31 अगस्त 2017

अच्छे लोगों को राजनीति में होना चाहिए..#ओशो

15 अगस्त को भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली लेकिन क्या स्वतंत्र भारत को स्वस्थ राजनीति नसीब हुई? पढ़ें ओशो की अंतर्दृष्टि की राजनीति के विषय में।

अच्छे लोगों के हाथों में राजनीति आ जाए तो अभूतपूर्व परिवर्तन हो सकते हैं। क्यों? कुछ थोड़ी-सी बातें हम खयाल में ले लें। बुरा आदमी बुरा सिर्फ इसलिए है कि अपने स्वार्थ के अतिरिक्त वह कुछ भी नहीं सोचता। अच्छा आदमी इसलिए अच्छा है कि अपने स्वार्थ से दूसरे के स्वार्थ को प्राथमिकता देता है। तो बड़ा फर्क पड़ेगा। अभी 'राजनीति' व्यक्तियों का निहित स्वार्थ बन गई है, तब राजनीति समाज का स्वार्थ बन सकती है- एक बात।

बुरा आदमी सत्ता में जाने के लिए सब बुरे साधनों का उपयोग करता है और एक बार सत्ता में जाने में, अगर बुरे साधनों का उपयोग शुरू हो जाए तो जीवन की सब दिशाओं में बुरे साधन प्रयुक्त हो जाते हैं। जब एक राजनीतिज्ञ बुरे साधन का प्रयोग करके मंत्री हो जाए, तो एक गरीब आदमी बुरे साधनों का उपयोग करके अमीर क्यों न हो जाए? और एक शिक्षक बुरे साधनों का उपयोग करके वाइस-चांसलर क्यों न हो जाए? और एक दुकानदार बुरे साधनों को उपयोग करके करोड़पति क्यों न हो जाए? क्या बाधा है?

'राजनीति' थर्मामीटर है पूरी जिंदगी का। वहाँ जो होता है, वह सब तरफ जिंदगी में होना शुरू हो जाता है। तो राजनीति में बुरा आदमी अगर है तो जीवन के सभी क्षेत्रों में बुरा आदमी सफल होने लगेगा और अच्छा आदमी हारने लगेगा। और बड़े से बड़ा दुर्भाग्य हो सकता है किसी देश का, कि वहाँ बुरा होना असफलता लाता हो, भला होना असफलता ले आता हो।

आज इस देश में भला होना असफलता की पक्की 'गारंटी' है। किसी को असफल होना हो, तो भले होने से अच्छा 'गोल्डन रूल' नहीं है। बस भला हो जाए, असफल हो जाएगा। और जब भला होना असफलता बन जाए, और बुरा होना सफलता की सीढ़ियाँ बनने लगे, तो जिंदगी सब तरफ विकृत और कुरूप हो जाए, तो आश्चर्य क्या है!

राजनीति जितनी स्वस्थ हो, जीवन के सारे पहलू उतने ही स्वस्थ हो सकते हैं। क्योंकि राजनीति के पास सबसे बड़ी ताकत है। ताकत अशुभ हो जाए तो फिर कमजोरों को अशुभ होने से नहीं रोका जा सकता है। मैं मानता हूँ कि राजनीति में जो अशुद्धता है, उसने जीवन के सब पहलुओं को अशुद्ध किया है।

सत्ता जिसके पास है, वह दिखाई पड़ता है पूरे मुल्क को, और जाने-अनजाने हम उसकी नकल करना शुरू कर देते हैं। सत्ता की नकल होती है, क्योंकि लगता है कि सत्ता वाला आदमी ठीक होगा। अंग्रेज हिंदुस्तान में सत्ता में थे, तो हमने उनके कपड़े पहनने शुरू किए। वह सत्ता की नकल थी। वे कपड़े भी गौरवपूर्ण, प्रतिष्ठापूर्ण मालूम पड़े।

अगर अंग्रेज सत्ता में न होते और चीनी सत्ता में होते तो मैं कल्पना नहीं कर सकता कि हमने चीनियों की नकल न की होती। हमने चीनियों के कपड़े पहने होते। सत्ता में अंग्रेज था, तो उसकी भाषा हमें ज्यादा गौरवपूर्ण मालूम होने लगी। सत्ता के साथ सब चीजें नकल होनी शुरू हो जाती हैं। सत्ताधिकारी जो करता है, वह सारा मुल्क करने लगता है।

