12 नवंबर 2020

बिहारी ने मुर्गों को मुर्गा बना दिया



अरुण साथी (व्यंग्य)

एक मुर्गा था। अनेक मुर्गे थे। बिहार चुनाव था। तेज रफ्तार थी। नौकरी था। रोजगार था। मुर्गे बिहार के भी थे। देशभर के भी थे। मुर्गों का क्या है। कुछ मुर्गे देसी नस्ल के थे। कुछ मुर्गे विदेशी नस्ल के थे। कुछ कड़कनाथ मुर्गे भी थे । कुछ मुर्गे फार्म हाउस में रह रहे थे। कुछ पोल्ट्री फॉर्म में रह रहे थे। कुछ मुर्गे मीडिया हाउस में थे। कुछ मुर्गे इलेक्ट्रॉनिक्स चैनल में थे। कुछ मुर्गे सोशल मीडिया पर थे।

फिर मुर्गों के समाज की दादागिरी स्थापित करने को लेकर सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में एक स्वर से मुर्गो ने कहा सुबह-सुबह जब वह बांग देते हैं तभी सूरज निकलता है। सूरज निकलता है तभी सवेरा होता है। सवेरा होता है तभी जीवन चलती है। लोग काम पर निकलते हैं। जब हम आम लोगों के जीवन में इतना महत्वपूर्ण है तो क्यों नहीं एक नुस्खा अपनाया जाए।


 सम्मेलन के अध्यक्ष कड़कनाथ मुर्गा ने निर्णय लिया कि सब आधी रात को बांग देंगे और सभी लोग जाग जाएंगे। तभी सूरज निकलेगा। फिर सभी एकजुट होकर मीडिया हाउस, इलेक्ट्रॉनिक चैनल, सोशल मीडिया, यूट्यूब इत्यादि पर आधी रात को बांग देने लगे। लोकतंत्र का पहला पाठ आम्रपाली (बिहार) ने दुनिया पढ़ाया। 


 बिहारी भोली-भाली जनता होती है। नासमझ होती है। अनपढ़। मूर्ख। गरीब-गुरबा। दिनचर्या के अनुसार बैल, बकरी, जानवर, खेती, जागना, सोना सब।

आधी रात को मुर्गे बांग देने लगे। इससे बिहारी जनता को कुछ फर्क नहीं पड़ा। सभी लोग अपनी दिनचर्या के अनुसार जागे और अपने-अपने काम में लग गए। अपने हिसाब से जीना। अपने हिसाब से अच्छा-बुरा सोचना। अपने हिसाब से वोट देना, सब हुआ।

इस बात से मुर्गों को भारी दुख हुआ। सभी आक्रोशित हो गए । गुस्सा इस बात का कि सुबह में क्यों जागे। उनके बांग देने पर आधी रात को सूरज क्यों नहीं निकला। अब फिर से बांग दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर बांग देने में गाली गलौज भी हो रहा है। लोकतंत्र का परिहास किया जा रहा है। बिहारी का उपहास किया जा रहा है। बिहारी को मूर्ख बताया जा रहा है। बिहारी को अपमानित किया जा रहा है। मुर्गों का क्या है। वह तो बांग ही देंगे। परंतु बिहारी ने मुर्गों को मुर्गा बना दिया। एक बिहारी। सब मुर्गों पर भारी। इतिश्री रेवा खंडे...

11 नवंबर 2020

नीतीश कुमार इस जीत पर इतरा नहीं सकते, बस; अंत भला तो सब भला


अरुण साथी

सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर दिए गए एकतरफा जीत और बहुमत को आखिरकार साइलेंट वोटरों और महिलाओं ने नकार दिया। अंततः जीत सोशल मीडिया पर दिखने वाले हवाबाजी से हटकर गांव देहात में प्रभावित मतदाताओं की वजह से हुई। देशभर में नरेंद्र मोदी के विरोधी खेमे ने बिहार में भी नरेंद्र मोदी को चित करने के सारे दांव खेल दिए। सभी तरह के हथकंडे भी अपनाएं। एग्जिट पोल के बाद जश्न भी मनाया। परंतु बिहार की जनता ने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की पिछली सरकार के किए गए कामों को डरते-डरते ही सही अपना समर्थन दे दिया। भाजपा है तो भरोसा है । यह बिहार चुनाव का स्लोगन भी इस बार कारगर रहा।

