30 दिसंबर 2014

हिन्दू तालिबानी













अगर हम चुप रहे तो
एक दिन यहां भी
मार दी जाएगी गोली
मलाला को...

अब वो कहते हैं
रोटी मत मांगों,
मत मांगो
हक
सच की अभिव्यक्ति का...

और अंधविश्वास को
मान लो,
मान लो
उस भगवान को
जिसने की थी
हत्या गांधी की
और गोडसे की मंदिर में
करो प्रार्थाना,
मिले साहस
"हे राम"
कहते हुए
आदमी के सीने में
गोली मारने की...

और अब वही लोग कर रहे है
प्रयत्न
मार देने का
सत्य, अहिंसा, प्रेम और
सर्व धर्म समभाव की विचारधारा को....

और ऐसे में हम सब को डरा रहे है वो
हे भारतपुत्र
लाज बचाना
इन हिन्दू तालिबानियों से
डर मत जाना...
डर मत जाना...

एक पत्रकार का अपहरण (आपबीती)--अंतिम कड़ी { पुरानी यादें / नए दोस्तों के लिए }

दिसम्बर की सर्द रात को कोहरे ने अपने आगोश में ले लिया था और हमारे प्राण को अपराधियों ने अपने आगोश में। जिंदगी और दोस्ती की बाजी में मैंने जिंदगी को दांव पर लगा दिया। मैं उसे यह समझाता रहा है कि हमलोग पत्रकार है और हमारा अपहरण करने से कोई फायदा नहीं होगा। जान भी मार दोगे तो क्या मिलेगा? फिर बॉस ने अपने एक साथी को बुलाकर हमें मारने का आदेश दिया। 
‘‘चलो काम खत्म करो यार, कहां ढोते रहोगे। खत्म कर दो यहीं।’’
 देशी पिस्तौल की ठंढी नली कनपटी पर आकर सटी तो मेरे जैसे अर्ध-आस्तिक के पास भी ईश्वर को याद करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। हे भोला। जीवन के अच्छे-बुरे कर्म तरेंगन की तरह आँखों के आगे नाचने लगे। बुरे कर्मों को अच्छे कर्मों से संतुलित करने लगा पर पलड़ा बुरा का आज शायद भारी था इसलिए तो मौत सामने खड़ी थी और मैं जिंदगी से हिसाब किताब कर रहा था। खुद के बारे में सोंचने लगा। परिवार का क्या होगा? किसी का सहारा भी तो नहीं। एक छोटा भाई है बस। किसी तरह की जमा पूंजी तक नहीं। ईश्वर को याद करता हुआ उनसे बतियाने लगा। जैसे कि वह सामने हो और सब कुछ उनकी मर्जी से हो रहा हो। अपने अच्छे कर्म की दुहाई भी देता तब बुरे कर्म सामने आ जाता। देवा। शायद मौत के आगोश में ही जिंदगी की हकीकत सामने आती है। गीता का वचन, कर्म प्रधान विश्वकरि राखा याद आने लगा। कोई जैसे पूछ रहा था . 
‘‘बताओ क्या किया इतने दिनो’’ और मैं जबाब दे रहा है। इसी तर्क वितर्क में कट की आवाज ने बुरे कर्म की प्रधानता बता दी, गया, पर नहीं, यह पिस्तौल के बोल्ट के चढ़ाने की आवाज थी।  
‘‘रूको’’, बॉस की यह आवाज जैसे ईश्वर का आदेश हो। 
‘‘चलो इसको लेकर चलते है।’’ सफर फिर से प्रारंभ हो गया। सर्दी की यह कंपकंपा देने वाली रात आज डरावनी नहीं लग रही थी और न ही अब मौत का डर लग रहा था। पता नहीं क्यों मौत की आगोश में होने के बाद उसका डर खत्म सा हो गया था या यूं कहें कि सोंच लिया था कि जब मरना ही है तो मरेगे, पर मैंने जिंदगी का दामन नहीं छोड़ा। ऐसे समय में आचार्य रजनीश की बातें याद आने लगी।  
‘‘मौत तो सुनिश्चित समय पर एक बार आनी तय है इसलिए उसके भय से बार बार नहीं मरना।’’ और मैं फिर मौत से बतियाने लगा। 
‘‘काहे ले हमरा अर के मारे ले कैलो हो, जिंदा रहबो त कामे देबो।’’ मैं समझाने के विचार से बोला। 