जब एक बार अनुयायी को यह पता चल जाए, कि सब नेता बेईमान हैं, तो अनुयायी को कितनी देर तक ईमानदार रखा जा सकता है। नहीं, अच्छे आदमी के आने से आमूल परिवर्तन हो जाएँगे।

अच्छा आदमी कुर्सी को पकड़ता नहीं : फिर अच्छे आदमी की बड़ी से बड़ी जो खूबी है, वह यह है कि वह कुर्सी को पकड़ नहीं लेगा, क्योंकि अच्छा आदमी कुर्सी की वजह से ऊँचा नहीं हो गया है। ऊँचा होने की वजह से कुर्सी पर बिठाया गया है। इस फर्क को हमें समझ लेना चाहिए। बुरा आदमी कुर्सी पर बैठने से ऊँचा हो गया है, वह कुर्सी छोड़ेगा, फिर नीचा हो जाएगा। तो बुरा आदमी कुर्सी नहीं छोड़ना चाहता है।

अच्छा आदमी, अच्छा होने की वजह से कुर्सी पर बिठाया गया है। कुर्सी छोड़ने से नीचा नहीं हो जाने वाला है। अच्छा आदमी कुर्सी को छोड़ने की हिम्मत रखता है। और जो लोग कुर्सी को छोड़ने की हिम्मत रखते हैं, किसी भी चीज को चुपचाप छोड़ सकते हैं, बिना किसी जबर्दस्ती किए उनके साथ, वह मुल्क की जीवनधारा का अवरोध नहीं बनते।

लेकिन बुरा आदमी पकड़ लेता है, छोड़ता नहीं है। अच्छा आदमी जब भी पाएगा कि मुझसे बेहतर आदमी काम करने आ रहा है, तो वह कहता है, अब आ जाओ, मैं हट जाता हूँ। अच्छे आदमी की हटने की हिम्मत, बड़ी कीमत की चीज है। बुरे आदमी की हटने की हिम्मत ही नहीं होती है। वह जोर से पकड़ लेता है। एक ही रास्ते से हटता है वह। उसको या तो बड़ी कुर्सी दो, तो वह हट सकता है, नहीं तो नहीं हट सकता, और या फिर मौत आ जाए, तो मजबूरी में हटता है।
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अच्छा आदमी सत्ता में होगा तो अच्छे आदमी को पैदा करने की व्यवस्था करता है। क्योंकि बुरा आदमी जो प्रतिक्रिया पैदा करता है, उससे और बुरे आदमी पैदा होते हैं। और यह भी ध्यान रहे कि बुरा आदमी जब चलन में हो जाता है तो अच्छे आदमी को चलन से बाहर करता। खोटे सिक्के की तरह।


अगर खोटा सिक्का बाजार में आए तो अच्छा सिक्का एकदम बाजार से नदारद हो जाता है। खोटा सिक्का चलने की कोशिश करता है, अच्छे सिक्कों को हटा देता है। बुरे आदमी जब ताकत में हो जाते हैं, तो अच्छे आदमी को जगह-जगह से हटा देते हैं।


जीसस को किसने मारा? बुरे आदमियों ने, एक अच्छे आदमी की संभावना को! सुकरात को किसने जहर दिया? बुरे आदमियों ने, 'पोलिटीशियंस' ने, एक अच्छे आदमी को! अच्छा आदमी बुरे आदमियों के लिए बहुत अपमानजनक है। इसलिए अच्छे की संभावना तोड़ता है, जगह-जगह से तोड़ता है। बुरा आदमी अपने से भी बुरे आदमी चाहता है, जिनके बीच वह अच्छा मालूम पड़ सके। और इसलिए बुरा आदमी अपने चारों तरफ, अपने से बुरे आदमी इकट्ठे कर लेता है। बुद्ध अपने से ज्यादा बुद्ध इकट्ठा कर लेता है, उनका गुरु हो सकता है।


