01 दिसंबर 2020

किसान आंदोलन, किसान बिल और एमएसपी का सच



पंजाब और हरियाणा के संदर्भ में कुछ नहीं कह सकता परंतु बिहार के संदर्भ में सरकारी दर पर धान की खरीद का हालत बद से बदतर रहती है। प्रत्येक साल । इस साल 23 नवंबर से धान खरीद करने का आदेश सरकार का है। अभी तक एक सौ ग्राम धान कहीं से किसानों की खरीद नहीं हो रही है। खरीद व्यापारी कर रहे हैं। वह भी 1200 रुपए क्विंटल सरकारी दर 1888 रुपए क्विंटल है।

 वही व्यापारी अब पैक्स अध्यक्ष को यही धान बेच देंगे और पैसे का बंदरबांट होगा। किसान के घर पैसा नहीं आएगा। जो किसान पैक्स अध्यक्ष की खुशामद करेंगे उसके धान की खरीद होगी। परंतु नमी के नाम पर, अधिकारियों के कमीशन के नाम पर, बोरा के नाम पर घपला होगा । 1 क्विंटल की जगह 5 किलो अधिक अनाज लिया जाएगा। नमी के नाम पर, बोरा के नाम पर पैसा लिया जाएगा। और सबसे बड़ी बात यह कि कॉपरेटिव बैंक से किसानों के पैसे का संचालन होगा। कॉपरेटिव बैंक घोटाले बाजों का अड्डा है। 


फर्जी निकासी

एक भी किसान बैंक में पैसा निकालने के लिए नहीं जाते हैं और उसके खाते से पैसा निकल जाता है। धान खरीद करते वक्त ही पैक्स अध्यक्ष बैंक के निकासी स्लिप हस्ताक्षर करा कर खुद जाकर पैसा निकाल लेता है। इसकी जांच हो तो अरबों रुपए का घोटाला बिहार में निकलेगा।


 इस पर अंकुश लगाने के प्रयास सभी असफल हो रहे हैं। इतना ही नहीं किसान के नाम पर पैसा निकालकर पैक्स अध्यक्ष लाखों करोड़ों रुपया सालों-साल यूज़ करता है और किसान पैक्स अध्यक्ष के पास आते जाते थक जाता है। इसी थकावट की वजह से 1200 रुपए ही सही, व्यापारी को धान दिया जा रहा है। किसान के हित में आंदोलन है अथवा नहीं, इस बात में नहीं पड़ना। परंतु किसान बिल में किसान को बाजार से भी जोड़ दिया गया है तो निश्चित रूप से किसानों को फायदा होगा। बाकी सब पॉलिटिक्स है,...

12 नवंबर 2020

बिहारी ने मुर्गों को मुर्गा बना दिया



अरुण साथी (व्यंग्य)

एक मुर्गा था। अनेक मुर्गे थे। बिहार चुनाव था। तेज रफ्तार थी। नौकरी था। रोजगार था। मुर्गे बिहार के भी थे। देशभर के भी थे। मुर्गों का क्या है। कुछ मुर्गे देसी नस्ल के थे। कुछ मुर्गे विदेशी नस्ल के थे। कुछ कड़कनाथ मुर्गे भी थे । कुछ मुर्गे फार्म हाउस में रह रहे थे। कुछ पोल्ट्री फॉर्म में रह रहे थे। कुछ मुर्गे मीडिया हाउस में थे। कुछ मुर्गे इलेक्ट्रॉनिक्स चैनल में थे। कुछ मुर्गे सोशल मीडिया पर थे।

फिर मुर्गों के समाज की दादागिरी स्थापित करने को लेकर सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में एक स्वर से मुर्गो ने कहा सुबह-सुबह जब वह बांग देते हैं तभी सूरज निकलता है। सूरज निकलता है तभी सवेरा होता है। सवेरा होता है तभी जीवन चलती है। लोग काम पर निकलते हैं। जब हम आम लोगों के जीवन में इतना महत्वपूर्ण है तो क्यों नहीं एक नुस्खा अपनाया जाए।


 सम्मेलन के अध्यक्ष कड़कनाथ मुर्गा ने निर्णय लिया कि सब आधी रात को बांग देंगे और सभी लोग जाग जाएंगे। तभी सूरज निकलेगा। फिर सभी एकजुट होकर मीडिया हाउस, इलेक्ट्रॉनिक चैनल, सोशल मीडिया, यूट्यूब इत्यादि पर आधी रात को बांग देने लगे। लोकतंत्र का पहला पाठ आम्रपाली (बिहार) ने दुनिया पढ़ाया। 


 बिहारी भोली-भाली जनता होती है। नासमझ होती है। अनपढ़। मूर्ख। गरीब-गुरबा। दिनचर्या के अनुसार बैल, बकरी, जानवर, खेती, जागना, सोना सब।

आधी रात को मुर्गे बांग देने लगे। इससे बिहारी जनता को कुछ फर्क नहीं पड़ा। सभी लोग अपनी दिनचर्या के अनुसार जागे और अपने-अपने काम में लग गए। अपने हिसाब से जीना। अपने हिसाब से अच्छा-बुरा सोचना। अपने हिसाब से वोट देना, सब हुआ।

इस बात से मुर्गों को भारी दुख हुआ। सभी आक्रोशित हो गए । गुस्सा इस बात का कि सुबह में क्यों जागे। उनके बांग देने पर आधी रात को सूरज क्यों नहीं निकला। अब फिर से बांग दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर बांग देने में गाली गलौज भी हो रहा है। लोकतंत्र का परिहास किया जा रहा है। बिहारी का उपहास किया जा रहा है। बिहारी को मूर्ख बताया जा रहा है। बिहारी को अपमानित किया जा रहा है। मुर्गों का क्या है। वह तो बांग ही देंगे। परंतु बिहारी ने मुर्गों को मुर्गा बना दिया। एक बिहारी। सब मुर्गों पर भारी। इतिश्री रेवा खंडे...

11 नवंबर 2020

नीतीश कुमार इस जीत पर इतरा नहीं सकते, बस; अंत भला तो सब भला


अरुण साथी

सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर दिए गए एकतरफा जीत और बहुमत को आखिरकार साइलेंट वोटरों और महिलाओं ने नकार दिया। अंततः जीत सोशल मीडिया पर दिखने वाले हवाबाजी से हटकर गांव देहात में प्रभावित मतदाताओं की वजह से हुई। देशभर में नरेंद्र मोदी के विरोधी खेमे ने बिहार में भी नरेंद्र मोदी को चित करने के सारे दांव खेल दिए। सभी तरह के हथकंडे भी अपनाएं। एग्जिट पोल के बाद जश्न भी मनाया। परंतु बिहार की जनता ने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की पिछली सरकार के किए गए कामों को डरते-डरते ही सही अपना समर्थन दे दिया। भाजपा है तो भरोसा है । यह बिहार चुनाव का स्लोगन भी इस बार कारगर रहा।

पहले ही कहा था कि अति पिछड़ा और महिलाओं की ताकत को नकारा नहीं जा सकता। बिहार के बौद्धिक और व्यवसायी वर्ग में लालटेन के आने से डर का माहौल भी होने के बात पहले कह रहा था। आखिरकार यह कारगर हुआ।


हालांकि ज्यादातर सीटों पर बहुत कम अंतर से हुए इस जीत पर नीतीश कुमार और भाजपा वाले इतरा नहीं सकते। जीत के संकेत स्पष्ट हैं। मतदाताओं ने नीतीश कुमार की सरकार को कड़ी चेतावनी दे दी है। 


जनहित से हटकर काम करने, प्रशासनिक दबंगई, भ्रष्टाचार, झूठी शराबबंदी से त्रस्त जनता नीतीश कुमार के साथ तो गई है परंतु चेतावनी भी स्पष्ट दे दी है। 

सरकारी नौकरी के नाम पर नियोजन का अंधकारमय भविष्य देना। जॉब के लिए प्रदर्शन करने पर लाठी खाना। नौकरी के एग्जाम में भ्रष्टाचार और कई साल तक इसे लटकाना। कोर्स खत्म होने में कई साल अधिक लगना, युवाओं के नाराजगी का प्रमुख कारण रहा। इसे नजरअंदाज करना फिर से भारी पड़ सकता है। खासकर बीजेपी के लिए।


इस बार जीत के कई मायने निकाले जाएंगे। सब कुछ कहना जल्दबाजी होगी। परंतु नीतीश कुमार के द्वारा चिराग पासवान को नकार देना गंभीर साबित हुआ। चिराग पासवान साथ होते तो संशय के बादल सुबह में छट गए होते। और यह भी कि तेजस्वी यादव ने पिता की प्रेत छाया से निकलकर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा दी है। अब चुनाव के कुछ दिन पहले सबको साथ लेकर चलने वाले अपने भाषणों को कितना सही ठहराते हैं यह वक्त बताएगा। उनके भाषणों पर कुछ लोगों को भरोसा नहीं हुआ और उनके वापसी का यही एक कारण रहा।


इस चुनाव में बीजेपी की दमदार उपस्थिति बिहार में नए सवेरे के संकेत भी है। आखिरकार 19 लाख युवाओं को रोजगार देने के दांव बीजेपी का कारगर भी हुआ और अंत भला तो सब भला, मेरा आखिरी चुनाव का भावनात्मक संदेश भी लोगों को प्रभावित किया। अब जरूरत है एनडीए के नेताओं को मिल बैठकर आत्मचिंतन करने की। पिछली सरकारी नीतियों की समीक्षा करने की।




09 नवंबर 2020

#नीतीश_में_का_बा


कल अपने बाजार में था। व्यवसाई वर्ग के लोग आशंकित और डरे हुए हैं । नितीश कुमार यदि वापसी नहीं करते हैं तो निश्चित रूप से बिहार #आशंकाओं  और #अनिश्चितता के दौर में होगा । #तेजस्वी_यादव को लेकर उम्मीद समर्थकों में हो सकती है परंतु नीतीश कुमार ने क्या किया इसकी बानगी संपन्न हुए चुनाव को ही देखा जा सकता है। नीतीश कुमार ने क्या नहीं किया इसके कई तर्क कुतर्क दिए जा रहे हैं जिससे सभी वाकिफ हैं।

कई चुनाव कवरेज करने का मौका मिला। मारपीट, गोलीबारी, हत्या, नरसंहार भी देखें। और 2020 का शांतिपूर्ण चुनाव भी देख लिया। बिहार में इसकी उम्मीद शायद ही किसी को होगी कि चुनाव में शांति हो। पत्रकारों को चुनाव कवरेज के दौरान लगातार परेशान होना पड़ता था। कभी उधर मारपीट की खबर तो कभी उधर गोलीबारी की खबर। कभी नरसंहार तक की खबर से रूबरू होना पड़ा है।

इस बार बिहार के चुनाव में एक बड़ा बदलाव यह देखने को मिला कि पहली बार महिला मतदान कर्मियों को लगाया गया। मेरे गांव के बूथ सहित कई बूथों पर सभी मतदान कर्मी महिलाएं थी। कहीं कुछ अभद्र व्यवहार तक नहीं हुआ। यह नीतीश कुमार ने संभव किया है। हालांकि एग्जिट पोल और मीडिया के बदले हुए रुख से संकेत स्पष्ट मिल रहे हैं।

बाहर हाल बिहार अपने भविष्य को लेकर निश्चित की ओर बढ़ता है या अनिश्चित की ओर, कल निर्णय होगा....

