31 जनवरी 2014

डेन्ड्रफ वाला तोता अ बुद्धू बक्सा बाले डफर

(व्यंग/अरूण साथी)
जब से ई टीआरपी का जमाना आया है तब से डेन्ड्रफ वाले तोतों की तूती बुद्धू बक्सा बाले बोलबाने लगे है। पब्लिक का क्या है, वह तो डेन्ड्रफ वाले तोतों को ही भगवान मान पूजने लगती है। पूजना भी चाहिए, आखिर तोता को डेन्ड्रफ होना मामूली बात नहीं होती।
डेन्ड्रफ वाले तोंता भी कई प्रकार के होते है। एक दो तो ऐसे भी है जो पीएम बाला सर्टिफीकेट लिए घूम रहें है जिसपर न सिग्नेचर है न मोहर।
एक तोता नाना, दादी और पापा रट लगाए हुए है। बुतरू है अभी, रटने में भी समय लगता है। कभी कभी तीन सिलेंडर बोल देते है तो कभी अध्यादेश को फाड़ कर फुर्र हो जाते है।
अब रटंत विद्या तो रटंत ही रहेगी। केतना याद रहेगा, सो फंस गए अंग्रेजी चैनल के चक्कर में। चले थे हीरो बनने, बन गए जीरो। अपनी ही पार्टी की लुटिया डुबो दी।
अब ई चैनल बाला सब भी बड़े वो है, पहला-दूसरा के बुतरू से मैट्रीक वाला सवाल पूछेगा तब पैंट तो गीला होगा ही।
हलांकि गांव देहात में जो तोता बोलता नहीं उसे हरहर तीत मिर्ची खिलाई जाती है। अब ई बुतरू के मम्मी तीखी मिर्ची खाने ही नहीं देती तो कोई क्या करे? फैसला सुना दिया ‘‘बुतरू पीएम कंडिडेट नहीं होगा।’’
दूसरे ‘‘साहेब’’ (जासूसी बाला साहेब न समझे) नयका डेन्ड्रफ वाला तोता है। नागपुर से मनोनित। पीएम के सर्टिफीकेट पर दस्खतो अपने कर लिए। अब बुद्धू वक्सा वाले सब सवा अरब के देश में दू-तीन हजार से पूछ कर धोषणा कर दिए, सर्टिफिकेट सही है। जय हो।
अब बुद्धू वक्सा वाले सब डेन्ड्रफ वाले तोता का ही जय हो कर-करा रहे है। करो भाई, कोई काहे रोकेगा।
एक और नयका तोता मैदाम में है। कहते है खाली हमरा डेन्ड्रफ की ऑरिजनल है। उनके अंदर हरिश्चन्द्र जी का आत्मा है। मान लो जी। हर बात में एसएमएस से पूछते है। बताओ जी शौचालय जाए की नहीं....। हुजूर पब्लिक रास-रंग की शौकिन है उसकी सुनोगे तो देश की कौन सुनेगा। सम्भल जाओ जी। 
ई सब के बीच खेलाबन चाचा ठुक-मुकाल, टुकुर टुकुर देख रहे है। जैसे द्रिग लग गया हो। का करें जी, समझे नहीं आता। ई सब केतना डेन्ड्रफिया गया है। किसी को धर्म वाला डेन्ड्रफ हुआ है तो किसी को धर्मनिरपेक्ष वाला। ई सब चुनाव में ही काहे होता है। उनके डेन्ड्रफ पर तो किसी का ध्याने नहीं है। उनकर पेट से लेकर पीठ तक डेन्ड्रफ भर गया। डागडर साहेब ने बताया है कि दुन्नी सांझ रोटी भर पेट खाओ तब्बे ठीक होगा, कहां से खायें। गंजा भी हो गए त कोई आके कंधी बेच दे रहा है, हदे हाल है।
खिसियाल खेलाबन चा बड़बड़ाते रहते है ‘‘ बुढ़ सुग्गा नै पोस माने, पार्टी ई काहे नै जाने।  बुद्धू बक्सा बाले भैया, डेन्ड्रफ नहीं पपड़ी है, पपड़ी है, डफर....









29 जनवरी 2014

यक्ष प्रश्न...


















यक्ष की तरह
आकर खड़ा हो जाता हूँ मैं
खुद के ही सामने
पूछने लगता हूँ सवाल
उसी तरह
जैसे, लगा हो दांव पर
अपना ही जमीर...

और मैं ही हो जाता हूँ
निरूत्तर
निःशब्द
निविर्य
आदमी हूँ ?
जीता  हूँ जहां
उस धरा को

क्या देकर जाउंगा ?
क्या देकर जाउंगा ?

27 जनवरी 2014

२६ जनवरी/ बोलती तस्वीरें...


जय हिन्द ...DLPS स्कूल का नजारा..
तिरंगे के साथ तिरंगा...

भांजा-gomu/बेटा-प्रेम/ बेटा-प्रेमांशु ..

प्यारी मम्मी-अपने बेटे की तस्वीर खींचती..

बच्चियों का देश प्रेम ..





26 जनवरी 2014

अपने ही देश में तिरंगा पराया हो जाएगा...