व्यक्ति को चुनिए, न कि पार्टी को : किसी देश में आज तक ऐसा नहीं है, कि हम अच्छे और बुरे आदमी को चुनने का विचार करें और इसलिए किसी देश में अभी भी ठीक लोकतंत्र पैदा नहीं हो सका है। लेकिन यह हो सकता है। लेकिन एक खयाल जकड़ जाता है, तो उससे अन्यथा सोचने में हमें कठिनाई मालूम पड़ती है। दल का एक खयाल पकड़ गया है कि दल के बिना राजनीति हो नहीं सकती। दल अगर होगा तो अच्छा आदमी कभी प्रवेश नहीं कर सकता। दल प्रवेश करेगा, आदमी का सवाल नहीं है।


यह सारी दुनिया की तकलीफ है, भारत की नहीं है। क्या हर्ज है, अगर पूरा मुल्क अच्छे आदमियों को चुने? उनके अपने विचार होंगे, अपनी धारणाएँ होंगी। हम 'पार्टी बेसिस' पर उन्हें नहीं चुनते। उनके अच्छे होने की वजह से चुनते हैं।


वे पचास आदमी इकट्ठे होकर दिल्ली में निर्णय करेंगे, वे पचास आदमी अपने बीच से चुनेंगे, वे ही निर्णय करेंगे। वहाँ दिल्ली की उनकी लोकसभा में पार्टियाँ हो सकती हैं, लेकिन पूरा मुल्क अच्छे आदमी की चिंता करके चुनेगा। दस अच्छे सोशलिस्ट चुने जाएँगे, दस अच्छे कांग्रेसी चुन जाएँगे। वे ऊपर जाकर निर्णय करेंगे। हमारे चुनाव का आधार पार्टी नहीं होगी, आदमी होगा। ऊपर पार्टियाँ होंगी, वह अपना निर्णय करेंगी, अपना प्रधानमंत्री बनाएँगी। वह दूसरी बात है। 


मुल्क अच्छे आदमी की दृष्टि से चुनाव करेगा तो बड़ा परिवर्तन हो जाएगा, बड़ी क्रांति हो जाएगी। अच्छे आदमियों की बड़ी जमात वहाँ इकट्ठी हो। तो मैं नहीं मानता हूँ, कि कोई पार्टी की सरकार होनी भी जरूरी है। अगर अच्छे लोगों की जमात हो तो अच्छे लोगों की सरकार हो सकती है। वह मिली-जुली हो सकती है। और मिली-जुली सरकार अच्छे आदमियों की हो सकती है। बुरे आदमियों की तो मिली-जुली सरकार नहीं हो सकती, असंभव है।


मेरा मानना यह है कि पार्टियों के दल पर देश को चुनाव करना नहीं चाहिए। देश का आम जन तो व्यक्ति की फिक्र करे, कि कैसा व्यक्तित्व, उसको चुने। ऊपर पार्टियाँ हो सकती हैं, वे मिल-जुलकर ही काम कर सकती हैं, इकट्ठे भी काम कर सकती हैं।


और भारत जैसे देश में मिल-जुलकर ही काम हो तो अच्छा है। एक पार्टी अगर मुल्क के अच्छे की बात भी करे, तो दूसरी पार्टी को सिर्फ इसलिए विरोध करना पड़ता है कि वह विरोधी है। उसे सब बाधाएँ खड़ी करनी पड़ती हैं, सब विरोध करना पड़ता है। सारे राजनीतिज्ञ चिल्लाते हैं, लोगों को समझाते हैं, 'को-आपरेशन' चाहिए, लेकिन उनसे पूछना चाहिए कि तुम्हारे बीच कितना 'को-आपरेशन' है। वहाँ कितना तुम मिल-जुलकर काम कर सकते हो। अगर कोई बढ़िया आदमी है, और वह दूसरी तरफ से आया है, दूसरी दिशा से, तो तुम कितना उसका उपयोग कर सकते हो?


पार्टी कहाँ ले गई आपको? वह तो एक पार्टी थी, तो ठीक था। कोई अव्यवस्था नहीं मालूम पड़ती थी। अब बराबर वजन की दस पार्टियाँ हो जाएँगी, तो रोज सरकार बदलेगी। और भारत जैसे गरीब मुल्क में, रोज सरकार का बदलना बहुत महँगा है। और रोज सरकार बदलें तो विकास क्या हो? गति क्या हो?