‘‘की काम देमहीं।’’ बातचीत प्रारंभ, मैं यह समझाने की प्रयास करने में सफल हो रहा था कि हमलोग समाज से तुम्हारी तरह ही लड़तें है। अन्याय का विरोध करते है। सफर में बातचीत का सिलसिला चलते चलते लगा जैसे दो मित्र आपस में बात कर रहे हो। मैं मनोविज्ञान के लिहाज से उसका आत्मीय होने का प्रयास करने लगा। फिर एकएका मुझे कंपकंपी लगने लगी। हाफ स्वेटर पर ठंढ बर्दास्त नहीं हो रही थी औंर मैं कंपाने लगा। तभी मेरे देह पर एक चादर आ कर रखा गया।  
‘‘ ला ओढ़ो, हम कोट पहनले हिए।’’ बॉस से युवक ने अपने देह से चादर उतार कर मेरे देह रखते हुए कहा। देवा। मौत को भी संवेदना होती है? और बोलते बतियाते हमलोग चलते रहे। इस बीच सभी का व्यवहार अब पहले जैसा नहीं रहा, थोड़ आत्मीय हो गया। रास्ते में कहीं झाड, तो उंचे उंचे टीले मिले। हमलोग चलते जा रहे थे। तभी रास्ते में बड़ी सी नदी मिली। सब मिलकर पार करने की सोंचने लगे। 
‘‘पानी अधिक नहीं है पार हो जाएगें।’’ एक ने प्रवेश कर देखते हुए कहा। फिर जुत्ता, मौजा हाथ में और हमलोग पानी मे।  नदी में पानी कम और कीचड़ ज्यादा दी। भर ठेहूना कीचड़ में धंसता हुआ जा रहे थे। उस पार, दूर एक गांव के होने का आभास हुआ। कुत्तों ने भौंकना प्रारंभ कर दिया था। थोड़ी ही दूर चलने पर नदी के अलंग पर ही एक धान का खलिहान मिला। हमलोग वहीं बैठ गए। कारण हमलोगों से ज्यादा उसमें से एक की हालत ठंढ से ज्यादा खराब थी। सब लोग वहीं बैठ गए। आलम यह कि उपरी तौर पर हमलोग आपस में धुलमिल गए थे। बोल-बतिया ऐसे रहे थे जैसे वर्षों पुराना मित्र। उनलोगों को विश्वास में ले लिया कि यदि मुझे छोड़ दिया तो किसी प्रकार का खतरा नहीं होगा। पुलिस को भी कुछ नहीं बताएगे।  फिर उसमें से एक ने मचिस निकाली और नेबारी लहका दिया। सब मिलकर आग तापने लगे। फिर थोड़ी देर के बाद बॉस ने कहा कि चलो मुखिया जी से चलकर आदेश ले लेते है कि क्या करना है, मारना है कि छोड़ना है। और फिर दो साथी उस गांव की ओर चल दिए जिधर से कुत्तांे के भौंकने की आवाज आ रही थी। दो ने अपने हाथ में पिस्तौल निकाल लिया,  
‘‘कोई होशियारी नै करे के, नै ता जान यहां चल जइतो।’’ 
‘‘नै नै होशियारी की, जे तोरा करे के हो करो, हमरा ले भगवान तोंही हा, मारे के मारो, जियाबे के हो जियाबो।’’  फिर धीरे धीरे आग लहकता रहा और सबकी आंखों में नींद नाचने गली। दोनों अपराधियों को नींद ने अपने आगोश में ले लिया। एक की पिस्तौल वहीं रखी हुई थी। पर मैं बेचैन हो रहा था। मेरे मन में यहां से भागने का ख्याल आने गला। पिस्तौल को अपने कब्जे में लेकर यहां से भाग सकते है? पर मेरे मन की यह बात यहीं दबी रह गई। मेरे मित्र मनोज जी के खर्राटे की आवाज ने मेरे अरमानों पर पानी फेर दिया। यदि मैं भागने की या इनको जगाने की कोशीश करता हूं तो यह लोग भी जाग जाएगें और फिर खेल खत्म.....
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दिसम्बर की कड़कड़ाती ठंढ और रात भर खुले आसमान में मीलों चलने के बाद कैसी हालत होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। जिंदगी और मौत से जद्दोजहद में आज न आग प्यारी लग रही थी और न ही ठंढ सता रही थी। हमेशा दिमाग में तरह तरह के ख्याल आते रहते और यूं ही सोंचते हुए करीब एक धंटा बीता होगा तब जाकर दोनों मुखिया से मिलकर लौट आए। आते ही दोनों साथियों को जगाया और अलग हटकर खुसुर-फुसुर करने लगे। फिर सरदार ने आकर हमसे बात की। मैंने खर्राटे ले रहे मित्र को जगाया और सरदार की बोलने की टोन बदली हुई थी। वह हमदोनों को समझाने लगा। 