किसने सोंचा था!
‘‘केसरिया’’
आतंक के नाम से जाना जाएगा..

‘‘सादा’’
की सच्चाई गांधी जी के साथ जाएगा..

‘‘हरियाली’’
के देश में किसान भूख से मर जाएगा...

किसने सोंचा था!
लोकतंत्र में
गांधीजी की राह चलने वाला मारा जाएगा..
आज भी भगत सिंह फाँसी के फंदे पर चढ़़ जाएगा..

किसने सोंचा था!
भाई भाई का रक्त बहायेगा..
देश के सियाशत दां आतंकियों के साथ जाएगा..

अपने ही देश में तिरंगा पराया हो जाएगा..
अपने ही देश में तिरंगा पराया हो जाएगा..


24 जनवरी 2014

मैं नास्तिक हूँ ?

मैं मंदिर नहीं जाता
न ही भोर में
जलाकर धूप
बजाकर घंटी
अपनी आस्तिकता का
पीटता हूँ ढोल...

न ही मैं पांचों वक्त नमाजी
या कि हाजी
होने का गुरूर
दिखता हूँ हर जगह...

या की चर्च में
कन्फेशन कर
फिर से वही
दुहराता हूँ...

न ही गुरूद्वारे में
टेक कर मथ्था
वाहे गुरू को
झुठलाता हूँ...

पर हाँ
जब भी कहीं
अनैतिकता
अनाचार
की बात आती है
मेरी आस्तिकता
ही मुझे बचाती है...

22 जनवरी 2014

बांझ का बदला अंतिम कड़ी (सच्ची घटना पर आधारित एक कहानी )

