#उम्मीद_मत_छोड़ना
अपने जीवन काल के सबसे नाउम्मीदी और निराशा के दौर में जीते हुए उम्मीद और धैर्य का दामन जोड़ से पकड़ रखा है।
इसी निराशा और अवसाद के दौर से उबरने के लिए आज लाइफ ऑफ पाई फ़िल्म का सहारा लिया। पिछले दिनों फ़िल्म थप्पड़ देखी। अजीब है न। सिनेमा के किरदारों में खुद को खोजना। उसी से साथ एकाकार हो जाना। आज भी कहाँ कुछ बदला है।
जानकर भी। सिनेमा अभिनय है। उसी से एकाकार हो जाना। अजीब है न। मन ने कहा। जीवन भी तो अभिनय है। या की सिनेमा ही है। थप्पड़ फ़िल्म की नायिका का किरदार सिनेमाई है। असल जीवन में उसी किरदार को खलनायिका कह देते है। हम। आप। सब। यही सच।
अजीब है न। सिनेमा के किरदार में डूबकर आँखों से अविरल आंसू बहने लगते है। खुशी भी मिलती है। और डरावनी दृश्यों में डर भी जाता हूँ। सिनेमा ही क्यों। असल जीवन में भी। यही तो करता हूँ।
फ़िल्म लाइफ ऑफ पाई। मौत के पल में भी उम्मीद नहीं छोड़ने की हिम्मत। आज तीसरी बार। कई सालों बाद देखा। देखना क्या। जीया। बहुत ढूंढने पे फ़िल्म मिली। या की जीवन मिला। कुछ ऐसा ही किरदार टाइटेनिक की भी तो थी। देखना चाहिए। नाउम्मीदी के इस दौर में। उम्मीद को।
अजीब है न। संगीतकारों को टोली डूबते जहाज में अपने कर्तव्यों को नहीं भूलता। बजाते हुए अलविदा।
गुरुदेव ओशो। जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण के शिक्षक। बोले। समस्त धर्मग्रंथों ने मृत्यु के समय को सुनिश्चित कहा। फिर। हर पल क्यों मरे। जबतक जीवन है। मौत किसी को नहीं मार सकती।
गुरुदेव ने ही तो सिखाया। प्रकृति का प्रतिरोध मत करो। सौंप दो। बस साक्षी भाव से। परम पिता परमेश्वर। तुम जानों। जो मर्जी।
ओशो कह गए है। यह दुनिया बड़ा कृतघ्नता है। अक्सर चीजों को खो देने के बाद ही उसे अनमोल कहती है। इस कोरोना काल में बस इतना ही। जो तुध भये नानका सोय भली तू कर...