‘‘देख भाय, जे होलौ उ मनेजर के गफलत में, हमसब ओकरा उठावे बला हलियो पर एक नियर गाड़ी होला से गड़बड़ हो गेलो, सेकरा से अब जे होलो से होलो, छोड़ तो देबौ पर पुलिस के चक्कर में मत फंसाईहें।’’ समझ गया कि छोड़ने का मन बना लिया है पर कहीं पुलिस के पास न चला जाउं इसलिए डर रहा है। मैं फिर उससे अत्मियता दिखाते हुए बतियाने लगा। 
‘‘देखो दोस्त, हमरा ले तों भगवान हा और हम पुलिस के पास काहे जाइबै, तो की कैला हमरा।’’ मैं उसे विश्वास दिलाने लगा कि मैं पुलिस को उसके बारे में कुछ नहीं बताउंगा और न ही किसी प्रकार की उससे नाराजगी है। यह करते कराते काफी समय बीत गया। उसे हमदोनों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। फिर मैंने मनोज जी को टहोका और उन्हांेने ईसारा समझ उसे भरोसा दिलाने लगे कि जो हो हमलोग आपके साथ रहेगे।  फिर समय आया भरत मिलाप का। विदाई का वक्त ऐसा भारी पड़ा जैसे राम को जंगल छोड़ने के समय भरत पर भारी पड़ा हो। सचमुच हमसब भावुक हो गए थे। वे सब हमे छोड़ने वाले थे, यह विश्वास हो गया था फिर भी हम यहां से जल्दी निकल जाना चाहते थे। अब समय था जुदा होने का और इस समय मैं भावनाओं को रोक नहीं सका। विश्वास ही नहीं हो रहा था हमलोग जिन्दा  घर जानेवाले है। मैं रोने लगा। फूट फूट कर रोने लगा। और फिर सरदार से लिपट गया। वह भी भावों में बह गया। रोने लगा। फिर मनोज जी भी भावुक हो गए। हमलोग बारी बारी सबसे गले मिल लिए।
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हमलोग वहां से जाने लगे। थोड़ी दूर बढ़ा ही था कि ‘‘रूको’’ की आवाज सुनाई दी। फिर से डर गया। हमलोग रूके तो सरदार ने आकर कहा कि 
"उसके साथी आपके पैसे लेने के लिए कह रहे है। क्या करे वे लोग नहीं मान रहा। साला कमीना छोड़ने के लिए बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ है। मैं तो यह नहीं कर सकता इसलिए जो जेब में थोड़ी बहुत हो तो दे देंगें तो उनलोगों को तसल्ली हो जाएगी।"  फिर मनोज जी ने उपर की जेब से जो भी रखा था निकाल दे दिया। फिर उसने उनके घड़ी की तरफ ईसारा किया और उन्होने घड़ी  निकाल कर दे दिया। मैंने भी वहीं किया जो भी जेब में था, दे दिया। मनोज जी के उपरी जेब में चार सौ और मेरे पास सौ रूपये थे। दोनों वहां से निकल गए।  वहां से निकलने के बाद भी यकीं नहीं हो रहा था कि उन्हांेने हमें छोड़ दिया है। लगता रहा कि पीछे से आऐगें और गोली मार देगें। धुप्प अंधेरे में चलता जा रहा था। न रास्ते का पता चल रहा था, न किसी गांव का। रास्ते में कोई चीज खड़ी होती तो लगता वही लोग खड़े है।
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खैर करीब एक धंटा चलने के बाद कुत्तों के भौंकने से यह आभास हो गया कि आसपास एक गांव है और हमलोग उधर ही चल दिए। कुछ दूर चलने के बाद एक गांव मिला। हमलोग घरों का दरबाज खटखटाने लगे पर किसी ने दरबाजा नहीं खोला। पूरा गांव घूम गया। अंत में एक दालान पर कुछ लोग पुआल बिछा कर बाहर ही सो रहे थे। हमलोगों ने जगाया। अब उनलोगों ने जब पूछा कि कहां घर है, कहां से आए हो तो अकबका गया। नर्भस थे ही, कुछ बताना भी जरूरी था जिसपर उन्हें भरोसा हो जाए। बताया कि पटना से आ रहे थे रास्ते में नशाखुरानी