पुराने ख्वाबों में खोई परवतिया आज अपने प्रेमी को कोस रही थी। कोढ़फुट्टा! तनियो हिम्मत नै हलई, आ चलल हल प्यार करे। आज ओकरे वजह से हमरा ई गैंजन हो रहल है। 
मन ही मन परवतिया बुदबुदने लगी। बातों ही बातों में परवतिया ने अपनी पिछली जिन्दगी का पन्ना उघार दिया। परवतिया ने बताया कि वह अपने परोस के गंाव के शिवचरणा से प्रेम करती थी। उससे शादी भी करना चाहती थी पर दूसरी बिरादरी का होने की वजह से यह शादी नहीं हो सकी। वैसे तो दोनो दलित थी पर समाजिक मापदण्ड में परवतिया का समाज उससे उपर माना जाता था।
परवतिया की मुलाकात शिवचरणा से भैंस चराने के दौरान हुई थी। परवतिया अक्सर जब अपने खेत से जानवरों के लिए हरयरी (हरा चारा) लेकर आती-जाती तो शिवचरणा भोजपुरिया गाना गाता रहता। परवतिया को लगा कि गाना वह उसी को देखकर गाता है, सो उसने एक दिन डांट दिया।
‘‘आंय रे मुंहझौंसा, हमरा देख के ‘‘सिन्टुआ के दीदी तनि प्यार करो दा’’ गाबो ही, नाका-मुंहा मेटा देतै हमरा गांव वाला के मालुम हो जइतौ तब।’’
शिवचरणा सकपका गया था। उसे तो भोजपुरिया गाना गाने की आदत थी और वह अक्सर गाता रहता था। उसने बहुत सफाई दी पर परवतिया नहीं मानी और उसे डांटती हुई चली गई। अगले चार-पांच दिन शिवचरणा भैंस लेकर वहां नहीं आया। परवतिया को कुछ कमी सी लगी। वह कई बार जाकर देखने लगी आया कि नहीं। जब वह चारा लेकर आती तो लगता जैसे वह गाना गा रहा है पर सिर उठा कर देखती तो कोई नहीं होता।
परवतिया को उसे डांटने पर पछतावा होने लगा। बेचारा बड़ा सीधा था। डरकर भाग गया। परवतिया को उसकी कमी खलने लगी, जाने क्यों वह उसे देखना चाहती थी। फिर एक दिन उस रास्ते से कुछ दूर शिवचरणा के होने की झलक मिली। परवतिया के पैर अपने आप उधर बढ़ गए। वह उस रास्ते कभी नहीं जाती थी पर आज अचानक जाने क्या हुआ।
‘‘आं रे छौंरा, एकदम डरपोक ही रे, माउगाबा।’’
‘‘अब की कैलियो जी, हमतो भैंस भी उधर चराबे ल नै ले जाहिओ।’’
‘‘काहे नै ले जाहीं, इत्ते अच्छा गाना सुने के मिलो हलइय।’’
और बातों का सिलसिला चल निकला। फिर परवतिया के कानों में अक्सर शिवचरणा के गीत गूंजा करते है। वह घर में भी होती तो उसे गली में शिवचरणा के गीत गूंजता सुनाई देता। यह सिलसिला जो चला सो चलता ही रहा। एक दिन परवतिया ने शिवचरणा को हरियरी का बोझा उठा कर अपने सिर पर रखने के लिए बुलाया। शिवचरणा बोझा उठाते हुए उसके देह को छू लिया। परवतिया का देह कांप गया।
अगले कई दिनों तक दोनों ने नजर नहीं मिलाई। शिवचरणा सहमा रहा और परवतिया शार्मायी। एक दिन जब दोनों की नजर मिली तो परवतिया ने मुस्कुरा दिया। फिर बोझा उठाने के बहाने देह के छूने की दूरी जो मिटा तो एक दिन दोनों की देह एक हो गया...
यह कितने दिनों तक छुपता। एक दिन गांव भर में यह खबर आग की तरह फैल गई। समूचे गांव में जैसे कोई विपत्ति आ गई हो। सबकोई परवतिया को कोस रहे थे। परवतिया के बाबू जी तक बात गई तो कोहराम हो गया। पहले परवतिया को लाठी से पीट-पीट कर अधमरा कर दिया गया। और फिर शिवचरणा को गांव के युवकों ने घेर कर गाछ में बांध कर जो पीटा तो लगा जैसे आज उसको मार ही देगें। शिवचरणा के गांव से लोग दौड़ कर आए तो दोनों तरह से जैसे युद्ध हो गया। लाठी, भाला गंड़ास से दोनों तरफ से कई घायल हो गये। शिवचरणा को लोग छुड़ कर अपने घर ले गए और परवतिया का घर से निकलना बंद।
परवतिया पन्द्रह दिन तक दोनों सांझ पानी पी कर रही। माय के किरिया-कसम देने पर भी वह नहीं मानी। सांझ को परवतिया शौच के लिए खेत जाती थी तो भी उसके साथ कोई न कोई होता। एक दिन अचानक सांझ के शिवचरणा राह में खड़ मिल गया। परवतिया दौड़ कर उससे लिपट गई। दोनों फूट-फूट कर रोने लगे। परवतिया की भौजी आज उसके साथ थी। भौजी को परवतिया किरीया-कसम देकर मना लिया। 
फिर से यह सिलसिला चला। उधर परवतिया के शादी के लिए आनन फानन में लड़का खोज लिया गया। गांव के लोगों ने किसी सामाजिक काम में इतनी मदद नहीं की होगी जितनी लड़का खोजने में किया। घर-मकान पक्का पोस, तीन बीघा के जोतदार भी। कर्जा लेकर तीस हजार नकद और एक साईकिल दे दिया गया। दिन धरा गया।
परवतिया ने शिवचरणा को यह बात बताई। कुछ समझ नहीं आ रहा था। परवतिया घर से भाग जाने की बात कही तो शिवचरणा मुकर गया। वह बहुत गरीब था सो उसके घर परिवार को उजाड़ दिया जाता। परवतिया इसके लिए तैयार नहीं थी। उसके साथ धोखा हुआ। परवतिया का संसार जैसे लुट गया। वह एक लाश की तरह शादी में शामिल हुई और ससुराल चली गई। रात दिन उसके आंखों से आंसू बहते रहते। आज पांच साल बाद फिर से शिवचरणा को वह याद कर रही थी।
और अचानक थाने में शिवचरणा हाजिर हो गया। रात्री में एकाएक। उसे देख परवतिया फूटफूट कर रोने लगी। शिवचरणा उसे लेकर चला गया। वह शहर में ही डेरा लेकर अकेले रहता था। उसने बियाह नहीं किया था। पूछने पर परवतिया को बताया ‘‘कि दूसरी शादी क्यों करता?’’ उस रात परवतिया शिवचरणा के डेरा चली गई। शिवचरणा ने उसकी सेवा में जान लगा दी। गर्म पानी से जख्म सेंका और दवाई ला कर दी। खाना बना कर खिलाया। परवतिया रोये जा रही थी।
तीन साल बाद जब परवतिया एक दिन अचानक बाजार में मिली तो मैं दंग रह गया। उसकी गोद में एक-डेढ़ साल का बच्चा था। पूछने पर बोली-
‘‘ अरे साहेब उ मुंहझौंसा, हिजड़बा के छोड़ देलियो, शिवचरणा के साथ रहो हियो। ओकरे से ई बेटी हो।’’
मुझे लगा परवतिया पूरे समाज को मुंहझौसा, हिजड़बा कह रही हो, जिसने उसे बांझ का कलंक दिया था और अपने कोख से बेटी जन्म देकर उसने बदला ले लिया था।  

पुराना लिंक ,

बांझ का बदला (सच्ची घटना पर आधारित एक कहानी )