05 नवंबर 2020

मोदी समर्थक और मोदी विरोध में बंटा बुद्धिजीवियों का समाज अंधा हो गया है...

रिपब्लिक भारत के संपादक अर्नव गोस्वामी की गिरफ्तारी पर जश्न मनाने वाले लोग बहुत दिख जाते हैं । वैसे तो मोदी विरोधी इस जश्न में जमकर शरीक हो रहे हैं परंतु मोदी के विरोध में पत्रकारिता करने वाले भी इस जश्न में शामिल है। कई वरिष्ठ पत्रकार भी कुतर्क के सहारे इसे जस्टिफाई करने की कोशिश कर रहे हैं।

 इसी तरह का मामला पिछले कुछ सालों से देश में देखने को मिल रहा है या कहें कि दुनिया भर में यही स्थिति बनती जा रही है। फ्रांस के मामले में मुनव्वर राणा जैसे लोगों ने भी कुतर्क के सहारे अपनी बात रखी थी। 

 अर्नव गोस्वामी के चैनल पर कभी दस सेकंड मैं नहीं रह सका। चीखना, चिल्लाना है। यही पहचान थी। निश्चित रूप से गोस्वामी ने गलत किया है। पत्रकारिता जगत इससे नाराज है। वह अलग बात हो सकती है। परंतु अर्नव गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर कुतर्क दिया जाना बिल्कुल गलत है। सुशांत के मामले में महाराष्ट्र सरकार के बखिया उधेड़ दी। जबरदस्त मामले को उछाला। नहीं तो सुशांत जैसे मुद्दे को दबा दिया जाता।

 सबसे से हटकर अलग अंदाज हो हो सकता है। पुराने ढर्रे से अलग चलने की आदत हो सकती है। परंतु अर्नव गोस्वामी की गिरफ्तारी पुराने केस में की गई है। वह भी जो बंद हो चुका था। अब उसमें पुलिस के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं। वहीं लोग हैं जो यदि ऐसा काम बीजेपी की सरकार करती तो कोहराम मचा दिए होते। सहिष्णुता, लोकतंत्र की दुहाई देते।

 पार्टियों और विचारधाराओं में बंटे बुद्धिजीवी, महान पत्रकार ज्यादा खतरनाक होते गए हैं । कंगना राणावत के मामले में भी जश्न का माहौल देखने को मिला था। राहत इंदौरी के निधन पर भी एक पक्ष द्वारा खुशियां मनाई गई थी । यह स्पष्ट हो चुका है कि दो राजनीतिक खेमों में बैठे बुद्धिजीवी, महान पत्रकार और हमारा समाज आज नफरत की पराकाष्ठा पर है और नफरत आदमी को अंधा बना देता है।

पत्रकारों के लिए किसी शायर ने खूब कहा है

आज अगर खामोश रहे तो कल सन्नाटा छाएगा,
हर बस्ती में आग लगेगी, हर बस्ती जल जाएगा!

26 अक्तूबर 2020

लालू यादव का भूत और बिहार का भविष्य


अरुण साथी

बिहार चुनाव में जनता में निरुत्साह है। कार्यकर्ता और नेता भी कई जगह ठिसुआल। जातपात का घात जगजाहिर है पर प्रतिघात भी संभावित। बात निरुत्साह की। कारण जो हो पर सच यही। एक कारण बदलाव की संभावना पर  विकल्पहीनता। दूसरा नीतीश कुमार से गुस्सा। तीसरा तेजस्वी से संशय, डर। यही सब। शायद। 

खास बात यह कि अब लालू प्रसाद का भूत चुनाव में असरदार नहीं दिख रहा। यही बिहार के चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकता है। तेजस्वी और चिराग की सभा में जनसैलाब के भी अलग संकेत दिख रहे हैं। इस चुनाव में युवाओं की नई फौज भी है।

बात यदि मुद्दों की करें तो बेरोजगारी, रेलवे निजीकरण, पिछले सालों में कम जॉब देने इत्यादि मुद्दों को लेकर कंपटीशन की तैयारी करने वाले तथा नौकरी की उम्मीद में फॉर्म भरने वाले युवाओं में गुस्सा है। यह असरदार भी हो सकता है। नियोजित शिक्षकों और अन्य कर्मियों की नाराजगी भी सरकार से जबरदस्त है। शिक्षक बहाली में जिस तरह से पंचायतों में गोल गोल घुमाने और सो दो सो जगह आवेदन देने का नियम सरकार ने बनाया उसे भी युवा काफी गुस्से में है। हालांकि रोजगार मतलब स्वरोजगार भी बताया जा रहा, पर विकल्प नहीं। पलायन बढ़ गया। कोरोना में पैदल घर आना और क्वारंटाईन सेंटर की कुव्यवस्था। राहत राशि का बंदरबाट। शराबबंदी की असफलता। गांव गांव तस्करों का नया गिरोह तैयार होना।  सरकार के विरोध में जा सकता है। 

सरकार के पक्ष में शुरुआत के 5 सालों के कार्यकाल में किए गए सड़क, पानी, बिजली, अपराध पे लगाम इत्यादि उपलब्धि प्रमुखता से है। अस्पतालों की व्यवस्था में सुधार पहले कार्यकाल के वनिस्पत तीसरे कार्यकाल में कुछ ज्यादा नहीं रहा। भवन बने परंतु या तो डॉक्टर की कमी रही या डॉक्टर की ड्यूटी पर नहीं होना रहा। सब असफलता है।

नलजल, नाली गली, कुशल युवा से प्रशिक्षण, महिला आरक्षण सकारात्मक है।  जाति अपराधियों का बर्चस्व। जातीय नरसंहारों का दौर, नक्सलियों का आतंक, जर्जर सड़कें, अपहरण उद्योग, गायब बिजली, बदहाल अस्पताल, बहुत लोग इसे आज भी नहीं भूले हैं।

राजनीति बरगलाने की नीति को ही कहते हैं। पिछला वर्ष स्लोगन था झांसे में नहीं आएंगे परंतु इस बार सभी के स्लोगन बदल गए हैं। जैसे कि लालू प्रसाद यादव पिछले सभाओं में बाहुबली अनंत सिंह को लेकर सभी मंचों से हकड रहे थे। बैकवर्ड-फारवर्ड कर दिए। आज वही अनंत सिंह उनकी पार्टी से उम्मीदवार है। पिछली चुनाव में नीतीश जी लालू जी से साथ चुनाव में थे, सरकार बनी, इस चुनाव वही लालू प्रसाद फिर से खलनायक हो गए। पिछले चुनाव में सभी जगह लालू प्रसाद दिखाई देते थे। इस बार पार्टी के चुनावी पोस्टर से भी गायब है। पिछले चुनाव में अगड़ा पिछड़ा में विभेद की बात होती थी इस चुनाव में तेजस्वी यादव सवर्ण को साथ लेकर चलने की बात सभी मंच से कर रहे हैं। हालांकि टिकट नहीं ही दिया। (खास के भूमिहार को)। पिछले चुनाव में कोई सेंधमारी नहीं थी। इस बार जदयू के खजाने में लोजपा की सेंधमारी है। पिछले चुनाव में गठबंधन क्लियर कट था। इस बार गठबंधन में गांठ है। भाजपा-लोजपा, लोजपा-भाजपा, यह स्लोगन जमकर चल रहा है। सवर्ण के बीच बहस में तेजस्वी है। दो लोग जंगल राज कहता है तो एक उसे बीती बात। अतिपिछड़ा वोट बैंक नीतीश जी का आधार। 


लोकतंत्र में सब कुछ संभावित होता है। निश्चित कुछ भी नहीं है। बिहार के चुनाव में विपक्ष ने कन्हैया कुमार का जानबूझकर इस्तेमाल नहीं किया। अगर किया जाता तो और बेहतर होता। चिराग पासवान, तेजस्वी यादव युवा विकल्प बिहार में दिखने लगे बाकी सब चुनाव के बाद दिखेगा। आशुतोष, पुष्पम प्रिया बिहार की राजनीति में नवांकुर है। समय लगेगा। हल्का हल्का ही सही। भय और संशय के बीच इस बात बिहार में जातीय विभेद का गांठ खुल रहा है। बाकी सब चुनाव परिणाम तय करेगा।

19 अक्तूबर 2020

राम नाम का टहल है, कासा, मलमल, पीतल है!! गांव के खिलौने का स्वर्ग चला जाना..


(सोंच रखा था, सोशल मीडिया पे दुख सांझा न करूँगा, पर रह न सका.)

सुराज दा! बच्चों से लेकर बड़ों तक, सभी के लिए उनका यही नाम था। राम नाम का टहल है, कासा, मलमल, पीतल है!! यही उनका मंत्र था। यह आवाज अब बभनबीघा गांव की गलियों में नहीं गूंजेगी।


अचानक से ग्यारह दिन पूर्व सांप के काटने से उनकी मौत हो गई। वे 70 वर्ष के थे। मैं उनको बचा नहीं सका। वह मेरे अभिभावक और धर्म पिता थे। 2 वर्ष की उम्र से ही पाल-पोस कर जवान किया। शरीर का एक एक रोवाँ उनका कर्जदार है। जवान होने तक, हर रात उनके साथ ही भोजन ग्रहण किया। अपने हिस्से का दूध डांट कर भी मुझे पिलाते रहे। निसंतान होते हुए भी इस बात का दुख उनको कभी नहीं हुआ 

"बबलुवा हमर बेटा है।" जैसे मैं ही प्राण। सभी जगह डंके की चोट पर यही कहते रहे पर मैं पुत्र धर्म का निर्वाहन अंतिम समय में नहीं कर सका।  इससे पहले ही वे कूच कर गए। फुआ तो खैर कुछ दिन सेवा करने का मौका भी दी, इन्होंने वह भी नहीं दिया। 

पिंकू ने फोन किया। सुराज दा को सांप काट लिया। तत्काल गाड़ी लेकर पहुंचा। शेखपुरा मृगेंद्र बाबू के पास लेकर गया पर रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया।

एक फक्कड़ आदमी। सुबह से शाम तक घुमंतू। गांव में ही घूमते थे । इनके निधन की खबर सुनते ही सभी जाति के लोग दौड़े चले आए  बुजुर्गों ने कहा कि गांव का एक खिलौना चला गया। हां, गांव का खिलौना ही थे।  किसी ने व्यंग कर दिया तो उनको उसे तरह-तरह की गाली सुननी पड़ती थी पर जिसे यह गाली देते थे वह भी खुश हो जाता था। निश्चल भाव से। किसी को नहीं छोड़ते।

गौ सेवा में प्राण

"बेटा आज गईया खाना नै खा रहलै। लगो है मन खराब है। आज गईया कम दूध देलकै। अबरी हमर लक्ष्मी (गाय) के हरियरी नै नेमन हौ। बस गाय, गाय।"

एकाकी जीवन का एकमात्र सहारा। क्या सुराज बाबू क्या हाल-चाल ? यह कहते हुए गाय को जब भी पुकारते थे तो गाय भी सर उठा कर अपना जवाब देती। निःशब्द संवाद। वहीं समझते। 

"कई बार कहा मेरे साथ रहिये। कहते, बेटा जबतक देह चलो हौ, चले दे। गईया के सेवा करे दे। गिर जैबौ त करीहें।" दो साल पहले जबरदस्ती पुरानी गाय को बेचकर दूसरी गाय खरीदने पर मुझे विवश कर दिया था।


पिछले एक- डेढ़ साल से परेशानियों से पीछा नहीं छूट रहा। ऐसे जैसे, सोना को छू लूं तो मिट्टी हो जाये। मां का निधन डेढ़ साल पहले हो गया। मेरे आंख मूंद कर विश्वास से बच्चे का जीवन तबाह हो जाना। फिर तीन माह पहले पिताजी का निधन हो जाना और अब अभिभावक तुल्य धर्म पिता का चला जाना।  असह्य दुखदायी।

परंतु जीवन के पांच दशक की यात्रा में धैर्य का दामन नहीं छुटे यही सीखा है। "धीरज, धर्म, मित्र और नारी! आपद काल परखिए चारी!" ईश्वर शायद परख रहें हो। 

डम डम डिगा डिगा, मौसम भीगा भीगा।
कजरा मोहब्बत वाला, अंखियों में ऐसा डाला, सबसे फेवरेट गीत उनका था...बस जीवन यात्रा के प्रवाह में गुरु के संदेश से बगैर प्रतिरोध, बहते जाना है...सतत..