का शिकार हो गया और फिर रेल से फेंक दिया गया और रात भर भटकते भटकते यहां पहूंच गया। रामा। ठंढ़ से देह थर्रथराने लगा। लगा जैसे रात भर की ठंढ अभी अभी सिमट आई है। पूरा देह बर्फ की सिल्ली की तरह जमने सा लगा था। दोनों वहीं पुआल पर बैठ गए। पैर में ठेहुंना तक कादो लगा हुआ था। लोगों ने पंडित जी कह कर घर वालों को जगाया। पंडित घर से निकले। गांव का नाम पूछा तो बताया गया, यह पटना जिले का बाढ़ थाना के अजगारा गांव है। बाढ़ का नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो गए। कुख्यात सरगना अनन्त सिंह का ईलाका। यहां तो दिन में भी मार कर फेंक देगा और पता नहीं चलेगा। 
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खैर, पंडित जी का पूरा परिवार जाग गया। बहुत अफसोस जताते हुए पंडित जी ने आश्रय दे दिया। ओढ़ने के लिए एक कंबल भी दे दी। रात के लगभग तीन बजे थे। अभी सुबह होने में एक-आध घंटे बाकी थे। पंडित जी की पत्नी ने चाय लाकर दिया और गर्म चाय ऐसे गले में उतर रही थी जैसे अमृत।  अजीब आफत है। रात भर नींद नहीं आई। लगता रहा कहीं से कोई आया और हमे पकड़ ले जाएगा। खैर, सुबह हो गई। बस पकड़ कर बाढ़ आ गया और फिर सबसे पहले घर पर टेलीफोन किया। जानता था सब परेशान होगें। फिर बाढ़ से बस पकड़ कर घर के लिए चल पड़ा। मनोज जी के पास पैसे थे। उन्होने बताया कि उनकी पिछली जेब में दो हजार रूपये थे जिसे उन्होने छुपा कर रखा था।  ओह, घर आया तो यहां का नजारा भी बदला बदला हुआ था। 
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कई तरह की चर्चाऐं हो रही थी पर कुछ दिल को दुखाने वाली बातें भी सामने आई। मैं अपने घर गया। पत्नी का बुरा हाल था। मुझसे लिपट कर रोने लगी।  देवा, कैसे कैसे दिन दिखाते हो। इस बीच कई बातों की जानकारी मिली। यह कि मेरा छोटा भाई बरूण को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने यह पता लगा लिया कि अपहरण करने वाला सरदार तोरा गांव का संजय यादव है। वह अपने साथियों के साथ संजय यादव के घर पर जा धमका और धमकाया। भैया को कुछ हुआ तो पूरे परिवार को खत्म कर देगें। फिर उसे वहां से छोड़ देने का आश्वासन मिला। और अन्त में दुख हुआ तो यह कि उस दिन के अखबार में दो कॉलम की खबर भर छपी थी पत्रकार का अपहरण। वह भी स्थानीय पत्रकार मित्रों के सहयोग से। अखबार के लिए यह और लोगों की तरह ही एक खबर भर थी। हाय रे। जिसे अपना समझ रहा था वही अपना नहीं।  खैर इस बीच साल दर साल बीतते गए और फिर बिहारशरीफ कोर्ट से नोटिस आया कि अपहरण कांड में गवाही देनी है। संजय यादव कई कंडों में पकड़ा गया था। दोनों ने जाकर गवाही दे दी कि संजय को नहीं जानता। अपना फर्ज निभाया। बहुत मंथन करता रहा कि गवाही दें की नहीं। पर संजय के व्यवहार और उससे किए गए वादों ने गवाही दिलबा दी।  वहीं पिछले चुनाव में संजय यादव पंचायत चुनाव में मुखिया के लिए चुनाव लड़ने की योजना बनाई और फिर अखबार में खबर छपी की सरमेरा में गोली मारकर उसकी हत्या कर दी गई। वहीँ मुख्य सरगना और बरुआने मुखिया की हत्या हो गयी.  आज तीस तारीख है और इस बात को याद करते हुए जिंदगी कई रंग दिखा देती है। अपराधियों का सच और जिंदगी की हकीकत, सबकुछ.... 