21 जनवरी 2014

दूरदर्शिता और नेतृत्व विहिन है केन्द्र की सरकार

जनता के सवाल को लेकर जिस प्रकार दिल्ली के सीएम अपने मंत्रीमंडल के साथ सड़क पर धरना दे रहे है उससे एक बार फिर कांग्रेसनित केन्द्र सरकार की नेतृत्व एवं दूरदर्शिता की कमी का संदेश ही मिलता है। जनता के सवाल पर जिस प्रकार एक मंत्री के साथ वहां की पुलिस मिसविहेव करती है और उसके बाद गृहमंत्री और उपराज्यपाल का व्यवहार समाने आता है उससे यही सवाल निकलती है कि केन्द्र की सरकार जनता के साथ खड़ी नहीं होना चाहती।
माना कि दिल्ली सरकार का काम करने का यह तरीका भी कुछ लोगों की नजर में गलत है पर केजरीवाल जनता के जिन  अपेक्षाओं को लेकर सरकार के आए है उनसे परंपरागत कार्यशैली की उम्मीद भी क्यों की जाती है? 
दिल्ली में चल रहे सेक्स, ड्रग्स रैकेट से सभी वाकिफ है। वे चाहे जीबी रोड का मामला हो या पॉश एरिया का। इसका जाल, जंजाल बना हुआ है। आम आदमी त्रस्त है और पुलिस मस्त। केजरीबाल के इस कथन से मैं भी सहमत हूं कि बिना पुलिस के मिलीभगत के इस तरह के काले कारोबार नहीं चल सकते, तो फिर क्रइम के लिए पुलिस की जिम्मेदारी फिक्स करने में क्या समस्या? 
और यदि आप पार्टी की हठधर्मिता (तथाकथित) के बाद ही सही, एक आदने से एसएचओ का तबादला कर ही देते तो क्या हो जाता? कौन सा पुलिस के लिए यह नई बात होती? 
राजनीति में अपने नफे-नुकसान के हिसाब से आंदोलन किए जाते है तब भी एक मुख्यमंत्री का कड़ाके की ठंढ में खुली आसमान के नीचे सोना, आंदोलन करने वालों के लिए शौचालय, खाना पानी और रास्ता तक बंद कर दिया जाना यह सब केन्द्र सरकार के दूरदर्शिता की कमी को ही दिखाता है।
उधर, महिला सुरक्षा पर राहूल गांधी भोपाल में मजलिस लगाते है और 17 जनवरी को चीख-चीख कुछ करने का हौसला देना चाहते है, फिर दिल्ली में इतनी बड़ी घटना पर चुप्पी क्यों? उनको भी एक रात के लिए खुले आसमान के नीचे आना चाहिए, तब राजनीति और आम आदमी की समझ बनती, वरना भावहीन गला फाड़ने से कुछ नहीं होने वाला।
केजनीवाल के इस सवाल का जबाब किसके पास है कि यदि जनता के समस्याओं को पुलिस नहीं सुलझाए और मंत्री के हस्तक्षेप के बाद भी पुलिस कहे कि जो करना हो कर लो, और वे गृहमंत्री और उपराज्यपाल से मुलाकात कर भी कोई रास्ता नहीं निकाल पाए तो क्या करना चाहिए?
आप पार्टी के मशले पर बीजेपी और कांग्रेस एक सुर में बात कर रही है, लाजमी भी है? क्योंकि छल-प्रपंच की राजनीति की परम्परा को केजरीबाल तोड़ रहे है। अच्छे लोग राजनीति में आ रहे तो बुरे लोगोें को बुरा तो लगेगा ही!
केजरीवाल ने मीडिया पर खुल कर हमला करते हुए साफ कहा कि यह अराजकता बाली बात मीडिया के द्वारा प्रयोजित किया जा रहा है और कुछ मीडिया घराने के मालिक कांग्रेस और बीजेपी के लिए काम कर रहे है, तो जी न्यूज, इंडिया न्यूज सरीखे कुछ चैनलों को देख कर आम आदमी स्वयं समझ जाता है। उन्होंने मीडिया को भी जनता से जुड़ने की सलाह दे दी क्योंकि आज महज चैनलों और अखबारों के भरोसे कोई नहीं है, गांव गांव सोशल मीडिया का जलबा है और यह सच को सच की तरह रख देती है .....इस लिए तो कहते है ये जो पब्लिक है सब जानती है.. 

20 जनवरी 2014

बिहार सरकार, अवैध शराब और पुलिस

बिहार सरकार ने प्रदेश को शराब प्रदेश बना दिया। यहां गली गली शराब की सरकारी दुकानें खोल दी गई । हवाला दिया गया कि इससे अवैध शराब पर अंकुश लगेगी। पर मामला उलटा ही निकला। जहां गांवों में शराब बेचने की खुली छुट मिल गई वहीं इसी के साथ साथ चुलौआ अवैध शराब की बिक्री भी जमकर होने लगी। अकेले शेखपुरा जिले में 500 से अधिक घरों में चुलौआ शराब बनाई जाती है और एक दर्जन ठिकानों पर नकली शराब की पैंकिंग होती है।

शराब का यह अवैध करोबार पुलिस की साझेदारी से ही चलती है। एक अडडों से पुलिस को 1000 से 1500 तक का बंधा बंधाया रकम मिलती है। इस हिसाब से यह पच्चास लाख इस काला कारोबार से सिर्फ पुलिस के हिस्से जाती है। वहीं नकली पैंकिंग करने वालों के द्वारा एक लाख तक का महिने में नजराना दिया जाता है। जितने थानों में इनका करोबार है उतने में बंधी रकम पहूंच जाती है। 
अब भला इतने बड़े काले कारोबार को पुलिस क्यों बंद करना चाहिए। इसी वजह से जब भी कहीं छापेमारी होती है पुलिस कारोबारियों को पहले से ही सूचना देते है और छापेमारी की औपचारिकता पूरी हो जाती है।

16 जनवरी 2014

दिया कबीरा रोय...