23 सितंबर 2020

जयंती पर विशेष: राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की कर्मभूमि है यह धरती। यहां बने पहले प्रधानाध्यापक, मिलता था 41 रूपये वेतन

अरूण साथी

बिहार के शेखपुरा जिले को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का कर्मभूमि कहा जा सकता है। शेखपुरा जिले के बरबीघा उच्च विद्यालय से उन्होंने अपने कर्म यात्रा शुरू की। इस उच्च विद्यालय के संस्थापक प्रधानाध्यापक बने।यहां ₹41 प्रति महीना पर नौकरी किया। यहां से फिर वे शेखपुरा जिला मुख्यालय के कटरा चौक स्थित कार्यालय में रजिस्ट्रार की नौकरी की। 8 सालों तक अपनी सेवा दी। हालांकि दोनों स्थानों पर दिनकर की स्मृतियों को विस्मृत कर दिया गया है। उच्च विद्यालय बरबीघा का नामकरण दिनकर जी के नाम पर करने की मांग सेवा यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से की गई थी। यह भरोसा और वादा आज तक पूरा नहीं हुआ। जबकि 8 सालों तक जिस रजिस्ट्री ऑफिस में दिनकर जी ने अपनी सेवा दी उस रजिस्ट्री ऑफिस के पुराने भवन को ध्वस्त कर दिया गया। कटरा चौक पर संचालित सब्जी मंडी बना दिया गया । राष्ट्र की इस धरोहर को इस तरह से ध्वस्त करने की वजह से साहित्यिक खेमे में नाराजगी भी रही परंतु नगर परिषद शेखपुरा के द्वारा इसे ध्वस्त किया गया था। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने हिमालय नामक कविता रचना बरबीघा की धरती पर रह कर ही की थी।



दिनकर जी का जीवन

राष्ट्रकवि दिनकर जी का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय के सिमरिया गांव में हुआ था। उनके पिता एक साधारण किसान थे जिनका नाम रवि सिंह था। 2 वर्ष की उम्र में ही दिनकर जी के पिता का देहांत हो गया था। 24 अप्रैल 1974 को दिनकर जी का निधन हो गया।

प्रधानाध्यापक रहे दिनकर जी

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर प्लस टू हाई स्कूल बरबीघा में प्रधानाध्यापक पद पर रहते हुए यहां के बच्चों को पढ़ाया। रामधारी सिंह दिनकर 3 जनवरी 1933 को बरबीघा हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक बने तथा 21 जुलाई 1934 को उन्होंने यह नौकरी छोड़कर शेखपुरा में रजिस्ट्रार की नौकरी कर ली।

बरबीघा में प्रधानाध्यापक पद पर सुशोभित करते हुए उन्होंने अपनी यादों को संजोया है। रामधारी सिंह दिनकर हाई स्कूल में प्रधानाध्यापक पद पर रहते हुए 60 रुपये महीने की नौकरी दी गयी थी तथा अन्य तरह के कटौती करते हुए 41 रुपैया 10 आना और तीन पैसा उनको महीने का दिया जाता था।

रामधारी सिंह दिनकर बरबीघा के रामपुर सिंडाय गांव में 2 किलोमीटर पैदल चलकर बाबू मेदनी सिंह के यहां रहते थे तथा वही कविता लेखन और घर के बच्चों को पढ़ाते भी थे।

शेखपुरा में बने रजिस्ट्रार, स्मारक ध्वस्त

1934 से लेकर 1942 तक रामधारी सिंह दिनकर शेखपुरा में सब रजिस्ट्रार के पद पर कार्य किया तथा वे यहां से जुड़े रहे। हालांकि शेखपुरा कटरा चौक के पास पुराने रजिस्ट्रार ऑफिस को प्रशासन के द्वारा कुछ साल पहले ही ध्वस्त कर दिया गया और अब उनकी यादों को यहां देखने वाला कोई नहीं है।

लाला बाबू एक दधीचि

रामधारी सिंह दिनकर ने अपने संस्मरणों में बरबीघा के बारे में कहा है कि बरबीघा में लाला बाबू एक दधीचि के रूप में हैं और देशभक्ति का बाण इनकी हड्डी में बिछा हुआ है। दिनकर जी ने कहा कि बरबीघा एवं इसके आसपास सामंती मानसिकता के लोगों से भरा पड़ा है। यहां रहने वाला छोटे जमींदार भी नकली जीवन जीने के आदी हैं।

मध्यान भोजन की रखी थी नींव

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने बरबीघा हाई स्कूल में नौकरी करते हुए मध्यान भोजन की आधारशिला रख दी थी जो आज भी लागू है। प्रसंग यह था कि एक छात्र टिफिन के दौरान खाने के लिए घर चला गया और लेट से लौटकर आया तो शिक्षक ने उसकी पिटाई कर दी। इससे मर्माहत होकर रामधारी सिंह दिनकर ने टिफिन के समय स्कूल में ही हल्के नाश्ते की व्यवस्था कर दी। जिसमें चना, चूड़ा, भूंजा इत्यादि शामिल था जो आज तक चल रहा है।

नहीं हुआ दिनकर जी के नाम पे नामकरण

बरबीघा हाई स्कूल में दिनकर जी की आदमकद प्रतिमा का उद्घाटन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के द्वारा सेवा यात्रा के दौरान किया गया था। बरबीघा में उद्घाटन समारोह के दौरान उन्होंने लोगों के मांग पर हाई स्कूल का नाम रामधारी सिंह दिनकर के नाम पर करने का आश्वासन दिया था परंतु अभी तक यह आश्वासन अधूरा है।





27 अगस्त 2020

मैं भी बनूंगा विधायक

मैं भी बनूंगा विधायक..

अरुण साथी (व्यंग्य)
सोशल मीडिया पे जैसे ही मैंने चुनाव लड़ने की बात लिखी वैसे ही टिप्पणियों का सैलाब आ गया। जैसे कोसी नदी का मुंह किसी में मेरे तरफ ही सीधा कर दिया हो। टिप्पणियों के सैलाब में डूबता-उतरता एक-एक का जबाब ऐसे दे रहा है जैसे शाम में सियार बोल रहा हो। 

सभी की वाहवाही से मन खुशियों के समुंदर में डूब गया। वाह! इतने लोग! मेरी अपनी प्रसिद्धि का उसी दिन मुझे एहसास हुआ। खैर, झाड़ पे चढ़ाना सुना था। अब सोशल मीडिया पे फूलना देख लिया। 



खैर, मैंने अपने कुछ दोस्तों को लगाया। किसी भी पार्टी से टिकट खरीदो भाई। उचित दाम पे। कई दोस्तों ने टिकट खरीदने के दावे कर दिए। बस दाम सुन के पैर तले की जमीन जो खिसकी पाताललोक में धड़ाम से गिरा। एक दोस्त ने फिर चढ़ाया। जितना लगाना हो लगा दो। यह तो इन्वेस्टमेंट है। एक लगाओ। एक करोड़ पाओ।


फिर भी हारना कहाँ सीखा था। व्हाट्सएप विश्वविद्यालय से प्राप्त ज्ञान में बताया गया था कि राजनीति करने के घठाहा होना जरूरी है। सो गांठ बांध लिया। लड़ूंगा।

मैं अपने समाजसेवा के क्षेत्र में किये गए अपने महान कार्यों को याद करने लगा। इस कोरोना काल में गरीबों के बीच तेरह मास्क बांटे है। ढाई सौ ग्राम से इक्कीस पैकेट का बंटवारा किया। हाँ, यह अलग बात है कि एक एक तस्वीर को हर रोज रोज ऐसे डाला जैसे सोनू सूद को मैंने ही पछाड़ दिया हो। सबका एलबम बनाया। और  अभियान में शुरू हो गया।

अपना मूल्य-वान वोट मुझे दीजिये!
बस वोट का मूल्य कान में बिलिये!!

फिर क्या..

अपना बॉयोडाटा बनाया। 
खुद को सोनू सूद का
छ्छेड़ा भाई बताया। 
जनांदोलन की तस्वीर भी 
सेटिंग से बनवाया। 
सभी पार्टियों के कार्यालयों 
में उसे भेजवाया। 
अब मीडिया मैनेजमेंट 
का मामला आया। 
सबसे आसान सभी ने 
उसे ही बताया। 
सभी मीडिया घरानों के बंधुओं ने 
मिलकर दंडवत फरमाया। 
सभी ने पीत-पत्रकारिता के 
अपना अपना दाम बताया।
कुछ को चाय पानी के रेट
तो कुछ मोटा दे निबटाया।

फिर अगले दिन से मुझे ही 
सबसे तगड़ा कैंडिडे बताया।


कुर्ता पैजामा सिलाया।
साथ रहने को मुर्गे पे
कुछ को पटाया।
गांव गांव घूम आया।
लोगों को दुख दूर करने 
का किरिया भी खाया।

सुपरहिट कहानी अभी बाकी है दोस्त...देखते रहिये नंबर 1 ड्रामा सीरियल...






 

13 अगस्त 2020

ईश्वर के नाम पर इंसानियत का कत्ल ना पहली घटना है और ना ही आखरी होगी..


 भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है परंतु पिछले दशकों में इसे परिभाषित करने की प्रक्रिया में तुष्टिकरण की राजनीति ने इसकी परिभाषा बदली और परिणामत: देश में धर्मनिरपेक्ष होना गाली जैसा बन गया। देश में दोनों तरफ से कट्टरपंथी ऐसे हावी हैं जैसे कबीलाई युग में मारकाट करने को हावी होते थे। बेंगलुरु की घटना निंदनीय और दुखद कह देने भर से खत्म नहीं होने वाली घटना नहीं है। इसमें सबसे निराशजनक पक्ष दलित विधायक के होते हुए तुष्टिकरण को लेकर छद्म धर्मनिरपेक्षवादी कांग्रेस सहित अन्य दलों के साथ साथ धर्मनिरपेक्ष की दुहाई देना वाला वर्ग खामोश है।


यह देश को अपमानित करने, तोड़ने और कानून व्यवस्था को चुनौती देने की घटना है। इस घटना में ईश्वर के नाम पर एक पोस्ट किए जाने और नियोजित तरीके से कांग्रेस के विधायक के घर पर हमला करना, कई लोगों की जानें ले लेना, लाखों करोड़ों की संपत्ति को आग के हवाले कर देना बगैर सुनियोजित ढंग से नहीं हो सकता। दिल्ली का दंगा इसी सुनियोजित राजनीति का हिस्सा था। युपी के कमलेश तिवारी के इसी तरह के पोस्ट पर देश में उपद्रव किया गया था। अंतत: उनकी हत्या ही कर दी गई। कुछ दशक पूर्व हम शार्ली हब्दो, मलाला आदि को लेकर आलोचना करते थे। आज हम उस स्थिति में नहीं है। सोशल मीडिया ब्रेन वास से हमारा समाज रोबोटिक हो गया है। एक इसारे पर मानवता का कत्ल आम है।


दरअसल कट्टरपंथी तबका सोशल मीडिया का गलत उपयोग करके देश को तहस-नहस करने में लगे हुए। एक पंथ के कट्टरपंथी को हवा देने में जहां उसी पंथ के बड़ा वर्ग लगा हुआ है वहीं दूसरे पक्ष के लोग भी उसी राह पर चलने का डंका बजाते हुए सीना ठोक रहे। राहत इंदौरी के निधन पर जश्न की बात हो अथवा अमित शाह के पॉजिटिव होने पर जश्न की बात। यह हमारी संकीर्णता और मानवीयता का परिचायक है। राम मंदिर निर्माण की आधारशिला रखे जाने पर जहां एक पक्ष ने जश्न के बहाने दूसरे पक्ष की खिल्ली उड़ाई तो दूसरे पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए घोषित रूप से वहां मस्जिद होने का ही एलान करते रहे। निश्चित रूप से मंदिर निर्माण देश की लोकतंत्रिक प्रक्रिया का हिस्स है। धर्मनिरपेक्ष हमे दूसरे धर्म से समानता की बात सिखाता है न कि अपने धर्म से दूरी की। वैसे में पीएम का जाना गलत नहीं है।


कुल मिलाकर देश की धर्मनिरपेक्ष छवि खतरे में है। या यूं कहें कि आज यह ध्वस्त हो चुकी है। गंगा जमुनी तहजीब की बातें अब बेमानी लगती है।  चंद लोग इसे बरकरार रखने में लगे हुए हैं। एक बड़ा वर्ग इसे तहस-नहस करने में लगा हुआ है। भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। इस को लेकर भाजपा के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा जब यह लिखते हैं कि क्यों है, तो इस सवाल का जवाब सीधा और सपाट आता है कि हमारे पड़ोस के सभी राष्ट्र इस्लामिक कंट्री हैं। बहुसंख्यक वर्ग भारत का धर्म निरपेक्ष विचार का है। वैसे में उसकी विचारधारा को आहत कर इस छवि को नष्ट करने का प्रयास दोनों तरफ से किया जा रहा है और बहुत हद तक इसमें सफलता भी मिल रही है। आगे आगे देखिए होता है क्या।

31 जुलाई 2020

उम्मीद के दामन का एक कोना

#उम्मीद_मत_छोड़ना

अपने जीवन काल के सबसे नाउम्मीदी और निराशा के दौर में जीते हुए उम्मीद और धैर्य का दामन जोड़ से पकड़ रखा है।

इसी निराशा और अवसाद के दौर से उबरने के लिए आज लाइफ ऑफ पाई फ़िल्म का सहारा लिया। पिछले दिनों फ़िल्म थप्पड़ देखी। अजीब है न। सिनेमा के किरदारों में खुद को खोजना। उसी से साथ एकाकार हो जाना। आज भी कहाँ कुछ बदला है।

 जानकर भी। सिनेमा अभिनय है। उसी से एकाकार हो जाना। अजीब है न। मन ने कहा। जीवन भी तो अभिनय है। या की सिनेमा ही है। थप्पड़ फ़िल्म की नायिका का किरदार सिनेमाई है। असल जीवन में उसी किरदार को खलनायिका कह देते है। हम। आप। सब। यही सच। 

अजीब है न। सिनेमा के किरदार में डूबकर आँखों से अविरल आंसू बहने लगते है। खुशी भी मिलती है। और डरावनी दृश्यों में डर भी जाता हूँ। सिनेमा ही क्यों। असल जीवन में भी। यही तो करता हूँ। 

फ़िल्म लाइफ ऑफ पाई। मौत के पल में भी उम्मीद नहीं छोड़ने की हिम्मत। आज तीसरी बार। कई सालों बाद देखा। देखना क्या। जीया। बहुत ढूंढने पे फ़िल्म मिली। या की जीवन मिला। कुछ ऐसा ही किरदार टाइटेनिक की भी तो थी। देखना चाहिए। नाउम्मीदी के इस दौर में। उम्मीद को। 

अजीब है न। संगीतकारों को टोली डूबते जहाज में अपने कर्तव्यों को नहीं भूलता। बजाते हुए अलविदा। 

गुरुदेव ओशो। जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण के शिक्षक। बोले। समस्त धर्मग्रंथों ने मृत्यु के समय को सुनिश्चित कहा। फिर। हर पल क्यों मरे। जबतक जीवन है। मौत किसी को नहीं मार सकती।

गुरुदेव ने ही तो सिखाया। प्रकृति का प्रतिरोध मत करो। सौंप दो। बस साक्षी भाव से। परम पिता परमेश्वर। तुम जानों। जो मर्जी। 

ओशो कह गए है। यह दुनिया बड़ा कृतघ्नता है। अक्सर चीजों को खो देने के बाद ही उसे अनमोल कहती है। इस कोरोना काल में बस इतना ही। जो तुध भये नानका सोय भली तू कर...

11 जुलाई 2020

सर्वोत्तम प्रदेश का न्यूनतम एनकाउंटर का लीक वार्तालाप


अरुण साथी

सर्वोत्तम प्रदेश में दुर्दांत अपराधी ने जघन्य हत्याकांड को अंजाम दिया। उसके मौत की दुआ सभी कर रहे थे। अचानक से उसकी हत्या कर दी गई। इस हत्याकांड के बाद वार्तालाप वायरल हो गया। वार्तालाप पहले महाकाल के स्थल से शुरू होता है। यह वार्तालाप किसके साथ, किसके द्वारा, किस लिए किया गया है, यह किसी को पता नहीं।


 बस इसे वायरल मानकर बिना समझे बुझे पढ़ लीजिए। समझदानी का इस्तेमाल वर्जित है।


"सर दुर्दांत दुबे पकड़ा गया है। यही टपका दें?

"क्या? नहीं, ऐसी गलती मत करो। दूसरे प्रदेश में परेशानी होगी।"


"सर, अब अपने सर्वोत्तम प्रदेश हम लोग पहुंच रहे हैं। सर्वोत्तम काम को अंजाम देना होगा।"

"हां, इसके बिना कोई उपाय भी नहीं है! बाकी व्यवस्था से हम लोग तो परिचित ही हैं। गिरफ्तारी के बाद यह छूट कर आ जाएगा। इसमें कोई शक नहीं है। हम में से कोई इसकी मदद कर देगा। जैसे छापेमारी में हुआ।"


"कोई नेता जी इसके संरक्षण में आगे आ जाएंगे और न्याय व्यवस्था का सच भला हम लोगों से ज्यादा कौन जानता है। वहां क्या होता है। कैसे होता है। कब होता है। किस लिए होता है। किसके द्वारा होता है। यह हम लोग तो जानते ही हैं। इसलिए यह खतरा हम लोग नहीं ले सकते। हमारे साथी शहीद हुए हैं। शुभ काम को कर ही देना चाहिए।"


"सर, कुछ मीडिया वाले पीछे लगे हुए हैं। उससे छुटकारा जरूरी है।"

"अच्छा!! ठीक है!! लोकल थाना को बोल देते हैं! वहां चेकिंग के नाम पर बैरिकेडिंग करके उसको रोक लिया जाएगा!! इन लोगों की क्या औकात है!! हम लोगों के सामने!! अभी सबक सिखाते हैं!!"


"सर, कौन सा फार्मूला अपनाया जाए?


"अरे, बकलोल हो क्या? सिंघम टाइप के कई सिनेमा का स्टोरी देख लो। उसी में से कुछ निकल जाएगा।"

"हां सर, याद आया। एक्सीडेंट गाड़ी का करवा देते हैं। परंतु उसमें परेशानी यह है कि एक्सीडेंट होगा कैसे!!"


"तुम लोग 8- 10 आदमी हो। गाड़ी को सड़क किनारे ले जाकर पलट दो। इतना खाते पीते हो। इतना भी ताकत नहीं बचा है।"

"अच्छा सुनो, भैंस बहुत पॉपुलर है। उसे भी कहानी में घुसेड़ देना।"

"जय श्री ,जय श्री ,जय श्री " तभी मोबाइल इसी रिंगटोन से बजने लगता है।"

"क्या हुआ है! इतने देर क्यों? जब हम बैठे है सब संभालने!!"

"जी सर, हो गया सर। टपका दिये सर। ठोक दिए।"

"जय हिंद सर"
"जय हिंद" । बला टली। पता नहीं क्या मुँह खोलता!!"

25 जून 2020

अभी अभी लगे आपातकाल का एक यथार्थवादी चिंतन



अरूण साथी, (व्यंग्य रचना)

आज, अभी अभी आपातकाल की घोषणा हो गई। इस सदी में आपातकाल की कल्पना नहीं की गई थी। परंतु अचानक से इसकी सूचना सभी समाचार चैनलों, सोशल मीडिया इत्यादि पर देखने को मिला। अखबारों के प्रथम पृष्ठ पर बड़े-बड़े तस्वीरों के साथ आपातकाल लागू किए जाने की खबरों को विस्तारित रूप से प्रकाशित किया गया था। धो दी, विथ डिफरेंस। 24 * 7 समाचार चैनलों के आग उगलक वाचक आपातकाल लगाए जाने की घोषणा के साथ साथ जयकारे लगा रहे थे। वैसे ही जैसे भोज का नगाड़ा, भोज खाने के बाद जयकारा करता है। या कि मैरेज हॉल के पिछवाड़े पत्तल स्थल पर भैं भैं की आवाज ।

चैनलों के आग उगलक वाचक आपातकाल के फायदे विशेष विषय पर डिबेट कराने लगे। उसमें सभी सत्ता पक्ष के लोगों को बुला लिया गया। जमकर डिबेट हुई। सभी ने देश में आपातकाल लगाए जाने की वजह से देश का कायाकल्प हो जाने की बात कही। हथियारों की खरीद। किसानों की खुशहाली। युवाओं के रोजगार। महिलाओं की तरक्की। सभी कुछ तो लोकतंत्र की वजह से ही रूका था। हां एक दो बकलोली करने वाले देशद्रोही चैनलों को लॉकडाउन कर दिया गया।


डिबेट में खुलकर यह बात सामने आई कि 70 सालों में विपक्ष ने  देश को लूटा, बर्बाद किया।  विपक्ष वर्तमान में भी सरकार को कोई विकास के काम करने नहीं दे रही थी। दुश्मन देश की बोली बोली जा रही थी। इसके लिए आपातकाल लगाने से बेहतर कोई विकल्प नहीं था। समाचार पत्रों के सभी  24 पन्ने आपातकाल के महिमामंडन में मंडित नजर आई। संपादकीय पन्नों पर आपातकाल के गुण ऐसे गाए गए जैसे आपातकाल न हुआ स्वर्ग लोक में हो गया।

