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पर यह समस्या तब लोकतंत्र पर हमला नहीं बन सका था जब 74 अर्धसौनिक बलों को मार गिराया गया? तब भी नहीं बना जब पंचायत लगाकर सरेआम लोगों को मारा जाता है? तब भी नहीं बना जब सरकारी संरक्षण में सलवा जुडूम होता रहा और उसकी आड़ में सौंकड़ों आदिवासियों को मार गिराया गया, महिलाओं से सरेआम बलात्कार किया गया? यह खेल लाख चिल्लाने के बाद भी सरकार ने तब तक नहीं रोका जब तक सुप्रिम कोर्ट ने आदेश नहीं दिया! यह समस्या तब तक उतनी गंभीर नहीं बन सकी जब विनायक सेन जैसे डाक्टर को देशद्रोह का आरोप लगा कर जेल में ठूंस दिया गया। तब भी यह समस्य गंभीर नहीं बनी जब सोनी सोढ़ी जैसों को यंत्रणा दी गई और वह भी इतना अमानवीय की उनके योनी में पत्थर ठूंस दिया गया!
हमारी दोहरी और दोगली नीति का खुलासा इसी से होता है। मैं मानता हूं कि नक्सली निश्चित रूप से पथ से भटक गए है। और ऐसा मानने के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता कि इसके संस्थापक कानू सान्याल ने ही पिछले वर्ष इसके पतन की पटकथा लिखते हुए कहा था कि नक्सलबाद को खत्म कर देना चाहिए यह पथ से भटक गया।
नक्सलियों के भटकाव की फेहरिस्त बड़ी लम्बी है जिसमें बड़े बड़े नक्सली कमांडरों का अकूत दौलत जमा करना, महिला नक्सलियों का शारीरिक शोषण करना, आदिवासियों के विकास की योजनाओं को जमीन पर उतरने में बाधा पहूंचाना, और यदि लेवी मिले तो बड़ी बड़ी कम्पनियों के साथ मिलकर काम करवाना या संरक्षण प्रदान करना। आदिवासियों के कल्याण के लिए कोई भी योजना नहीं चलाना आदि इत्यादि।
इस सब के बाद भी नक्सलबाद के मूल में हमारी व्यवस्था ही दोषी है। कैसे इस लोकतांत्रिक देश में देश का पच्चीस प्रतिशत पूंजी का हिस्सा महज 100 अरबपतियों के हाथ में जमा है? यह पूंजीवादी व्यवस्था का छलावा है कि जीडीपी ग्रोथ के सहारे सरकार चलती है और यह खेल इस प्रकार चलता है कि अरबों कमाने वालों को पच्चास रूपया देहाड़ी कमाने वाले और भूखे सो जाने वाले सबको एक साथ जोड़ कर ग्रोथ निकाल दिया जाता है और उसकी कमाई भी...?
कैसे इस देश में करोड़ों का घोटाला हो जाता है और हम डकार तक नहीं लेते? कैसे इस देश में एक अदना सा सिपाही आम आदमी या औरत तक को मां बहन एक कर देता है? कैसे इस देश में विकास को पन्द्रह पैसा ही जमीन पर उतरता है? कैसे इस देश में नौकरशाही मानसिकता राजशाही की तरह व्यवहार करती है? कैसे इस देश में 223 विधायक में 203 करोड़पति होते है? कैसे इस देश में चौथाखम्भा तक दबे कुचलों की आवाज नहीं बन पाता? कैसे इस देश में न्याय तक पैसे के दम पर सरेआम बिकती है? कैसे इस देश में अपनी पत्नी को एक उधोगपति 400 करोड़ का आशियाना गिफ्ट में देता है?
बहुत सवाल है और गुस्सा भी बहुत! जब भी नक्सली किसी को मारते है तो हम चिल्ला चिल्ला कर कहने लगते है कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं पर हम फिर से उसी हिंसा के रास्ते पर चलने लगते है? जब दंतेबाड़ा में 74 अर्धसैनिक मरे थे तो क्या वे जंगल में किसी की पूजा करने गए थे? और तब प्रधानमंत्री वहां क्यों नहीं आए थे? क्या चंद कांग्रेसी नेताओं से कम कीमती थी उनकी जान...? या सलवा जुडूम चलाने वाले को यह नहीं पता था कि हिंसा का जबाब हिंसा भी हो सकता है? बात तो वही हो गई कि तुम करो तो रास लीला हम करें तो कैरेक्टर ढीला?
नक्सलवाद पर किसी भी प्रकार की नीति बनाने से पहले जरा इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि कैसे छतिसगढ़ में महेन्द्र कर्मा के साथ रहे एक डाक्टर का यह कहने पर कि मैं एक डाक्टर हूं और बस्तर में सेवा कार्य कर चुका हूं नक्सलियों ने उन्हें न सिर्फ छोड़ दिया बल्कि पानी पिलाई और जख्मों पर मलहम पटटी करते हुए इंजेक्शन तक दिया.....
याद है मुझे जहानाबाद की जेल ब्रेक की घटना, कैसे नक्सली शहर में घूम घूम कर लाउडीस्पीकर से यह ऐलान कर रहे थे कोई अपने घरों से न निकले, हमारी लड़ाई आम आदमी से नहीं है....
नक्सलियों ने छतिसगढ़ में मारे गए निर्दोषों के लिए खेद प्रकट किया तो क्या प्रधानमंत्री भी सलवा जुडूम के लिए खेद व्यक्त करेगें...
खैर! नक्सलियों में आए भ्रष्टाचार, भटकाव और पूंजीवाद के बाबजूद उनको जनसमर्थन मिलता है इसका मूल कारण यह है कि हामरे तंत्र में जनता के सेवक का भाव नहीं बल्कि शासक का भाव है और जबतक यह भाव रहेगा नक्सलबाद खत्म नहीं किया जा सकता। नक्सलबाद को खत्म करने के लिए सबसे पहले इन्हें खत्म करना होगा...