शेखपुरा (बिहार) 
जिले के बरबीघा थाना क्षेत्र के मालदह गांव में कबीर मठ हमारे आध्यात्मिक पतन का प्रमाण है। यह मठ बदहाल है। यहां एक महिला साध्वी रहती है। उन्होने अपना सारा जीवन कबीर प्रेम और उनके संदेश को समर्पित कर दिया। आज यह मठ पूरी तरह से बदहाल है। इसके हिस्से के एक एकड़ से अधिक जमीन पर गांव के दबंग कब्जा करना चाहते है और इसको लेकर हत्या भी हो चुकी है। वहीं गांव के कुछ लोग इसको बचाने के लिए भी प्रयासरत है। पर परिणाम, कबीर दास आज अपने ही कही साखियों को पढ़ कर रो रहे है... इस मठ और आदमी के आध्यात्मिक पतन को देख कर..


कुछ तस्वीरें 










15 जनवरी 2014

बांझ का बदला (सच्ची घटना पर आधारित एक कहानी )

बात 2007 के जनवरी महीने की है। शाम के पांच बजे थे और लग रहा था जैसे रात हो गई हो। शीतलहरी सांय सांय चल रही थी। अमूमन ऐसे मौसम में शाम में नहीं निकलता था पर आज जाने क्यों मन नहीं लग रहा था, सो बाइक उठाई और निकल गया। सबसे पहले थाना गया। सोंचा शायद कोई खबर ही मिल जाए। एक रिर्पोटर की जिंदगी में अक्सर ऐसा होता है कि जब आप प्लान नहीं करते है और बड़ी खबर आपको मिल जाती है। देखा थानेदार एक स्त्री को डांट रहा है पर वह स्त्री निडर होकर उससे बोलती जा रही है।
‘‘चुप रहती है कि नहीं, बरी आई है केस करने? भतार पर केस करके की मिलतौ?’’
‘‘नै साहेब, आय पांच साल से तो हम चुप्पे ही, पर आय नै। आय उ निरबंशा हमरा केरासन छिट के जला रहल हल, पर हमर जिनगी इतनौ सस्ता नै है।’’ 
‘‘बड़ी खच्चड़ जन्नी है भाई, ऐसनो...’’
‘‘हां जी दरोगा बाबू, खच्चड़ तो हम हैइऐ ही, तोहूं मर्दाने ने हो, उकरे दने बोलभो, उ निरबंशा, हिजड़बा के चढ़े के समांग नै है और बांझ बोल के मारो है हमरा।’’
तब थानेदार की नजर मुझ पर गई और उसने अपना टोन बदल दिया-
‘‘ठीक है, ठीक है लाओ लिख के दो..केस कर देते है... पर केस करने से घर थोड़े बस जाएगा...?’’
‘‘हमरा अब घर बसाना नै है.... ओकरा सबक सिखाना है।’’
मैं समझ गय, मामला कुछ गंभीर है, सो एक कुर्सी खींचकर बैठ गया। उस स्त्री की उम्र वही कोई पच्चीस साल के आस पास होगी। उसके शरीर से केरोसीन की बू आ रही थी और उसका सारा शरीर केरोसीन से भींगा हुआ था। उसके शरीर का गठीलापन उसकी तरफ नजर उठाने पर विवश कर रहा था। गेहूंआ रंग, साधारण कद काठी और बड़े बड़े उभार...जो उसके ब्लाउज के खुले हुए हुक से बार बार अश्लील ईशारे कर अपनी ओर खींच रही थी और थानेदार दोनों उभारों के बीच गहरी घाटी में डूब उतर रहा था। मैं भी अपनी आंखों को तृप्त करने से खुद को नहीं बचा सका। एक भरपूर नजर उस स्त्री पर डाली और एक ठंढी आह भरते हुए कहा-
‘‘क्या बात है बड़ा बाबू, क्या कष्ट है इसको?’’
‘‘कुछ नहीं बस सांय-माउग का झगड़ा है झूठ-मूठ के पुलिस को घसीट रही है।’’
‘‘सांय-माउग का झगड़ा! वाह, कोेई जान लेवे पर उतरल है औ तोरा सांय-माउग के झगड़ा नजर आबो है।’’
‘‘क्या बात है बताइऐ, मैं एक रिर्पोटर हूं, शायद कुछ मदद करू?’’
‘‘देखो उ हिजड़बा की कैलक है।’’
और उसने कमर पर लपेटी हुई सूती की पतली सी साड़ी बेझिझक हटा दी। ओह, वहां जख्मों के कई निशान थे  और उससे रिसता हुआ लहू अभी ठीक से सूखा नहीं था। फिर उसने अपनी पीठ को मेरी तरफ करके पेटीकोट को थोड़ा नीचे सड़का दिया। कई नए पुराने जख्म समूचे पीठ में किसी के क्रुरूरता की गवाही दे रहे थे। फिर वह जांधों पर बने जख्म दिखाने लगी और मैने रोक दिया, बस बस हो गया।
‘‘नहीं साहेब, देख लहो! सांय-माउग के झगड़ा केतना जुलम करो है? औ हां हमरा अब कौनो लाज नै है साहेब, इहे लाज त पांच बरिस तक मार गारी खाय पर विवश कर देलकै। अब बचल की, जिनगिये नै रहतै तब की करबै, निरबंशा कहो है जरा के मार देबौ और सब कहतै बांझी अपने से मर गेलै।’’
अब मेरे कैमरे ने अपना काम प्रारंभ कर दिया था। उसके जख्मों को उसके दर्द के साथ साथ कैद करने लगा।