उधर सोशल मीडिया पर भी आपातकाल के ही जयकारे लग रहे थे। एक वंदनीय ने तो स्पष्ट कह दिया कि लोकतंत्र जनहित की व्यवस्था नहीं है। आपातकाल जैसे महत्वपूर्ण व्यवस्था से ही देश आगे बढ़ कर दुश्मनों को जवाब देगा। वही सोशल मीडिया में आपातकाल आवश्यक है हिट करने लगा। कुछ कुछ अहमक किस्म के लोगों ने आपातकाल की निंदा कर दी थी। उसकी खबर कहीं देखने को नहीं मिली। उड़ती चिडिंया ने बताया कि वैसे देशद्रोही लोगों को काला पानी भेज दिया गया है।

खैर, इस आपातकालीन खबर में इधर-उधर विचर ही रहा था कि पत्नी की डांट जोरों से पड़ी, क्या टर्र टर्र करते रहते है। राम नाम लिजिए। चौंक कर उठ गया। ओहो, सपना देख रहा था। शुक्र है

नोट- इसमें किसी का नाम, गांव, काम, धाम, जाम, शाम, वाम, दाम, लाम, मने कुच्छो नै देलियों हें। हां भाय, डर से औ की। इहे से दिल पर नै लिहा। हल्का हल्का रहिया। डर तो लगबे करो हो। मेरा देश बदल रहा है। मनमानी चल रहा है।

21 जून 2020

योग, तस्वीर और धोखा

अरूण साथी (व्यंग्यात्मक रचना)
 
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर मैं धोखे का शिकार हो गया। दरअसल मैंने एक मित्र को अपनी तस्वीर खींचने के लिए तैयार किया। वह तस्वीर कपालभाति, अनुलोम विलोम योग करते हुए खींचनी थी। परंतु धोखेबाज मित्र ने पीठ में छुरा भोंक दिया। मोबाइल चालू रखा और तस्वीर नहीं खींची। इसलिए बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर मेरी कोई तस्वीर सोशल मीडिया पर नहीं जा सकी। सोंचा था कम से कम योग दिवस पर तो योग करने तस्वीर डाल दूंगा, साल भर आराम ही आराम।
 

वैसे सोशल मीडिया पर आज योग करने वालों के तस्वीरों की भरमार है। इस बात से यह प्रमाणित होता है कि आज सभी को धोखा नहीं हुआ। एक दिन पहले ही इसकी तैयारी की गई है। अच्छी तस्वीर उतारने वाले किसी खास को बुलाया गया। जैसे तैसे तस्वीर खींच गई। फिर उसे सोशल मीडिया पर डाला गया। खूब कॉमेंट्स मिले। कंपलीमेंट्स मिले। धन्य धन्य हुए।

 उधर इसी तरह के कंपलीमेंट्स कई सालों से सफल विश्व नीति को लेकर साहेब को भी मिल रही थे। जहां जाते, उनके नाम के जयकारे लगने लगते हैं। उनके अनुयायी (भक्त नहीं लिख सकता, लोग सांढ की तरह भड़क जाते है) छाती ठोक कर विश्व नीति के सफल होने के गाल बजाते रहे।अब धोखा हो गया तो भी गाल बजा रहे है। अपना गाल है। बजाते रहिए।


धोखा तो किसी के साथ हो सकता है। जैसे हिंदी-चीनी, भाई-भाई का जब नारा लगा था उसमें भी पंडित जी धोखा खा गए थे। आज भी जिंग झिंग से गले मिले। झुला झूले। साहेब ने चरखा भी चलवाया। शांति पाठ करवाया। शांति का संदेश दिया। भला वे कहां मानने वाले थे। वे आदतन धोखेबाज  हैं। धोखा दे दिया। दिया तो दिया। हम लेने वाले कहां थे। मानेगें ही नहीं। गाल बजाने लगे। पप्पु-पप्पु चिल्लाने लगे। अरे सवाल पूछते हो। खबरदार जो सवाल किया। सवाल करना मना है। राजा जी के राज में। चुपचाप सुनो। 
 
कार्टून: कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य के ट्विटर से साभार

12 जून 2020

कोरोना से 4 करोड़ से अधिक लोग मर सकते है,..?मेडिकल शोध पत्रिका का दावा

न्यूज़ चैनलों पर कोरोना की खबरों को देखकर एकबारगी डर लगने लगता है। डर लगना भी चाहिए। वहां कुछ तथ्यों के साथ बातों को रखा जाता है। मिर्च मसाला को छोड़ दें, तब पर भी। जैसे एबीपी पर चले रिपोर्ट में कहा गया कि एक मेडिकल शोध पत्रिका लैंसेट ने चार से पांच करोड़ लोगों के कोरोना वायरस से मारने की संभावना की रिपोर्ट प्रकाशित की है। यह बेहद डरावनी बात है।
 इसी तरह गुरुवार को रिकॉर्ड 10,000 से अधिक कोरोना वायरस देशभर में पाए गए। भारत दुनिया में चौथे नंबर पर पॉजिटिव मरीजों की संख्या को लेकर आ गया है।


यह भी डराने के लिए काफी है। परंतु जमीन पर इसका असर अब नहीं दिखता है। खासकर अपने आसपास तो बिल्कुल नहीं। शादी समारोह में 200 से 500 लोगों का जमावड़ा आम बात है। मृत्यु भोज हो अथवा कोई भी जन्मोत्सव । सभी में भीड़ जुटने की बात अब स्वभाविक है। बाजार में पूर्व की तरह भीड़ भाड़ है। मास्क लगाना, सोशल डिस्टेंसिंग रखना। यह सब केवल अब प्रचार-प्रसार की बातें रह गई है। पता नहीं ऐसा क्यों हुआ है। पर इस लापरवाही से शायद बड़ा नुकसान भी सामने आ सकता है।

 लापरवाही केवल आम आदमी के स्तर पर ही नहीं, प्रशासनिक और सरकारी स्तर पर भी दिखने लगा है। अब पॉजिटिव मिलने के बाद गांव को कंटेनमेंट जोन के रूप में विकसित नहीं किया जाता। ना ही नाकेबंदी होती है। ऐसा क्यों हुआ है पता नहीं, पर दो ही बातें हो सकती है। या तो कोरोना कमजोर हुआ है अथवा हम इतने कमजोर हो गए कि भगवान के भरोसे सब कुछ छोड़ चुके हैं। भगवान मालिक...

31 मई 2020

बिहारी हैं हम : हमसे है सब बेदम

अरुण साथी

बिहारी होने को लेकर अक्सर चर्चा होती रही है। कभी-कभी सकारात्मक संदर्भ में तो ज्यादातर नकारात्मक संदर्भ में। बाद के दिनों में लालू प्रसाद यादव के गंवई अंदाज को लेकर नकारात्मक संदर्भ में बिहार को उछाला जाता रहा। घोटाला बगैरा से इतर की बातें हैं। खैर, वर्तमान में बात। बिहारी हैं हम। हम से ही सब बेदम के रूप में करना चाहता हूं। 

दरअसल कोरोना काल में हम बिहारियों ने अजीब तरह की प्रतिक्रिया दी है। पहले तो यह कि बाहर में फंसे होने का ऐसा कोहराम मचाया की न्यूज़ चैनल से लेकर अखबारों में यही छाया रहा। व्यक्तिगत अनुभव में यह महसूस किया कि बाहर में फंसे रहने की बातों में भूख की समस्या कम और घर आने की मुमुक्षा सर्वाधिक थी।


होनी भी चाहिए। हम बिहारी गांव में पले बढ़े हैं। होम सिकनेस हमारी कमजोरी है।


 सुबह अगर पटना के लिए निकले तो जैसे तैसे काम खत्म करके घर भाग कर आने की अजीब सी ललक हमारे डीएनए में है। फिर कोरोना काल में घर जाने की ललक भला कैसे नहीं होती! तो ज्यादातर ने भूख से बदहाली की ऐसी हवा उड़ाई की हवा-हवा हो गया। अब इसी हवा-हवाई बातों में असर ऐसा हुआ कि एक हजार किलोमीटर से लेकर ढाई हजार किलोमीटर तक बीवी बच्चों के साथ पैदल चल दिया। तो किसी ने कर्ज लेकर साइकिल खरीदी और घर के लिए निकल गया।


 कोई मोटरसाइकिल कर्ज लेकर खरीदी और दो साथियों के साथ घर आ गया। किसी ने ट्रक का जुगाड़ किया। कंटेनर का जुगाड़ किया। प्रति व्यक्ति 5000 देकर घर तक का सफर किया। ये बातें यह साबित करने के लिए काफी है कि भूख समस्या कम थी, घर आने की मुमुक्षा अधिक। 


नीतीश कुमार अपनी बातों पर अड़े रहे। जहां हो, वहीं रहो। परंतु महाराज जोगी जी ने ऐसा रास्ता खोला कि उपद्रव हो गया। पैदल आने वालों के दर्द को ऐसा दिखाया कि हार कर प्रवासियों को लाने की मजबूरी बनी। नतीजा यहां क्वारन्टीन सेंटर में रखा गया। अब प्रवासी बिहारियों का स्वभाव कहां बदलने वाला था। सो उन्होंने आधा घंटा देर से चाय मिलने पर। नाश्ते में बिस्कुट या सत्तू मिलने पर। खाने में केवल आलू की सब्जी मिलने पर रोड जाम, उपद्रव और हंगामा शुरू कर दिया।


 सरकारी योजना के द्वारा बाल्टी, थाली, मच्छरदानी, बेडशीट नहीं मिलने पर रोड जाम। हंगामा शुरू हो गया। उनको अपनी जान की परवाह कम और सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलने का गुस्सा अधिक।


 यह सच है कि बिहार में आपातकाल की स्थिति में आपदा विभाग से मिलने वाले लाभ का 10% भी प्रवासी श्रमिकों को नहीं मिल रहा। अधिकारियों और नेताओं की जेब में पैसा जाएगा। कोई कुछ कर ही नहीं सकता। पूरी तरह से मैनेज मामला लगता है।

 बावजूद इसके हम बिहारी अपनी जान की परवाह कम और छोटी-छोटी बातों के लिए अपनी जान को खतरे में डाल देने की कोशिश ज्यादा करते रहें। भगवान बचाए हम बिहारियों को। हम खुद ही खुद को बदनाम करते हैं। एक बार फिर से हम पूरी दुनिया में बदनाम हुए। कोरोना काल में 5 किलो अनाज के लिए सौ दो सौ की भीड़ सड़क पर हंगामा कर रही। हमारी जान की कीमत बस पांच सेर अनाज है। यह हमारी जहालत है या कुछ और, हम खुद तय करेंगे...

28 मई 2020

मैं भूखे रहकर आत्महत्या कर रहा हूं! इसके लिए किसी राजा का दोष नहीं है..