पहले ही कहा था कि अति पिछड़ा और महिलाओं की ताकत को नकारा नहीं जा सकता। बिहार के बौद्धिक और व्यवसायी वर्ग में लालटेन के आने से डर का माहौल भी होने के बात पहले कह रहा था। आखिरकार यह कारगर हुआ।


हालांकि ज्यादातर सीटों पर बहुत कम अंतर से हुए इस जीत पर नीतीश कुमार और भाजपा वाले इतरा नहीं सकते। जीत के संकेत स्पष्ट हैं। मतदाताओं ने नीतीश कुमार की सरकार को कड़ी चेतावनी दे दी है। 


जनहित से हटकर काम करने, प्रशासनिक दबंगई, भ्रष्टाचार, झूठी शराबबंदी से त्रस्त जनता नीतीश कुमार के साथ तो गई है परंतु चेतावनी भी स्पष्ट दे दी है। 

सरकारी नौकरी के नाम पर नियोजन का अंधकारमय भविष्य देना। जॉब के लिए प्रदर्शन करने पर लाठी खाना। नौकरी के एग्जाम में भ्रष्टाचार और कई साल तक इसे लटकाना। कोर्स खत्म होने में कई साल अधिक लगना, युवाओं के नाराजगी का प्रमुख कारण रहा। इसे नजरअंदाज करना फिर से भारी पड़ सकता है। खासकर बीजेपी के लिए।


इस बार जीत के कई मायने निकाले जाएंगे। सब कुछ कहना जल्दबाजी होगी। परंतु नीतीश कुमार के द्वारा चिराग पासवान को नकार देना गंभीर साबित हुआ। चिराग पासवान साथ होते तो संशय के बादल सुबह में छट गए होते। और यह भी कि तेजस्वी यादव ने पिता की प्रेत छाया से निकलकर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करा दी है। अब चुनाव के कुछ दिन पहले सबको साथ लेकर चलने वाले अपने भाषणों को कितना सही ठहराते हैं यह वक्त बताएगा। उनके भाषणों पर कुछ लोगों को भरोसा नहीं हुआ और उनके वापसी का यही एक कारण रहा।


इस चुनाव में बीजेपी की दमदार उपस्थिति बिहार में नए सवेरे के संकेत भी है। आखिरकार 19 लाख युवाओं को रोजगार देने के दांव बीजेपी का कारगर भी हुआ और अंत भला तो सब भला, मेरा आखिरी चुनाव का भावनात्मक संदेश भी लोगों को प्रभावित किया। अब जरूरत है एनडीए के नेताओं को मिल बैठकर आत्मचिंतन करने की। पिछली सरकारी नीतियों की समीक्षा करने की।




09 नवंबर 2020

#नीतीश_में_का_बा


कल अपने बाजार में था। व्यवसाई वर्ग के लोग आशंकित और डरे हुए हैं । नितीश कुमार यदि वापसी नहीं करते हैं तो निश्चित रूप से बिहार #आशंकाओं  और #अनिश्चितता के दौर में होगा । #तेजस्वी_यादव को लेकर उम्मीद समर्थकों में हो सकती है परंतु नीतीश कुमार ने क्या किया इसकी बानगी संपन्न हुए चुनाव को ही देखा जा सकता है। नीतीश कुमार ने क्या नहीं किया इसके कई तर्क कुतर्क दिए जा रहे हैं जिससे सभी वाकिफ हैं।