ओह, शादी के पांच साल हो गए थे और बच्चा पैदा नहीं कर पाने की सजा परवतिया झेल रही थी। उसके शरीर पर बने जख्म उसके मां नहीं बन पाने की सजा थी।
मेरी उपस्थिति ही इस बात की गवाही थी कि थानेदार अब रिर्पोट दर्ज कर कार्यवाई करेगा, क्योंकि किसी पीड़ित की खबर को प्राथमिकता देने की मेरी फितरत से वह आने के कुछ ही माह में वाकिफ हो गया था। सो कागजी कार्यवाई के बाद पुलिस की जीप निकली और थानेदार उसपर परवतिया को बैठा कर चल पड़ा। पीछे पीछे मैं भी हो लिया। शीतलहरी और कुहासे को चीड़ता हुआ उसके गांव पहूंच गया। पुलिस की गाड़ी जैसे ही गांव में प्रवेश किया, गांव के बच्चे और बड़े उसके पीछे पीछे चलने लगे। उसके घर के पास पुलिस पहूंची तो गांव के लोग बड़ी संख्या में जमा हो गए। 
‘‘रमचरना के माउगी पुलिस लेके आई है।’’ जंगल में आग से भी तेज गांव में यह खबर फैल गई थी। उसके घर से रमचरना की मां निकली और सीधा जाकर परवतिये में मुंह पर एक तमाचा जड़ दिया। 
‘‘हो गेलौ मन पूरा, रंडीया, खजनमा के एकगो टुसरी तो निकललै नै और पुलिस ले के आ गेलहीं हैं।’’
परवतिया भी जैसे कोई फैसला की करके आई थी आज-
‘‘टुसरी निकलतै कैसे? बेटबा से नै पूछीं की ओकर टूसरिया उठो हउ।’’ 
सारा गांव सन्न रह गया, जितनी मुंह उतनी बातें। एक दम मरदमराय औरत है भाई, ऐसनो बात बोले के है....?
‘‘त हम त पहले से ही कहो हलिए इ औरत छिनार है, अपने गांव के सन्टुआ से फंसल हैलै, अब इ सब करके हिंया से भागे ले चाहो है..।’’ 
यह बात गांव में लफंगबा के नाम से प्रसिद्ध सरोवर सिंह ने कही तो परवतिया बौखला गई-
‘‘ हां, हां, छिनार तो हम हैइए हीए! तोरा से करबा लेतिए हल तो बड़की सति-सावित्री हो जइतिए हल, तो हीं ने तीन बार हमर छाती पकड़ के पटके के प्रयास कैलहीं हें और तीनों बार करारा जबाब मिललै, रंडीबजबा।’’
पुलिस पुछताछ कर लौट आई, पूरे गांव में किसी ने परवतिया के पछ में बयान नहीं दिया। जिसने भी गवाही दी सबने कहा कि बांझ है और छिनार भी...। परवतिया पुलिस जीप से ही थाने लौट आई। अब वह उस घर में एक पल भी नहीं रहना चाहती। कड़ाके के ठंढ के बाबजूद उसका शरीर जल रहा था। उसके आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे। और वह पूराने ख्बाबों में खो गई।

शेष अगले अंक में.... अगले सप्ताह..



14 जनवरी 2014

मकरसंक्रान्ति पर कुरीति के खिलाफ आवाज..

मकरसंक्रान्ति को तो वैसे तिल और दही-चुड़ा का त्योहार माना जाता है पर इस पर कुरीतियों का भी कुप्रभाव है। 14 जनवरी को होने वाले इस त्योहार को लेकर बचपन से मैं डांट सुनता रहा हूं। मेरे यहां अंधविश्वास है कि 14 जनवरी के दिन स्नान करने पर कुवांरे लड़के-लड़कियों को दुल्हा-दुल्हन काला मिलते है। 
जब से होश संभाला तब से इसी दिन ही स्नान करने लगा। इसको लेकर भारी डांट पड़ती थी पर मैंने इसके खिलाफ आवाज उठाई। वहीं मकरसंक्रान्ति की सुबह स्नान कर अलाव अथवा बोरसी में तिल जला कर तापने की परंपरा है। इसके साथ ही मां पूजा-पाठ कर अपने बेटों को तिल, चावल और गूड़ का बना प्रसाद देती है। परंपरा अनुसार यह प्रसाद सिर्फ बेटों को ही दिया जाता है। साथ ही प्रसाद देते हुए मां पूछती है कि बड़ा होकर उसको (बह्य) देगी या नहीं? इसका मतलब होता है कि बड़ा होकर बेटा उसको अपनी कमाई देगा अथवा उसकी सेवा करेगा कि नहीं? हलंाकि मैं अपनी मां को ऐसा करने से नहीं रोक सका क्योंकि उसका दिल रखना भी जरूरी था पर इस साल यह पूजा मेरी पत्नी रीना करेगी और सुबह सुबह ही उसने सुना दिया कि (बह्य) वह बेटा और बेटी दोनों को देगी साथ ही उसने कहा कि (बह्य) देते हुए वह बेटा से कभी यह नहीं कहेगी कि कमाई दोगे की नहीं? अपने ही बेटों से यह सौदा क्यों करू? और बेटा-बेटी में अंतर क्यों? बेटी, बेटा से कम नहीं करती सो अंतर क्यों? मन प्रसन्न हो गया और साथ ही यह भी जान गया कि परम्परा को बनाए रखने और तोड़ने में महिलाओं को बड़ा योगदान होता है...