मेरी दृष्टि यह है कि पार्टी के ढंग से आपने चुनाव किया, तो अच्छे आदमी की खोज बहुत मुश्किल है। अच्छे आदमी की खोज पर चुनाव होने चाहिए, चाहे वह किसी पार्टी का हो।


'स्वर्णपाखी था जो कभी' पुस्तक से/सौजन्य ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन




28 अगस्त 2017

लोकतंत्र का किसान

#लोकतंत्र का #किसान

अभी धान के खेतों में निकउनी का समय है। किसान और मजदूर सुबह से ही धान की फसल के बीच से  #घास_फूस को चुन कर उसे जड़ से उखाड़ते है और अपने खेतों से बाहर फेंक देते है...ताकि वे धान की फसल को नुकसान न कर सकें... लोकतंत्र में यही घास_फूस धर्म और जाति की आड़ में #फल_फूल रहे है..आज जरूरत ऐसे किसान की जो इस अंतर को समझ सकें। वरना भारत भूमि को लहलहाने के लिए जितने भी उर्वरक दिए जा रहे सभी से घास फूस ही लहरा रहे है...

#मेरा_गांव_मेरा_देश

26 अगस्त 2017

धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे

” यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥”
(गीता अध्याय ४ श्लोक ७ तथा ८)
(अर्थात – जब धरती पर स्थापित धर्म की हानि हो जाती है और उसके स्थान पर अधर्म और गंदी शक्तिया हावी हो जाती है तो मैं अवतार लेकर धरा पर उतर आता हूँ। मैं हर युग में अधर्म द्वारा धर्म को पहुँचाई गई हानि को दूर करने और साधु-संतों की रक्षा के लिए अवतार लेता हूँ। इस प्रकार मैं धर्म की फिर से स्थपना के साथ ही राक्षसों सरीखे दुष्टों को तहस- नहस कर देता हूँ।)

गीता की इस उक्ति को असंतो की दुर्गति के रूप में चरितार्थ होते हुए देखा जा सकता है। गुरमीत बाबा राम रहीम, स्वामी रामपाल, आसाराम बापू निर्मल बाबा, सहित अनेको व्यक्ति जिसने अपने आपको भगवान घोषित कर रखा और पाप कर्मों में लिप्त रहा उसकी दुर्गति गीता के इस श्लोक को प्रमाणित करते हुए यह भी बताता है कि ईश्वर हमेशा असंतों को सजा देता ही है।

गुरमीत राम रहीम के मामले में सीबीआई जज जगदीश सिंह ने जिस साहस और न्यायप्रियता के साथ एक अबला को इंसाफ देते हुए ईश्वर सरीखे उस आभामंडल को नष्ट कर दिया उससे उनके अंदर की ईश्वरीय शक्ति का भी आभास होता है

हालांकि वोट बैंक की राजनीति को लेकर जिस तरह से राजनैतिक पार्टियों के द्वारा ऐसे अघोरी बाबाओं को संरक्षित किया जाता है उससे यह बात भी सामने आती है कि लोकतंत्र में वोट बैंक मानवीय मूल्यों की स्थापना में पिछड़ जाता है।

20 अगस्त 2017

ओशो के विचार: सुखी रहने के सफल मंत्र


ओशो के विचार, सुखी रहने का सफल मंत्र
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दुख पर ध्यान दोगे तो हमेशा दुखी रहोगे, सुख पर ध्यान देना शुरू करो। दअसल, तुम जिस पर ध्यान देते हो वह चीज सक्रिय हो जाती है। ध्यान सबसे बड़ी कुंजी है।

दुख को त्यागो। लगता है कि तुम दुख में मजा लेने वाले हो, तुम्हें कष्ट से प्रेम है। दुख से लगाव होना एक रोग है, यह विकृत प्रवृत्ति है, यह विक्षिप्तता है। यह प्राकृतिक नहीं है, यह बदसूरत है।

