अरुण साथी (व्यंग्य)
एक मुर्गा था। अनेक मुर्गे थे। बिहार चुनाव था। तेज रफ्तार थी। नौकरी था। रोजगार था। मुर्गे बिहार के भी थे। देशभर के भी थे। मुर्गों का क्या है। कुछ मुर्गे देसी नस्ल के थे। कुछ मुर्गे विदेशी नस्ल के थे। कुछ कड़कनाथ मुर्गे भी थे । कुछ मुर्गे फार्म हाउस में रह रहे थे। कुछ पोल्ट्री फॉर्म में रह रहे थे। कुछ मुर्गे मीडिया हाउस में थे। कुछ मुर्गे इलेक्ट्रॉनिक्स चैनल में थे। कुछ मुर्गे सोशल मीडिया पर थे।
फिर मुर्गों के समाज की दादागिरी स्थापित करने को लेकर सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में एक स्वर से मुर्गो ने कहा सुबह-सुबह जब वह बांग देते हैं तभी सूरज निकलता है। सूरज निकलता है तभी सवेरा होता है। सवेरा होता है तभी जीवन चलती है। लोग काम पर निकलते हैं। जब हम आम लोगों के जीवन में इतना महत्वपूर्ण है तो क्यों नहीं एक नुस्खा अपनाया जाए।
सम्मेलन के अध्यक्ष कड़कनाथ मुर्गा ने निर्णय लिया कि सब आधी रात को बांग देंगे और सभी लोग जाग जाएंगे। तभी सूरज निकलेगा। फिर सभी एकजुट होकर मीडिया हाउस, इलेक्ट्रॉनिक चैनल, सोशल मीडिया, यूट्यूब इत्यादि पर आधी रात को बांग देने लगे। लोकतंत्र का पहला पाठ आम्रपाली (बिहार) ने दुनिया पढ़ाया।
बिहारी भोली-भाली जनता होती है। नासमझ होती है। अनपढ़। मूर्ख। गरीब-गुरबा। दिनचर्या के अनुसार बैल, बकरी, जानवर, खेती, जागना, सोना सब।
आधी रात को मुर्गे बांग देने लगे। इससे बिहारी जनता को कुछ फर्क नहीं पड़ा। सभी लोग अपनी दिनचर्या के अनुसार जागे और अपने-अपने काम में लग गए। अपने हिसाब से जीना। अपने हिसाब से अच्छा-बुरा सोचना। अपने हिसाब से वोट देना, सब हुआ।
इस बात से मुर्गों को भारी दुख हुआ। सभी आक्रोशित हो गए । गुस्सा इस बात का कि सुबह में क्यों जागे। उनके बांग देने पर आधी रात को सूरज क्यों नहीं निकला। अब फिर से बांग दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर बांग देने में गाली गलौज भी हो रहा है। लोकतंत्र का परिहास किया जा रहा है। बिहारी का उपहास किया जा रहा है। बिहारी को मूर्ख बताया जा रहा है। बिहारी को अपमानित किया जा रहा है। मुर्गों का क्या है। वह तो बांग ही देंगे। परंतु बिहारी ने मुर्गों को मुर्गा बना दिया। एक बिहारी। सब मुर्गों पर भारी। इतिश्री रेवा खंडे...