12 जनवरी 2014

या खुदा....



या खुदा, मुझको आतिशी-आरजू न दे।
मेरी रगो में मजहबी लहू न दे।।

तेरी पहलू में आदमी की जियारत हो।
या खुदा, इस कदर पैगम्बरी-जुस्तजू ने दे।।

या खुदा, तेरी लाशों पे बनाउं मंदिर-मस्जिद।
ऐसी दोजखे-तमन्ना से होने रूबरू ने दे।।

09 जनवरी 2014

बिहार में पदाधिकारी के जनता दरबार में शिकायत करने पर मारी थप्पड़, भेजा जेल।

बिहार में पदाधिकारी के जनता दरबार में शिकायत करने पर मारी थप्पड़, भेजा जेल। 

बिहार सरकार में किस तहर अधिकारी बौखला गए है इसका नजारा विडीओ में देखिए । शेखपुरा एसडीओ सुबोध कुमार इस युवक को थप्पड़ मार रहे है। युवक बरबीघा के कुसेढ़ी गांव का रहने वाला है। युवक की गलती यह है कि इसने अपने हक लिए एसडीओ से उंची आवाज में बात की। युवक लगातार डीएम के जनता दरबार में फरीयाद लेकर आता था। उसके गांव के जनवितरण दुकान के द्वारा मनमानी की जा रही थी और उकसे बुढ़े पिता को पेंशन नहीं मिल रहा था पर उसे लगातार आश्वासन ही मिल रहा था इसी से नाराज युवक ने आज पदाधिकारी से उलझते हुए एक निश्चित तिथि तय करने पर जोर दिया। इसी से नाराज होकर एसडीओ सुबोध  कुमार ने उसे पीटा और फिर जेल भेज दिया। बिहार में पदाधिकारियों के निरंकुशता का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है..


07 जनवरी 2014

‘‘हाथी चले बजार, कुत्ता भुके हजार’’ उर्फ अथ श्री झारू कथा

अरूण साथी की चुटकी
(चुटकी कस के तो नहीं काट लिया जी, पढ़ने के बाद यह लगे तो माफ कर देना जी, देहाती आदमी हूं जी, सभ्य कैसे हो सकता...)

  झारू की महिमा आज से पहले मैं अलग अलग रूपों में जानता था। देहाती आदमी हूं और मेरे यहां दिपावली में पुरानी परंपरा है कि दिपावली से पुर्व अहले सुबह मां हाथ में झारू और टूटा हुआ सूप लेकर भर-घर सूप और झारू डेंगाती हुए कहती है-‘‘लक्ष्मी घर दरिद्र बाहर।’’ चार बजे सुबह से ही यह टोटका होता है’’ सो सबके साथ साथ मेरी भी नींद खुल जाती थी और बड़ा ही अनमनस्क हो जाता था। 
झारू की एक और महिमा तो मेरी तरह ज्यादातर पुरूषों को भोगा हुआ है। इस कष्ट को पति महोदय उस समय भोगते है जब बीबी नैहर चली जाती है। अब घर भर में झारू लगाने का सजा तो इसी तरह ही दी जा सकती है न....। 
उसी में कुछ मेरे टाइप के लोग हुए तो बीबी के नहीं रहने पर सप्ताह में एक बार ही घर में झारू लगाते है वह भी वैसे जैसे किसी ने स्वीस बैंक में जमा काले धन का पता पूछ लिया हो। और कुछ को तो गंदगी में रहना ही पसंद होती है, सो झारू को छूते ही नहीं। भले ही बीबी आने पर झारू से पीट दे।
झारू की एक यह महिमा भी है जो मेरी तरह कई पतियों ने तब भोगा होगा जब मोहतरमा हाथ में झारू लेकर टूट पड़ती है। पता नहीं देवीजी को यह किस ने बता दिया है कि जिस तरह घर की गंदगी को झारू से साफ करती है उसी प्रकार पति (देव..) की गंदगी की सफाई के लिए भी यह समुचित हथियार है। हलांकि यह आपात स्थिति तब जल्दी जल्दी आती है जब मदिरालय में मदिरा नामक अमृतरस के रसपान की लत लग जाती है। या कि तब भी जब बीबी के हितार्थ उनकी सौतन को घर लाने प्रयास किया जाता है या ले आया जाता है।

इसी प्रकार मेरे गांव में एक स्वस्थ्य परंपरा कार्तिक माह में देखने को मिलती है। छठ माह को लेकर महिलाऐं और बच्चियां पूरे महीने हाथ में झारू लेकर गलियों की सफाई करतीं है। पूछने पर कहती है भगवान जी प्रसन्न होकर गांव-ज्वार में खुशहाली लेकर आएगें। पता नहीं भगवान जी के स्वागत के लिए भी ई झारू ही काहे उपयोगी है?