29 दिसंबर 2014

एक पत्रकार का अपहरण-(आपबीती)-1 पुरानी यादें / नए मित्रों के लिए ...

पुरानी यादें 30 दिसम्बर 2005 की वह काली शाम जब भी याद आती है मन सिहर जाता है। उस रात बार बार मौत ऐसे मुलाकात करके गई मानों रूठी हुई प्रेमिका को आगोश में लेने का प्रयास कोई करे और वह बार बार रूठ जाए।  समय करीब चार बजे थे। नालन्दा जिला के सरमेरा प्रखण्ड से प्रभात खबर अखबार के लिए रिर्पोटर तथा एजेंट खोजने गए थे। उस समय पत्रकारिता का नया नया जोश था, सो अखबर के अधिक से अधिक बिक्री हो इसके लिए अपने मित्र मनोज जी ने एजेंसी ली। उस समय अखबार लगभग लॉन्च ही हुई थी। यहां बिक्री नही ंके बराबर थी और इसीलिए जुनून में आकर मोटरसाईकिल पर धूम-धूम कर अखबार का ग्राहक बनाया, सुबह सुबह कई धरों में भी अखबार पहुंचाया। पूरे शेखपुरा जिला का एजेंसी लिया था सो अखबार की बिक्री बढ़ाने के लिए मेहनत कर रहा था। इसी सिलसिले में सरमेरा जाना हुआ। लौटते लौटते चार बज गए।  रास्ते भर आदतन हंसी मजाक करते हुए दोनों मित्र लौट रहे थे तभी तीन-चार किलोमीटर दूर जाने के बाद गोडडी गांव के पास मैने मोटरसाईकिल रोकने का आग्रह किया। लालू यादव के सरकार का अभी ताजा ताजा ही पतन हुआ था सो अपराधियों का आतंक और भय बरकरार था। मैंने कहा- ‘‘रोको जरी गड़िया, पेशाव कर लिऐ।’’ ‘‘घुत्त तोड़ा तो कुछ डर-भय नै हो, क्रिमनल के ईलाका है कहीं कोई अपहरण कर लेतो तब समझ में आ जाइतो।’’ ‘‘धुत्त छोड़ो ने, हमरा अर के, के अपहरण करतै, लपुझंगबा के।’’ और मोटरसाईकिल रोक दिया गया। हमदोनों फारीग हुए। उन दिनों बरबीघा-सरमेरा सड़क की हालत एक दम जर्जर थी। सड़क कम और गड्ढे ज्यादा थे। इसी वजह से बहुत कम बसें चलती थी। जैसे ही हमलोग मोटरसाईकिल पर चढ़ने लगे कि सेम कलर, सेम मोडल की एक मोटरसाईकिल पर दो लोग बगल से गुजरे। नंबर प्लेट पर मेरी नजर गई तो पंजाब नेशनल बैंक लिखा हुआ था। उस पर भी दो लोग सवार थे। ‘‘देखो, ऐकरा अर के  अपहरण करतै कि हम गरीबका के।’’-मैंने कहा और फिर वह मोटरसाईकिल मुझसे थोड़ी आगे निकल गई। मनोज जी ने  बताया कि यह सरमेरा पंजाब नेशनल बैंक का मैनेजर है। दोनों इसी चर्चा में मशगुल थे कि कैसे कोई इसका अपहरण नहीं करता। उन दिनों अपराधियों का बोलबाला था। कुख्यात डकैत कपिल यादव ने कुछ दिन पहले ही मेंहूस रोड में दो लोगों को बस उतार कर आंखें फोड़ दी थी।  