैं। दशकों से भूमिहारों से टोले में एक जगह बली बोल का समापन खास घड़ा को फोड़कर होता है। जहां घड़ा को फोड़ा जाता है और सभी जाति के लोग वहां घड़े का टुकड़ा अपने अपने घर ले जाते है। यह एक परंपरा दो-तीन सौ  साल पुरानी है। कभी तनाव नहीं हुआ ।कभी भेदभाव नहीं हुआ। कभी दलित सवर्ण का टकराव नहीं हुआ। सभी जाति के लोग मिलकर इसे करते हैं। दुर्भाग्य से इस तरह की अच्छाई को प्रचारित और प्रसारित नहीं किया जाता।