अब इहे सब बुरबकी ‘‘आप’’ वालें ने सीख लिया। पता नहीं अरबिन्द केजरीबाल कब गांव में रहे, या कि उनकी बीबी ज्यादा नैहर में रहती होगी। तभी तो उनको ई निगोड़ी झारू भा गई। अब इससे वे देश की सफाई करने चले है। भाई साहब झारू तो महिलाओं का श्रृंगारिक हथियार है और आप ने इसपर भी कब्जा जमा कर महिलाओं का एक और हक छीन लिया।
अजी इस झारू से घर-गांव की सफाई तो देखी है ‘‘आप’’ तो देश की सफाई करने निकल गए। जनाब कहीं ‘‘आप’’ को भी गांव की महिलाओं की तरह किसी ने यह तो नहीं बताया कि झारू से साफ-सुथर करने से देश-प्रदेश में भगवान जी प्रसन्न होकर खुशहाली लाएगें।
या जरूर मेरी मां का टोटका ‘‘आप’’ ने चुरा लिया और दिपावाली आने से पुर्व झारू डेंगाते हुए कह रहे- भ्रष्टाचार बाहर, ईमानदारी अंदर। जाति-धर्म की राजनीति बाहर, राष्ट्रवाद की राजनीति अंदर। नोट-वोट की राजनीति बाहर, समाजसेवा की राजनीति अंदर। जय हो, जय हो केजरीवाल जी महाराज.....देश भर को जगा रहे हो जी....अब भेरे भेरे नींद से जगाओंगे जो कुछ लोग अनमनस्क होंगे ही...
इहे से तो हमर बाबा कहो हलखिन-‘‘हाथी चले बजार, कुत्ता भुके हजार’’।

05 जनवरी 2014

निगोड़ी भूख और गरीब का बच्चा.

(एक आंगनबाड़ी केन्द्र पर खबर बनाने के दौरान बच्ची की यह तस्वीर खिंची और बरबस ही शब्दों ने कविता का रूप ले लिया...)

कोई पिज्जा नहीं खाता, कोई बर्गर नहीं खाता।
हमारी भूख कैसी है? यह सबकुछ निगल जाता।।

तुम्हारे देह पर सजते है सुनहरे ड्रेस रंगीले।
हमे तो देह ढ़कने को फकत गुदड़ी ही मिल पाता।।

तुम्हारे पुस्तकों में भी खनक सिक्कों की होती है।
हमे तो काली सिलौटों को फकत पेल्सुट न मिल पाता।।

हमारा  दोष क्या है जी, खुदा के हम भी बच्चें है।
तुम्हारी हंसी नहीं थमती, हमें तो अब रोया भी नहीं जाता.....

04 जनवरी 2014

अर्धांगिनी

यूं ही
वजह/वेवजह
बात/वेबात
प्यार/तकरार
क्षणे रूष्टा
क्षणे तुष्टा
क्या है यह?
प्रेम/घृणा
संबंध/अनुबंध
या कि यही है
जीवन......


02 जनवरी 2014

मन लागो मेरा यार फकीरी में।-OSHO

"मन लागो मेरा यार फकीरी में।"

"जो सुख पायो राम भजन, सो सुख नाहिं अमीरी में।।"

कबीर दास की इन पक्तियों को ओशो ने इस तरह से व्याख्या की है. जीसस ने कहा कि ‘पुअर इन द स्पिरिट’ भीतर जो दरिद्र है वहीं फकीर। ओशो कहते है जिसके भीतर कुछ भी दावा नहीं है। मेरे-तेरे का, जिसके भीतर न धन है, न पुण्य है, न प्रतिष्ठा है वही फकीर है। जो आदमी फकीर होने को राजी हो गया वही बादशाह हो जाता है। जिसके अंदर ध्यान है, प्रेम है वही बादशाह है।

01 जनवरी 2014

गावं जवार से ....किसान गीत के साथ, साथी की ओर से...नववर्ष मंगलमय हो..


पेट भरू सबका, खुद भूखा सोउ
मन ही मन घुट-घुट मैं रोउ
******************
कभी मेरे लिए भी सूरज निकले
मेरे खेतों में भी सोना उपजे
*******************
कभी कहो खेत, किसान,
मजदूर की जय हो
************
कभी एक मुट्ठी खुशी
अपने लिए भी तय हो
***************
तब मैं भी कहूं सबको
नववर्ष मंगलमय हो
नववर्ष मंगलमय हो...