खैर, हमदोनों निश्चिंत भाव से बोलते-बतियाते, हंसी मजाक करते हुए चले जा रहे थे। मैनेजर की मोटरसाईकिल आगे निकल गई। तभी अचानक तोड़ा गांव के पूल के पास  पहूंचते ही तीन-चार लोगों मोटरसाईकिल के आगे पिस्तौल तान कर खड़ा हो गए। हमदोनों कुछ समझ पाते कि तभी मनोज जी के सर पर पिस्तौल की बट से मारना प्रारंभ कर दिया। फिर दोनों मोटरसाईकिल से उतर गए। अभी तक किसी भी प्रकार के अनहोनी की आशंका नहीं थी। पर तभी दोनों को सड़क के नीचे खेतों में पिस्तौल की बट से मारते पीटते ले जाने लगे। पहले तो लगा कि शायद लूटरें हो, पर जब खेतों में कुछ दूर ले जाकर सवाल जबाब करने लगा तो हम दोनों समझ गए कि दोनों का अपहरण कर लिया गया... 
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फिर अपराधी दोनों को कुछ दूर खेतों में ले गए और पूछ ताछ करने लगे। उनमें से एक मनोज जी को गलियाने लगा।- ‘‘साला, बड़का मैनेजर बनता है, बैंक में लॉन लेने के लिए जाते है तो टहलाता है, बाबा बनता है, अब बताओ।" उसकी बातों से लगा कि वे पीएनबी बैंक का मैजेनर समझ कर दोनों का अपहरण किया है। यह बात भी समझ आ गई कि ये लोग मुझसे तुरंत पहले निकले मैनेजर का अपहरण करना चाहते थे पर एक ही रंग की गाड़ी दोने की वजह से कन्फयुज कर गए।  खैर, हमदोनों पहले अपना अपना परिचय दिये और बताया कि हम बैंक मैनेजर नहीं हैं पर उनको मेरी बातों पर यकीन नहीं हुआ। चुंकि मेरे मित्र बढ़िया जैकेट, घड़ी और चश्मा लगाए हुए थे सो उनको लगता था कि यह मैनेजर ही है। फिर वहां से थोड़ी दूर खंधा में हम दोनों को पैदल ले गया और एक उंचे अलंग के नीचे सब मिलकर बैठ गया। मैंने गौर किया कि चार तो मेरे साथ थे पर एक हमलोगों से थोड़ी दूरी बना कर चल रहा था। हमलोग अपने पत्रकार होने का परिचय भी दिया पर वे लोग मानने को तैयार नहीं थे। अब दोनों के पास कोई चारा नहीं था। मनोज जी कुछ बोलना चाहे तो फिर पिस्तौल की बट से मार दिया। वे नर्वस हो गए। पर मैं समझ गया कि ये लोग अपराधी है और अब धैर्य के अलाबा कोई चारा भी नहीं, सो मैं उनमें से एक, जो देखने में थोड़ समझदार और संस्कारी लगता था, बतियाने लगा। मैंने अपना पूरा परिचय सही सही दिया। उसके एक मित्र के बारे में भी बताया कि जो  अपराधी गतिविधियों में शामिल रहता था और मेरे गांव का था। उसने उसे पहचाना। धीरे धीरे अंधेरा घिरने लगा। सड़कों पर केवल गड़ियों के चलने की आवाज और लाइट दिखता था। दिसम्बर का महिना था और मैने केवल हॉफ स्वेटर पहन रखा था सो ठंढ़ से कंपकपाने गला। फिर सबने दोनों को चलने के लिए कहा। खंधा में खेते-खेते हमलोग चलते रहे। कहीं चना के खेत में बड़े बड़े मिट्टी के टुकड़ों पर चलना पड़ा तो कहीं बीच में गेंहू के पटवन किए खेत के कीचड़ से होकर गुजरना पड़ा। हमलोग लगातार तीन चार धंटा तक यूं ही चलते रहे। इस दर्दनाक और डरावने सफर में मुझे लगा की शायद अब दोनों का आज अंतिम दिन है। इस बीच मनोज जी थक गए