अरुण साथी

दो ही तरह के जर्नलिज्म का दौर चल रहा है। एक दौर सुपारी जर्नलिज्म का है। जहां मुद्दे को ऐसे उछाला जाता है जैसे गांव की कोई झगड़ालू औरत छोटी सी बात को लेकर महीनों सड़क पर निकल गाली गलौज करती रहती हो। नतीजा भारत की पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता को खो चुका है। ठीक उसी तरह जैसे भेड़िया आया , भेड़िया आया की कहानी में। इसमें कई नामी-गिरामी जर्नलिस्ट स्नाइपर की तरह कैमरा और कलम से खास विरोधी पर ही निशाना साध हत्या कर साधु बने हुए हैं।
दूसरा पुजारी जर्नलिज्म का दौर है। वहां भक्ति काल के योद्धाओं के द्वारा साष्टांग चरण वंदन किया जा रहा है। चरणामृत का प्रसाद जिन्होंने ग्रहण कर लिया उन्हें ऐसा महसूस होता है जैसे अमरत्व प्राप्त हो गया। कुछ तो इसी चरणामृत का पान कर जर्नलिस्ट कम प्रवचनकर्ता अधिक हो गए।

इन सब से अलग भी कुछ है जिन्होंने अलग रास्ते को चुना। उनके लिए सुपारी किलर की व्यवस्था है। और आज वे जिंदा लाश बने हुए हैं।

इन्हीं सब में आम आदमी का दुख दर्द दिखाने की विश्वसनीयता अब किसी के पास नहीं। दुखद यह कि वही आम आदमी में ही एक बड़ा वर्ग सच को बर्दाश्त नहीं करता और कीलर की तरह सोशल मीडिया में उस सच को मारने के लिए कुतर्कों का ऐसा जाल बुनता है कि सच का दम घुट जाता है। 

इसी कुतर्कों के जाल में बिहारी मजदूरों के दर्द का गला घोट दिया गया। इन जालों के कुशल बुनकरों ने कुतर्कों का ऐसा धागा उपयोग किया कि भूखे-प्यासे दम तोड़ने वाले मजदूर भी की आत्मा कलप उठी। मजदूर के पांव के फोले आंसू बहा कर पूछ रहे हैं। कौन सुनेगा, किसको सुनाएं, इसलिए चुप रहता हूं।

अब मुजफ्फरपुर में रेल से आई एक मां ने दम तोड़ दिया। उसके बच्चे अबोध है। चादर में लिपट कर मां को जगाने का प्रयास करते रहे। यह तय है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भूख से मरने का कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता है। मिलेगा भी कैसे। हत्यारे कब अपनी हत्या का सबूत छोड़ते हैं। इसके साथ-साथ रेलगाड़ियों से कई लाशें निकल रही हैं। कई पैदल आने वालों ने रास्ते मे दम तोड़ दिया। कई का तालाबंदी में दम निकल गया।


दुखद यह है कि लाशों के पास कोई सुसाइड नोट लिखा हुआ नहीं मिल रहा है। या कि मिला भी होगा ! वह भी वायरल किया जाएगा! इसमें लिखा होगा, मैं भूखे रहकर आत्महत्या कर रहा हूं। इसके लिए किसी सरकार, किसी अधिकारी, किसी  किसी राजा का दोष नहीं है। मैं इसके लिए दोषी हूं। और सरकार इस दोष की सजा जो मुकर्रर करें, मैं कबूल कर लूंगा!!


चलिए इस दौर में हम सब गवाह हैं। यह दौर भी बदलेगा। सदा ना रहा है, सदा ना रहेगा, जमाना किसी का...

03 मई 2020

काश की सीता के लिए धरती नहीं फटती

स्वयंभू भगवान
घोषित होने हेतु
अपने पराये को
निकृष्ट, पापी, कलंकिनी
घोषित करना ही पड़ता है
मर्यादापुरुषोत्तम होने के 
लिए स्त्री की अग्निपरीक्षा
लेनी ही पड़ती है

कलंकिनी हो वनवासिनी
सीता के लिए
कल धरती फटी थी
और वह उसमें समा गयी

आज की सीता 
भी हमारे आसपास
कलंकिनी घोषित हो
अग्नि में समा जा रही
और हम 
मर्यादापुरुषोत्तम
बने पूजनीय हो 
जाते है..

काश की सीता के लिए
धरती नहीं फटती
और वह जीवित रह
नारी सशक्तिकरण
का प्रतीक बनती
तो जाने कितनी
सीता आज जीवित
रहती....



28 अप्रैल 2020

करो -(ना) वैश्विक महामारी से संक्रमित का अचूक नुस्खा

अरुण साथी (व्यंग्यात्मक)

पूरी दुनिया में करो -(ना) वैश्विक महामारी से संक्रमित मरीज बड़ी संख्या में छुट्टा साँढ़ की तरह घूम रहे है। जी हाँ, आपको डर लग गया तो जरूर डरिये। आप नजर उठा के देखिये। आपके आसपास। घर में। गली में। पार्टी में। स्कूल में। अब तो गांव के चौखंडी पर भी हाथ में बड़का मोबाइल लिए ये मरीज दिख जाएंगे। इनको कह के तो देखिए यह काम करो -(ना)।


तेजी से फैला संक्रमण

देखा देखी से करो -(ना) के मरीज का संक्रमण बड़ी तेजी से फैला है। इसको फैलाने वाले फेकबुक, टीइंटर, टिकटिक, भाँटअप के मालिक खरबपति बन चैन बंसुरिया बजा रहे, बाकी सबका चैन छीन लिए।

क्या है लक्षण
विक्षिप्त जैसा व्यवहार। सियार जैसा हुआ- हुआ करना। लिजार्ड सिंड्रोम । टिटहीं की तरह पैर ऊपर करके सोना। समझना कि आकाश गिरेगा तो अपने पैरों से रोक कर पूरी दुनिया को केवल वही बचा सकते। दीवाल में ढाही मारना। जहां तहां थूकना सामान्य लक्षण।


कोई वैक्सीन नहीं

इस बीमारी का भी कोई वैक्सीन अभी नहीं बना है। चूंकि पढ़े लिखे से अनपढ़ तक, सभी इससे संक्रमित है; इसलिए कोई वैक्सीन बनाने वाला नहीं बचा।


क्या है नुकसान

अनगिनत। पर अपने यहां जाति धर्म में मारकाट करना प्रमुख है। हद तो यह कि पूरी दुनिया कोरोना नामक संक्रामक बीमारी से लड़ रही है तो अपने यहां करो -(ना) के मरीज कोरोना को धार्मिक बना दिया। इसके मरीज आत्मघाती हो जाते है। अभी देखने को ताजा भी मिला। जान बचाने वालों की जान लेने लगे। अपने देश, गांव समाज के दुश्मन बन आग लगाने लगते है। आदि इत्यादि।

अचूक नुस्खा

यह बीमारी भी कोरोना कि तरह आंतरिक इच्छाशक्ति से अपने अंदर विकसित प्रतिरोधक क्षमता से ही ठीक होती है। इसके लिए कुछ दिन क्वारन्टीन होना और असोलेशन में रहना अतिआवश्यक है। और हाँ, सोशल मीडिया डिस्टेंसिंग का पालन अनिवार्य है। अब आप पे निर्भर है। आप ठीक होना चाहते है या (जमाती) आत्मघाती बनना।

इति श्री

भक्त अन्त
भक्त कथा अनंता
आंख बंद कर
पढहु असंता

आपन घर
जलाबे आपे
भूत पिचास
आपही बन जाबे

आपन नाश
बुलाबे आपे
सोई प्रभु के
भक्त कहाबे...

14 अप्रैल 2020

पीड़ित आत्माओं रुदाली गायन शुरू करें

(व्यंग्यात्मक प्रस्तुति)

यह क्या किये मोदी जी। 3 मई क्यों..? 30 अप्रैल क्यों नहीं। यह तो मनमानी है। घोर कलयुग। तानाशाही है। मनमानी है। कोई कौन होता है। बिना जनता से पूछे कुछ भी बढ़ाने वाला। ई मोदी जी को कोई कुछ कहता क्यों नहीं । भारत को बचाना है। बस झूठ झूठ। 

दोस्तों ऐसे ऐसे कमेंट अब आयेगें। सोशल मीडिया पे पीड़ित आत्माओं के द्वारा फिर रुदाली गायन किया जाएगा। हमेशा करते है। अब भी करेंगे। इसी रुदाली गायन के चक्कर मे मरकजी ने जो किया उससे अपनी तो खैर छोड़िए, देश की जान संकट में डाल दिया। मोदी ने कहा है तो नहीं मानेंगे.!!


  कुतर्क भी रुदाली टीम का अजीब अजीब है। 30 प्रतिशल मरकजी है तो 70 कौन..? यह सब बदनाम करने की साजिश है। नतीजा। नफरत और बढ़ी। अनपढ़ की छोड़िए। पढ़ा लिखा कुतर्क गढ़ रहा। काश की ये तर्क गढ़ते। समाज और देश की बेहतरी के। खैर। पुरानी कहावत है। दीवार से सिर टकराने से अपना ही नुकसान है। एक और कहावत है। भैंस के आगे बीन बजाए बैठे भैंस पगुराय...अब ये भैंसे पागुर कर रहे है तो कोई कर भी क्या सकता है। बस रुदाली गायन के सिद्धहस्त महारथियों को फिर एक अवसर मिल गया। गायन शुरू करिये। 

उधर भक्त शिरोमणि भी तीन मई को लेकर हिसाब किताब शुरू कर चुके होंगे। तुम तीन में तेरह कौन। देशद्रोह है यह। 3 मई का योग सूर्य और शनि के साथ मंगल, केतु और गुरु को एक त्रिकोण से मिलकर मंगलकारी बनाने के लिए यह हुआ। तुम क्या जानों। अहमक।

लोकतंत्र जो है। और आज ही बाबा साहेब की जयंती भी है। नमन उनको। और यह देखिये कि बाबा साहेब को अपनी राजनीतिक पिपासा में जय भीम बना के प्रस्तुत करने वाले रुदाली गायक ही है। गाने दीजिये। जय जय कहिये।

12 अप्रैल 2020

कोरोना महामारी और ढीठ समाजसेवी

अरुण साथी
समाज सेवी बनना कोई हंसी ठठ्ठा नहीं है। जान हथेली पर रखकर समाजसेवी बनना पड़ता है। इतना ही नहीं, इसके लिए बहुत ढीठ भी बनना निहायत ही आवश्यक है। उनका क्या, जो लोग पेड़ा भी छील छील कर खाते हैं। वे तो उपदेश देंगे ही। घर में बैठे जो रहते हैं।

तुम क्या जानो चुन्नी बाबू। जान हथेली पर रखना क्या होता है। कोरोना नाम वायरस जैसे खतरनाक महामारी में गांव गांव जाकर भीड़ इकट्ठा करना और उनको एक साबुन अथवा एक मास्क अथवा एक किलो राशन अथवा एक किलो आलू हाथ में देना। सामाजिक दूरी के बगैर बगल में खड़ा होना। मास्क मुंह के बजाय फोटो खिंचाते वक्त गले में लटका लेना क्या होता है!