पर मुश्किल यह है कि सिखाया यही गया है। एक बात याद रखो कि मानवता पर रोग हावी रहा है, निरोग्य नहीं और इसका भी एक कारण है। असल में स्वस्थ व्यक्ति जिंदगी का मजा लेने में इतना व्यस्त रहता है कि वह दूसरों पर हावी होने की फिक्र ही नहीं करता।

अस्वस्थ व्यक्ति मजा ले ही नहीं सकता, इसलिए वह अपनी सारी ऊर्जा वर्चस्व कायम करने में लगा देता है। जो गीत गा सकता है, जो नाच सकता है, वह नाचेगा और गाएगा, वह सितारों भरे असामान के नीचे उत्सव मनाएगा। लेकिन जो नाच नहीं सकता, जो विकलांग है, जिसे लकवा मार गया है, वह कोने में पड़ा रहेगा और योजनाएँ बनाएगा कि दूसरों पर कैसे हावी हुआ जाए। वह कुटिल बन जाएगा। जो रचनाशील है, वह रचेगा। जो नहीं रच सकता, वह नष्ट करेगा, क्योंकि उसे भी तो दुनिया को दिखाना है कि वह भी है।

जो रोगी है, अस्वस्थ है, बदसूरत है, प्रतिभाहीन है, जिसमें रचनाशीलता नहीं है, जो घटिया है, जो मूर्ख है, ऐसे सभी लोग वर्चस्व स्थापित करने के मामले में काफी चालाक होते हैं। वे हावी रहने के तरीके और जरिए खोज ही निकालते हैं। वे राजनेता बन जाते हैं। वे पुरोहित बन जाते हैं। और चूँकि जो काम वे खुद नहीं कर सकते, उसे वे दूसरो को भी नहीं करने दे सकते। इसलिए वे हर तरह की खुशी के खिलाफ होते हैं।

जरा इसके पीछे का कारण देखो। अगर वह खुद जिंदगी का मजा नहीं ले सकता तो वह कम से कम तुम्हारे मजे में जहर तो घोल ही सकता है। इसीलिए सभी तरह के विकलांग एक जगह जमा होकर अपनी बुद्धि लगाते हैं ताकि जोरदार नैतिकता का ढाँचा खड़ा कर सकें और फिर उसके आधार पर हर चीज की भर्त्सना कर सकें। बस कुछ न कुछ नकारात्मक खोज निकालना है, वह तुम्हें मिल ही जाएगा, क्योंकि वह तो समस्त सकारात्मकता के अंग के रूप में होता ही है।

जब तुम प्रेम करते हो, तो नफरत भी कर सकते हो। जो व्यक्ति नपुंसक है और प्रेम नहीं कर सकता, वह हमेशा नकारात्मक पर ही जोर देगा। वह हमेशा नकारात्मक को ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगा। वह हमेशा तुमसे कहेगा- अगर तुम प्रेम में पड़े तो दुख उठाओगे। तुम जाल में फँस जाओगे, तुम्हें तकलीफें भोगनी होंगी। और, स्वाभाविक रूप से जब भी घृणा के क्षण आएँगे और तुम दुख का सामना करोगे तो तुम्हें वह व्यक्ति याद आएगा कि वह सही कहता था।
***
फिर, घृणा के क्षण तो आने ही हैं। फिर एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि मनुष्य रोगों के प्रति ज्यादा सचेत होता है न कि स्वास्थ्य के प्रति। जब स्वस्थ होते हो तो तुम अपने शरीर के बारे में भूल जाते हो। लेकिन, जैसे ही सिर दर्द होता है या और कोई दर्द, या फिर पेट का दर्द तो देह को नहीं भूल पाते। देह होती है तब, प्रमुखता से होती है, बड़े जोर से होती है, वह तुम्हारा दरवाजा खटखटाती है। वह तुम्हारा ध्यान खींचती है।