और चलने से इंकार कर दिया। तभी उनमे से एक ने भद्दी-भद्दी गलियां देते हुए उनको मारने लगा। फिर सबने मिलकर आपस में बात की और कहा कि दोनों को खत्म कर दो, कहां ले जाते रहोगे। दो युवकों ने पिस्तौल तान दी। इसी बीच मैंने साहस का दामन नहीं छोड़ा और उसके सरदार की तरह लगने वाले युवक से बातचीत प्रारंभ कर दी। बहुत आरजू मिन्नत करने के बाद वह थोड़ा समझा और साथियों को रोक दिया। दोनों ने राहत की सांस ली। इसी बीच मनोज जी के पैर में बाधी (मांसपेसियों में खिंचाव ) लग गई और वह गिर गए। मैने झट उनके पैर को सहलाते हुए उनको सहारा दिया। अपराधियों को लग रहा था कि वह नकल कर रहे हैं। खैर मैने कंधे का सहारा दे उनको लेकर चलने लगा। बीहड़ माहौल। दूर कहीं कहीं किसी गांव के होने का अभाव कुत्तों के भौंकने की वजह से ही होती थी या कहीं कहीं किसी गांव में एक-आध लालटेन के जलने की वजह से। एक बात महसूस किया कि गांव से थोड़ी दूर पर ही होता था कि गांव में कुत्ते भौंकने लगते और फिर गांव का अभास मिलते ही अपराधी रास्त बदल देते।  सफर जारी था और बातचीत का सिलसिला भी। इसी बीच सरदार की तरह लगने वाला युवक बड़ा आत्मीय ढ़ग से बातचीत करने लगा। मनोज जी ने कहा- "जो हो, मारना हो तो मार दो।" हमलोग बस चलते ही जा रहे थे। बातचीत में युवक को मैंने कुरेदना प्रारंभ कर दिया।   मैंने कहा कि मैं पत्रकार होकर जुल्म के विरोध में ही आवाज उठाता रहा हूं और जानता हूं कि अपराधी मजबूर होकर ही अपराध करते है। मेरी बात उसे चुभ गई। फिर उसने अपनी दारून कथा सुनाई। कैसे रोजगार की तलाश में वह भटकता रहा। कैसे रोजगार के लिए बैंक से लॉन लेने के लिए वह लगातार बैंक का चक्कर लगाता रहा है और बैंक ने लॉन देने से मना कर दिया। मैनेजर तो मिलने तक को तैयार नहीं हुआ। बातें होती रही और हमलोग चलते रहे। फिर जब वे लोग थक गए तब जाकर एक स्थान पर बैठ गये। उस युवक ने मुझे थोड़ी दूर साथ चलने की बात कही। मैं सहम गया। शायद मुझे एकांत में लेजाकर मार देगा?   पर नहीं वह मुझसे मेरे मित्र के बारे में पूछने लगा। ‘‘लगो है इ कोई बड़का आदमी है? बता दे तो तोरा छोड़ देबौ।’’ उसने अब अपनी मगही भाषा का प्रयोग किया। देवा। मनोज जी मोटरसायकिल शो रूम के मालिक थे, इस लिहाज से यदि यह बात उसे पता लग जाती तो निश्चित ही वह उन्हें पकड़ के ही रख लेता। वह शातीर भी था जो मुझे छोड़ देने का प्रलोभन देने लगा। मैं उसे समझाता रहा है कि यह पटना से थक हार कर बरबीघा आ गए है और अखबार का एजेंट तथा पत्रकार है। वह मानने को तैयार नहीं हुआ और मेरी देस्ती की परीक्षा लेने लगा। देवा, दोस्ती बचाउं की जान.......... जारी है..