कई चुनाव कवरेज करने का मौका मिला। मारपीट, गोलीबारी, हत्या, नरसंहार भी देखें। और 2020 का शांतिपूर्ण चुनाव भी देख लिया। बिहार में इसकी उम्मीद शायद ही किसी को होगी कि चुनाव में शांति हो। पत्रकारों को चुनाव कवरेज के दौरान लगातार परेशान होना पड़ता था। कभी उधर मारपीट की खबर तो कभी उधर गोलीबारी की खबर। कभी नरसंहार तक की खबर से रूबरू होना पड़ा है।

इस बार बिहार के चुनाव में एक बड़ा बदलाव यह देखने को मिला कि पहली बार महिला मतदान कर्मियों को लगाया गया। मेरे गांव के बूथ सहित कई बूथों पर सभी मतदान कर्मी महिलाएं थी। कहीं कुछ अभद्र व्यवहार तक नहीं हुआ। यह नीतीश कुमार ने संभव किया है। हालांकि एग्जिट पोल और मीडिया के बदले हुए रुख से संकेत स्पष्ट मिल रहे हैं।

बाहर हाल बिहार अपने भविष्य को लेकर निश्चित की ओर बढ़ता है या अनिश्चित की ओर, कल निर्णय होगा....

05 नवंबर 2020

मोदी समर्थक और मोदी विरोध में बंटा बुद्धिजीवियों का समाज अंधा हो गया है...

रिपब्लिक भारत के संपादक अर्नव गोस्वामी की गिरफ्तारी पर जश्न मनाने वाले लोग बहुत दिख जाते हैं । वैसे तो मोदी विरोधी इस जश्न में जमकर शरीक हो रहे हैं परंतु मोदी के विरोध में पत्रकारिता करने वाले भी इस जश्न में शामिल है। कई वरिष्ठ पत्रकार भी कुतर्क के सहारे इसे जस्टिफाई करने की कोशिश कर रहे हैं।

 इसी तरह का मामला पिछले कुछ सालों से देश में देखने को मिल रहा है या कहें कि दुनिया भर में यही स्थिति बनती जा रही है। फ्रांस के मामले में मुनव्वर राणा जैसे लोगों ने भी कुतर्क के सहारे अपनी बात रखी थी। 

 अर्नव गोस्वामी के चैनल पर कभी दस सेकंड मैं नहीं रह सका। चीखना, चिल्लाना है। यही पहचान थी। निश्चित रूप से गोस्वामी ने गलत किया है। पत्रकारिता जगत इससे नाराज है। वह अलग बात हो सकती है। परंतु अर्नव गोस्वामी की गिरफ्तारी को लेकर कुतर्क दिया जाना बिल्कुल गलत है। सुशांत के मामले में महाराष्ट्र सरकार के बखिया उधेड़ दी। जबरदस्त मामले को उछाला। नहीं तो सुशांत जैसे मुद्दे को दबा दिया जाता।

 सबसे से हटकर अलग अंदाज हो हो सकता है। पुराने ढर्रे से अलग चलने की आदत हो सकती है। परंतु अर्नव गोस्वामी की गिरफ्तारी पुराने केस में की गई है। वह भी जो बंद हो चुका था। अब उसमें पुलिस के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं। वहीं लोग हैं जो यदि ऐसा काम बीजेपी की सरकार करती तो कोहराम मचा दिए होते। सहिष्णुता, लोकतंत्र की दुहाई देते।

 पार्टियों और विचारधाराओं में बंटे बुद्धिजीवी, महान पत्रकार ज्यादा खतरनाक होते गए हैं । कंगना राणावत के मामले में भी जश्न का माहौल देखने को मिला था। राहत इंदौरी के निधन पर भी एक पक्ष द्वारा खुशियां मनाई गई थी । यह स्पष्ट हो चुका है कि दो राजनीतिक खेमों में बैठे बुद्धिजीवी, महान पत्रकार और हमारा समाज आज नफरत की पराकाष्ठा पर है और नफरत आदमी को अंधा बना देता है।

पत्रकारों के लिए किसी शायर ने खूब कहा है

आज अगर खामोश रहे तो कल सन्नाटा छाएगा,
हर बस्ती में आग लगेगी, हर बस्ती जल जाएगा!