वैसे तो समाजसेवियों की कई श्रेणियां हैं परंतु कुछ का उल्लेख जरूरी है।

गुमनाम समाजसेवी 

इस श्रेणी में वैसे समाज सेवी आते हैं जो चुपचाप ईश्वर सेवा मानकर समाज की सेवा करते हैं। इस श्रेणी में भी कुछ लोग हैं। 

छपास समाजसेवी 

इस श्रेणी में वैसे समाज सेवी आते हैं जो  छपास भाव से सेवा करते हैं। पहले एक बढ़िया स्मार्ट मोबाइल रखना पड़ता है। फिर फोटो खींचने और वीडियो बनाने वाले एक अनुभवी व्यक्ति को भी साथ रखना होता है। और फिर समाज सेवा के लिए जाना पड़ता है। इस श्रेणी में राजनीतिज्ञ अधिक पाए जाते है।

ढीठ समाजसेवी 

इस श्रेणी में वैसे लोग हैं जिनकी हिम्मत की दाद देनी होगी। ये लोग बाजार से दस-बीस लाइफबॉय साबुन अथवा मास्क खरीदते हैं। फिर एक साबुन देने के बाद एक फोटो खिंचवाते है। उसे सोशल मीडिया पर ऐसी लगाते हैं जैसे यह नहीं होते तो दुनिया पलट जाती। 


प्रवचनकर्ता समाजसेवी

इस श्रेणी में कई संत, महात्मा और लोक-परलोक विजेता समाजसेवी आते हैं। जो प्रवचन देते हैं। वीडियो भी बनाते हैं । ये अमीर घर का वीडियो बनाकर कहते हैं कि फोटो लेने वाले से राशन नहीं लेंगे। ये उपदेश देते हैं की सेवा करना है तो फोटो खींचना क्या जरूरी है। 

इनको भूख के बारे में पता नहीं होता। परंतु भूख पर कई साल प्रवचन दे सकते। मघ्घड़ चाचा कहते हैं भाई जिसको भूख लगी हो वहां जाकर देखिए। दिन भर धूप में खड़ा कर दीजिए। पांच किलो अनाज दीजिए । तब भी उन्हें मंजूर है । ऐसे ही यदि दोनों की भूख मिट रही है तो मिटने दीजिए। किसी को समाज सेवी कहलाने की भूख है। तो किसी को पेट की आग बुझाने की भूख।

26 मार्च 2020

विश्व कल्याण के लिए शांति पाठ और हिंदुत्व

विश्व कल्याण के लिए शांति पाठ

हिंदू धर्म की आलोचना सर्वाधिक होती है। खास यह कि हिंदू धर्मावलंबी भी हम सब इसकी आलोचना करते हैं परंतु यजुर्वेद का यह शांति पाठ विश्व के कल्याण से भी जुड़ा हुआ होता है। शायद ही किसी धर्म में सभी जीवों, संपूर्ण विश्व के कल्याण और शांति की आराधना की जाती होगी, हो सकता है किसी धर्म में ऐसा हो तो ज्ञान वर्धन करें। आज हमें इसकी सर्वाधिक जरूरत महसूस हो रही है।

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,
पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,
सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
***
हिन्दी
शान्ति: कीजिये, प्रभु त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,
अन्तरिक्ष में, अग्नि पवन में, औषधि, वनस्पति, वन, उपवन में,
सकल विश्व में अवचेतन में!
शान्ति राष्ट्र-निर्माण सृजन, नगर, ग्राम और भवन में
जीवमात्र के तन, मन और जगत के हो कण कण में,
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

20 मार्च 2020

निर्भय माँ

निर्भय माँ
**
दरिंदों की फांसी पर 
खुश मत हो
ढोल मत बजाओ
दरिंदों को फांसी पर
लटकाने तक एक 
मां के संघर्ष को 
महसूस करो 

सोंचो
कौन इस 
भूल भुलैया 
न्याय व्यवस्था में 
मरी हुई बेटी को
न्याय दिलाने के लिए 
इतना संघर्ष करेगी...

यह भी सोंचो 
कि लाखों मां 
सिर्फ आंसू बहा
और ईश्वर को कोस 
कर रह जाती है...


और यह भी सोंचो 
कि चार दरिंदों को ही
केवल फांसी लगी है 
हजारों दरिंदे 
आज ही अट्टहास कर रहे हैं
हमारे आसपास...

11 फ़रवरी 2020

यह केजरीवाल की जीत है

यह केजरीवाल की जीत है


दुर्भाग्यपूर्ण यह की दिल्ली की जनता को मुफ्त खोर कहकर गाली देने की शुरुआत कर दी गई जबकि भारतीय जनता पार्टी के द्वारा भी मुफ्त खोरी का खूब प्रलोभन दिया गया। इससे बड़ा दुर्भाग्य यह कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रचंड बहुमत देने में दिल्ली की जनता का भी बड़ा योगदान रहा। वह भी तब जब राहुल गांधी के द्वारा प्रति वर्ष ₹72000 भेजने का प्रलोभन दिया गया और जनता ने उसे ठुकरा कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुना।

दिल्ली में जीत को लेकर भले ही अब तरह-तरह के प्रोपगेंडा चलाए जाएंगे परंतु सौ बात की एक बात की यह केजरीवाल की जीत है। केजरीवाल के विकास की राजनीति की जीत है। केजरीवाल के रणनीति की जीत है। केजरीवाल के द्वारा आम आदमी से अपने संबंध को मजबूत करने की जीत है। आम आदमी तक सहजता से संवाद प्रेषित करने की जीत है। आम आदमी की समस्याओं के समाधान में पहल करने मदद करने अथवा प्रयास करने की जीत है। आम आदमी के लिए बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा मूलभूत समस्याएं हैं। केजरीवाल ने इस पर फोकस किया। इतना ही नहीं नरेंद्र मोदी के बृहत आभामंडल के तले केजरीवाल ने रणनीति भी बदली। कई राष्ट्रीय मुद्दों पर हमेशा की तरह बेसिर पैर का विरोध करना भी बंद कर दिया। अंत में शाहीन बाग के पक्ष में भी खुलकर उतरने की रणनीति से बचा गया और अंततः भाजपा के रणनीति के काट को लेकर हनुमान चालीसा भी पढ़ा गया।

देश नरेंद्र मोदी के हवाले। दिल्ली केजरीवाल के हवाले। यह एक शुभ संकेत है। विकास की राजनीति को एक रास्ता मिलेगा। नेताओं को प्रेरणा मिलेगी। विकास करने वाला भी जीतता है। यह भी एक सबक है। हालांकि छद्म धर्मनिरपेक्षता बादी इसे शाहिनबाग की जीत और नरेंद्र मोदी की हार के रूप में प्रस्तुत करेंगे। परंतु मैं इसे खारिज करता हूं।

24 जनवरी 2020

राष्ट्रीय बालिका दिवस और पुरूषवादी समाज

राष्ट्रीय बालिका दिवस : 40 दिनों से अनशन पे है एक बेटी और पुरूषवादी समाज कर रहा उपहास

अरुण साथी


आज राष्ट्रीय बालिका दिवस है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का स्वांग भले ही चलता हो पर समाज आज भी बेटी को अनपढ़ रखने और उसे मार देने की प्रवृत्ति में ही विश्वास रखता है। बेटियों की आजादी, उसके स्वाबलंबन, उसकी नौकरी, उसकी उच्च शिक्षा, उसकी भावना, उसके देह, उसकी स्वतंत्रता, उसकी मौलिकता, पारिवारिक स्थितियों में उसके स्वयं के विचार को लेकर यह समाज आज भी ढोंगी है।

ऐसा नहीं करने वाले पर बेटी को कलंकिनी, बना दिया जाता है। उसे बदनाम किया जाता है। उसे तिरस्कृत किया जाता है। उसे प्रताड़ित किया जाता है। 

यह एक सच है और बहुसंख्यक समाज यही कर रहा है। 

इस सच का सामना 10 दिन पूर्व तब हुआ जब दैनिक जागरण के द्वारा मुझे यह सूचना मिली कि आपके आसपास के गांव की ही कोई बेटी है जो हरिद्वार में पद्मावती के नाम से गंगा बचाने के लिए पिछले 26 दिनों से अनशन कर रही है।

उस बेटी के माता-पिता और घर का पता नहीं लग रहा। मैंने इसकी जानकारी अपने व्हाट्सएप ग्रुप बरबीघा चौपाल में दिया। जहां से शाम में हमारे करीबी डॉ दीपक कुमार मुखिया के द्वारा बताया गया कि लड़की का घर नालंदा जिले के मलामा गांव है। जो कि हमसे 8 या 10 किलोमीटर दूर है। इसकी जानकारी मैंने अपने उच्च अधिकारियों को दे दी। फिर उनके द्वारा निर्देश दिया गया कि आपको बेटी के गांव जाना है।
 इस सूचना के बाद शाम हो गया। फिर भी मैं एक अपने साथी रितेश कुमार के साथ उस बेटी से मिलने के लिए चल पड़ा। रास्ते में जानकारी नहीं होने से कुछ परेशानी उठानी पड़ी।  फिर भी उस गांव तक जैसे तैसे पहुंच गया। शाम के 8:00 बजे होंगे । गांव में एक तरह से सन्नाटा पसरा हुआ ही था । इस समय तक सभी लोग खाना खाकर सोने की तैयारी में जा चुके थे। पूछते पूछते पद्मावती के पिता के घर पहुंचा। कई लोग पूछने पर मुस्कुरा कर जवाब देते थे। पद्मावती के पिता के घर के पास पहुंचने पर उसके पिता संकोच पूर्वक मुझसे मिले और जल्दबाजी में हम सब को घर के अंदर लेकर चले गए और एक कमरे में ले जाकर धीरे-धीरे बात करने लगे। पद्मावती के माताजी काफी गुस्से में थी और वह सामने नहीं आई।

पिता से बातचीत कर स्टोरी पर काम करने लगा और सारी जानकारी अपने वरिष्ठ श्री प्रशांत सर को दे दिया। इस दौरान पता चला कि रामकृष्ण परमहंस के वैचारिक धाराओं को आगे बढ़ाते हुए पद्मावती के पिता स्थानीय एक आश्रम में ध्यान करते थे। जहां पद्मावती भी जाती थी और फिर अचानक वह सन्यासिनी हो गई और हरिद्वार चली गई।


अब बेटी के सन्यासिनी होने का दंश समाज ने माता-पिता को अपमानित और प्रताड़ित करके दिया। गांव और आसपास के लोगों ने उसका चरित्र हनन किया। युवा पीढ़ी के लोगों ने फेसबुक पर गंदे गंदे शब्द लिखें।

हालांकि पद्मावती के पिता को भले ही कुछ दिनों तक अपमानित और प्रताड़ित होना पड़ा परंतु समाज में अच्छाई भी सामने आयी। दिनकर न्यास से जुड़े नीरज कुमार और जल पुरुष राजेंद्र प्रसाद पद्मावती के समर्थन में आगे बढ़े और दैनिक जागरण का यह अभियान रंग लाया। नालंदा में बृहत सभा हुई जहां पद्मावती के पिता को भी बुलाया गया और जल पुरुष राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि उनके लिए यह गौरव की बात है कि जो पद्मावती गंगा को बचाने के लिए आमरण अनशन पर 36 दिनों से बैठी हुई है उसके पिता मेरे बगल में बैठे हुए हैं। यह मेरे लिए गौरव का क्षण है।

हमारा समाज आज भी पुरुषवादी है। स्त्री का सम्मान तब तक है जब तक वह जीने के लिए समझौता वादी रहती है। उचित मुद्दे पर भी मुंह नहीं खोलती। समर्पण कर देती है। अथवा विद्रोह करने वाली स्त्रियों का समाज चरित्र हनन भी कर देता है। यह दुखद है। बेटी के बाप होने पर शर्मिंदगी होने लगती है..। 