जब तुम प्रेम में होते हो और खुश होते हो तो भूल जाते हो। लेकिन, जब संघर्ष, नफरत और गुस्सा होता है तो तुम उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हो। ऊपर से वे विकलांग लोग, वे नैतिकतावादी, वे पुरोहित, वे राजनेता, वे मिल कर चिल्लाते हैं एक स्वर से कि देखो, हमने तुमसे पहले ही कहा था, और तुमने हमारी नहीं सुनी। प्रेम को त्यागो। प्रेम दुख बनाता है। इसे त्यागो, उसे त्यागो, जीवन को त्यागो। इन बातों को अगर बार-बार दोहराया जाता रहता है तो उनका असर होने लगता है। लोग उनके सम्मोहन में फँस जाते हैं।
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तुम कहते हो कि तुम उपवास करते रहे हो, तुमने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया है। उपवास का भला बुद्धत्व से क्या ताल्लुक हो सकता है? ब्रह्मचर्य का बुद्धत्व से कोई संबंध नहीं हो सकता? बेतुकी बात है। जो भी तुम करते हो जैसे कि तुम कहते हो कि मैं बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए रात-रात भर जागता रहता हूँ। दिन में बुद्धत्व प्राप्त करने की कोशिश क्यों नहीं करते? रात भर जागने की क्या जरूरत है? ये कुदरत के विरोध में तुम कयों खड़े हुए हो?

बुद्धत्व प्रकृति के खिलाफ नहीं होता। वह प्रकृति की परितृप्ति है। वह तो प्रकृति की चरम अभिव्यक्ति है। वह तो जितना संभव हो सकता है, उतनी प्रकृति है। प्रकृति के खिलाफ होने पर नहीं, बल्कि साथ होने पर ही तुम बुद्धत्व तक पहुँचते हो। वह बहाव के खिलाफ तैरने से नहीं, बल्कि उसके साथ बहने से मिलता है। नदी की यात्रा तो पहले से ही समुद्र की तरफ है। तुम्हें उसके खिलाफ तैरना शुरू करने की कोई जरूरत नहीं, जबकि तुम करते यही रहे हो।

अब तुम पूछोगे कि तो मुझे क्या करना चाहिए? मैं कहूँगा कि दुख के प्रति अपनी आसक्ति त्याग दो। तुम बुद्धत्व की खोज नहीं कर रहे हो, बल्कि तुम तो दुख की खोज में लगे हुए हो। बुद्धत्व तो सिर्फ एक बहाना है।

जीवन से प्रेम करो, और अधिक खुश रहो। जब तुम एकदम प्रसन्न होते हो, संभावना तभी होती है, वरना नहीं। कारण यह है कि दुख तुम्हें बंद कर देता है, सुख तुम्हें खोलता है। क्या तुमने यही बात अपने जीवन में नहीं देखी? जब भी तुम दुखी होते हो, बंद हो जाते हो, एक कठोर आवरण तुम्हें घेर लेता है। तुम खुद की सुरक्षा करने लगते हो, तुम एक कवच-सा ओढ़ लेते हो। वजह यह है कि तुम जानते हो कि तुम्हें पहले से काफी तकलीफ है और अब तुम और चोट बर्दाश्त नहीं कर सकते। दुखी लोग हमेशा कठोर हो जाते हैं। उनकी नरमी खत्म हो जाती है, वे चट्टानों जैसे हो जाते हैं।

एक प्रसन्न व्यक्ति तो एक फूल की तरह है। उसे ऐसा वरदान मिला हुआ है कि वह सारी दुनिया को आशीर्वाद दे सकता है। वह ऐसे वरदान से संपन्न है कि खुलने की जुर्रत कर सकता है। उसके लिए खुलने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सभी कुछ कितना अच्छा है, कितना मित्रतापूर्ण है। पूरी प्रकृति उसकी मित्र है। वह क्यों डरने लगा? वह खुल सकता है। वह इस अस्तित्व का आतिथेय बन सकता है। वही होता है वह क्षण जब दिव्यता तुममें प्रवेश करती है। केवल उसी क्षण में प्रकाश तुममें प्रवेश करता है, और तुम बुद्धत्व प्राप्त करते हो।

साभार: दि रिवोल्यूशन पुस्तक से
प्रस्तुति:अरुण साथी

03 अगस्त 2017

कविवर को नमन

किसान (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है

हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ

आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा

देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा

तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है

तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है

मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है

कविवर मैथलीशरण गुप्त को जयंती पे नमन

किसान (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है

हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ

आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में

बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा

देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा

तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है

तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है

मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है