इस मुद्दे में हिंदुत्ववादी पार्टियों और उनके समर्थकों के छद्म होने का सच भी सामने आता है। पद्मावती से पहले तीन सन्यासियों ने गंगा को बचाने में अपने जीवन का त्याग कर दिया है। पद्मावती भी जिद पर अड़ी हुई है। परंतु केंद्र सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रहा। धन्यवाद है नीतीश कुमार जी को कि उन्होंने एक बेटी को बचाने के लिए प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है और नालंदा के सांसद ने पद्मावती को जाकर मुख्यमंत्री के समर्थन का पत्र भी दिया है।

19 जनवरी 2020

वामपंथी को देश से प्रेम नहीं! राहुल गांधी में नेतृत्व क्षमता नहीं...किसने कहा

सच का सामना


राहुल गांधी में नेतृत्व की क्षमता नहीं। सोनिया गांधी पुत्र मोह में कांग्रेस को बर्बाद कर रहे। वामदलों को भारत से ज्यादा दूसरे देशों से मोहब्बत है। वामदलों के पाखंड के चलते ही देश में हिंदुत्ववादी ताकतों को मजबूती मिली है। पांचवी पीढ़ी के राजबंशी राहुल गांधी का कर्मठ नरेंद्र मोदी के सामने राजनीति में भविष्य नहीं। मोदी का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वह राहुल गांधी नहीं है। वह सेल्फमेड है। उन्होंने 15 वर्षों तक राज्य को चलाया है। उनके पास प्रशासनिक अनुभव है। वह बेहिसाब मेहनती और कभी छुट्टी पर यूरोप नहीं जाते।


भारत में सामंतवाद खत्म हो रहा है। लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। लेकिन कांग्रेस में ठीक इसके उलट हो रहा है। सोनिया गांधी दिल्ली में है। उनका सल्तनत तेजी से सिमट रहा है। लेकिन उनके चमचे उनको बता यही रहे कि आप ही बादशाह है।



आप लोगों ने कई गलतियां की हैं। लेकिन राहुल गांधी को लोकसभा में भेजकर आपने विनाशकारी काम किया है।


वामदलों के पाखंड के चलते ही हिंदुत्व का प्रसार हो रहा है। वामपंथियों को अपने देश से ज्यादा दूसरे देश से लगाव है। वे सिमटते जा रहे हैं लेकिन उन्हें समझ नहीं।


अगर हिंदूवादी ताकतों को रोका नहीं गया तो देश बर्बाद हो जाएगा।



उक्त बातें कोई भक्त नहीं कह रहा। बल्कि नरेंद्र मोदी के कट्टर विरोधी, आलोचक और प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने केरल में आयोजित केरल लिटरेचर फेस्टिवल में कही है।



यही बातें यदि किसी और तरफ से आती तो अंध विरोधी हंगामा मचा देते। परंतु देर से ही सही रामचंद्र गुहा ने यथार्थ को केरल की धरती पर रख दिया। शायद उन्हें आत्म ज्ञान प्राप्त हो गया होगा।


देश के तथाकथित सेकुलर अथवा प्रगतिशील मुसलमान भी जब तीन तलाक, हलाल, अमानवीय मुद्दों पर खामोश हो जाते हैं।  विरोध नहीं करते हैं। CAA जैसे इन देशों में प्रताड़ना के शिकार लोगों को मानवीय आधार पर सम्मान देने के कानून का विरोध करते हैं तब जो सर्वधर्म समभाव के विचारधारा वाले सच्चे सेकुलर होते हैं उनके सामने यही कठिन परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है।


तथाकथित सेकुलर और प्रगतिशील मुसलमान भी तुष्टीकरण के प्रभाव में इतने प्रभावित हैं कि वे लोग भी हमेशा चाहते हैं कि उनके पक्ष की ही बात कही जाए।



जब उनके मन की बात नहीं होती तो वह हमलावर हो जाते हैं । कट्टरपंथियों की भाषा में जवाब देने लगते हैं और आज भारत में एक बड़ा वर्ग उनके विरुद्ध इसीलिए उठ खड़ा हुआ है। लोकतंत्र बहुमत का तंत्र है।जब हम राष्ट्रवाद से इतर दुश्मन देश की प्रशंसा और आतंकी विचारधारा वाले लोगों के साथ खड़े हो जाते हैं तो देश का मानस इसके विरोध में खड़ा हो जाता है। वैसे में राम चंद्र गुहा के इस आत्मज्ञान को आत्मसात करने की जरूरत है। हालांकि यह होगा नहीं।


 अब रामचंद्र गुहा तथाकथित सेकुलर के निशाने पर होंगे। उधर कपिल सिब्बल ने भी कह दिया है कि सी ए ए का कोई राज्य विरोध नहीं कर सकता। उसको लागू करने से मना नहीं कर सकता।


 आंखें खोलने की जरूरत है। सच का सामना करने की जरूरत है। हमें एक प्रगतिशील, विकासशील, सर्वधर्म समभाव, सभी को समान मानने वाले समाज को गढ़ने की जरूरत है। किसी भी धर्म अथवा जाति के लोगों को विशेष मानने से दूसरे की कुंठा मुखर होकर सामने  आया है और समाज में विभेद पैदा हो रहा है।


13 जनवरी 2020

कौन बनेगा झूठों का सरदार 20-20

अरुण साथी
सैयां झूठों का बड़ा सरताज निकला, चोर समझी थी मैं थानेदार निकला। वैसे तो अब यह गीत ओल्ड है पर  ओल्ड इज गोल्ड है। आजकल झूठों का बड़ा सरदार कौन यह प्रतियोगिता जारी है और इस प्रतियोगिता में शामिल कई प्रतिस्पर्धी एक दूसरे को विजेता बनाने में लगे हुए है। हालांकि कुछ माह पहले तक झूठों के सरदार का सरताज कजरी बवाल को माना जाता था पर अचानक इस प्रतियोगिता में कई प्रतिस्पर्धी कूद पड़े और उनको पछाड़ दिया।

नव वर्ष में नंबर वन झूठों का सरदार कौन इसका काउंटडाउन अभी चालू है । फिर भी लंबित पात्रा के द्वारा झूठों के सरदार का खिताब पप्पू कुमार को दे दिया गया है। इससे पहले पप्पू कुमार के द्वारा यह खिताब प्रधान चौकीदार महोदय को दिया गया था। परंतु प्रधान चौकीदार महोदय के द्वारा यह खिताब अपने सेनापति महोदय को दे दिया गया था। घुमा फिरा कर यदि बात करें तो झूठों के सरदार का खिताब एक ऐसा खिताब है जिसमें शामिल सभी प्रतिभागी अपने प्रतिद्वंदी को ही यह ख़िताब देने की प्रतियोगिता में लगे हुए।

घुमा फिरा कर बात वहीं की वहीं आ जाती है। जैसे कि जिस बात को लेकर बवाल है उस बात पर सर्वोच्च हाउस में सेनापति महोदय ने ताल ठोक कर कहा कि एनआरसी होकर रहेगा। वहीं नटलीला मैदान में प्रधान चौकीदार महोदय ने कह दिया कि अब तक इसकी कोई चर्चा ही नहीं हुई है। कोई बात नहीं है। अब पप्पू कुमार की बात करें तो तीन देशों के प्रताडित अल्पसंख्यक  को नागरिकता देने के लिए बने नियम को स्वदेशी अल्पसंख्यकों के विरोध में बता कर बावेला खड़ा कर दिया। अब झूठों के सरदार कौन प्रतियोगिता में बड़ी संख्या में बावेला करने वाले भी शामिल हो गए। तोड़फोड़ और हिंसा सब जगह हो रही है। किसी को पता ही नहीं कि क्यों हो रहा है।


तब तक सड़कों पर उतरने वाले हाथों में पत्थर और माचिस की डिब्बी रखकर निकलने की तैयारी कर रहे हैं। बाकी अंध विरोधी को इससे मतलब है कि अपने विरोधी को धूल चटा देनी है। इस धूल चटाने में देश भी मिट्टी में मिल जाए इसकी परवाह नहीं! वंदे मातरम

07 जनवरी 2020

जाकी रही भावना जैसी..कलिकाल इफेक्ट

जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।

संत तुलसीदास जी ने कभी यह कल्पना नहीं की होगी कि कलिकाल में उनकी इस चौपाई को यथार्थ रूप में देखा जा सकेगा परंतु इस कलिकाल में सोशल मीडिया नामक संयंत्र पर हो रहे षड्यंत्र के रूप में तुलसीदास जी के इस चौपाई को चरितार्थ होते हुए देखा जा रहा है।


पहले तो सीएए और एनआरसी पर इसे देखा गया फिर उससे भी पूर्व कश्मीर में धारा 370 और कश्मीरी पंडित बनाम आतंकवादी हिंसा में देखा गया। फिर मॉब लॉन्चिंग, असहिष्णुता आदि इत्यादि पे देखा गया। और अधिक पीछे जाने के वनस्पति वर्तमान में ही रहना चाहिए। सो देश की राजधानी इंद्रप्रस्थ में स्थित एक विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में इसे चरितार्थ होते हुए देखा जा रहा है।


अब कहते हैं कि कई दिनों से नक्सली गुंडों के द्वारा यूनिवर्सिटी में रजिस्ट्रेशन नहीं होने देने के लिए कमर कस ली गई थी। वाईफाई बंद कर दिया गया था और जबरदस्ती रजिस्ट्रेशन कराने वालों को जमकर धो दिया जा रहा था। नतीजा दो दिन पूर्व कुछ और निकला और फिर दनादन धोने का काम शुरू हो गया। नतीजा कुछ और निकला तो फिर नकाब लगाकर धोने वालों बौरो प्लेयर को बाहर से बुला लिया गया। अब उनके द्वारा धोने का काम जबरदस्त ढंग से कर दिया गया। दे दनादन दे दनादन।

नतीजा यह निकला की नकाबपोश होते हुए भी संघी गुंडे के रूप में चिन्हित कर दिए गए पर दूसरे पक्ष वाले भी कहां खामोश रहने वाले थे । उनके द्वारा नक्सली गुंडे का नक्सलवादी हमला कह दिया जा रहा।

कई फोटो और वीडियो वायरल है जिसमें एक नकाबपोश श्रीमती जी के जींस और शर्ट को चिन्हित कर तीर लगा लगा कर नक्सलवादी बताया जा रहा है।

पर अपने जीतो दा को गंभीरता पूर्वक सुनिए। वह कहते हैं कि बिहार के पटना यूनिवर्सिटी में गोली और बम भी चले तो चर्चा नहीं होती और जेएनयू में पाद भी निकले तो हंगामा खड़ा हो जाता है। यह किसी साजिश का हिस्सा नहीं तो और क्या है। जीतो दा कहते हैं कि देश को अस्थिर करने के लिए यह सब हो रहा है। मैंने पूछा देश को अस्थिर करने में कौन लोग शामिल है। तब जाकी रही भावना जैसी, वे दूसरी तरफ उंगली उठा देते हैं! चार उंगली उनकी तरफ चली गयी। कुल मिलाकर बात इतनी। दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई। दोनों जलाने में मजे ले रहे हैं। यह एक ऐसा गेम है जिसमें दोनों की जीत हो रही है। मजे लीजिए। बाकी जो है सो सब ठीक है..