28 दिसंबर 2014

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज : भगत सिंह

(इस त्रासद समय में जब धार्मिक उन्माद यत्र, तत्र सर्वत्र है उस भगत सिंह को याद करना प्रासांगिक है जिसने भारत मां की खुशहाली के लिए हंसते हुए फांसी के फंदे को चूम लिया....पढ़िए भगत सिंह को .. )


भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों,हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है. बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था. जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है,जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं. बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.

यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं. सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था. आज बहुत ही गन्दा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो.
अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है. कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है. बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है. जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है.
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है. असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं. उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी. असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये. विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है. कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है. इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है.
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है. सच है, मरता क्या न करता. लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती. इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए.
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है. गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म,रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो. इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी.
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे. लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है. अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए. अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं. जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी. इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे. लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी.
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी. वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे. यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे. वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है.
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं. उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी. भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है. भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए. उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं.
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं. न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता. इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे.
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं. झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं.
यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है. धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें.
हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे.

16 दिसंबर 2014

गांव के बलात्कार पीडिता की आवाज क्यूँ नहीं उठाती मीडिया? (निर्भया कांड की बरसी पे)

निर्भया रेप कांड का आज मीडिया वाले फिर  बलात्कार का  बलात्कार करेंगे और  ऐसा मैट्रो सिटी  के  मामले में ही  होता है, गांव  के मामले में नहीं । पिछले  साल बिहार के शेखपुरा जिले के शेखोपुर थाना के ओनामा पंचायत के एक गांव में दस  साल की अबोध बच्ची से उसके बूढी दादी को बांध कर हुए सामूहिक बलात्कार के मामले  में पुलिस  ने बड़ी मुश्किल से fir दर्ज  किया और अपराधी की पहचान  नहीं हुयी । इस गम में उस बूढी दादी ने दम तोड़ दिया । उसके परिवार को गांव से भगा दिया और मीडिया में  यह छोटी सी खबर भर बनी । बस ... ऐसा क्यूँ?  

यह  भी सच है की मीडिया के  दबाब की वजह से ही रेप को लेकर कड़ा कानून बना जिसमे लड़कियों को  घूरने तक को गैरजमानती अपराघ बना दिया पर इसका असर बिलकुल ही देखने को नहीं मिलता ।  आज  छोटे से कस्बाई शहर में जो मैं देखता हूँ वह आक्रांत करने वाला है ।बदले  बिहार में आज बड़ी संख्या छात्राएं  स्कूल में पढाई  नहीं होने की  वजह से कोंचिग में पढ़ने जाती  है जहाँ रास्ते से  लेकर कोचिंग तक छात्राओं को स्त्री होने का दंश झेलना पड़ता है । फब्तियों औत गंदे कमेंट को नजर अंदाज़ कर वह आगे बढ़ जाती है. ऐसा क्यूँ होता ? 

आज  भी यदि किसी स्त्री के साथ बलात्कार होता है तो समाज का पहला प्रयास इस मामले को दबा देने का होता है ऐसा क्यूँ ? 
आज  भी परुष प्रधान समाज में स्त्री, लड़की के चरित्रहीन होने की चर्चा चटखारे के साथ होती है और बड़ी संख्या में इस चीरहरण में महिलाओं को भी शामिल देखा जाता है ! बहुत बड़े बुद्धिजीवी के पास भी किसी न किसी लड़की के छिनार होने के किस्से होते है और वह उसे ऐसे सुनाते है जैसे वहीँ मौजूद थे। आज भी जो  महिला थोड़ी जागरूक हो और साहस से अपने काम करती हो उसे समाज चरित्रहीन कहना प्रारंभ कर देता है ।  
ऐसा क्यूँ होता ?  

आज भी  बलात्कार पीड़ित महिला ही समाज की नजर में आरोपी होती  है और उस पीड़ित की इज्जत लुट जाती है । मुझे आज भी सत्यमेव जयते सीरियल याद  है जब सोशल  वर्कर महिला ने कहा की बलात्कार  के बाद जिस इज्जत के लुट जाने की बात समाज करता है, उस इज्जत  को महिला  के योनि ने किसने रखी, जो वहां से लुट गयी..!  इस कटाछ ने मेरे रोंगटे खड़े कर दिए थे पर सचाई  को जब तक हम नंगा नहीं करेंगे तब तक वह सच कैसा? आज  भी बलात्कार पीड़ित़ा ही समाज के कठघरे में आरोपी की तरह खड़ी होती है, ऐसा क्यूँ? 

 समाज  के इस  बिद्रूप चेहरे के साथ मुझे मीडिया भी खड़ा दिखता है, ऐसा क्यूँ... जबाब  तलाश रहा हूँ मैं..

14 दिसंबर 2014

फैंसी मैच जानबूझ कर हारना खेल भावना के साथ बलात्कार....


आज कॉलेज मैदान में जिला प्रशासन और नागरिक एकादश के बीच फैंसी क्रिकेट टुर्नामेंट का आयोजन हुआ जिसमें एक खिलाड़ी के रूप में मैं भी आमंत्रित था और खेलने गया भी। पच्चीस साल बाद मैं उसी मैदान में उतरा जहां कभी अपने गांव की आरे से कप्तान हुआ करता था पर उस समय मुझे आत्मग्लानी हुई जब एहसास हुआ की जिलाधिकारी, एसपी सहित अन्य अधिकारियों को जानबुझ कर जीतने का मौका दिया जा रहा है। 

इस बात की खबर मुझे तब लगी जब तीसरे या चौथे ऑवर में बहुत ही परिश्रम से मैने जिलाधिकारी का कैच पकड़ लिया पर एम्पायर ने उसे नो वॉल घोषित कर दिया तब भी मुझे इस बात की भनक नहीं लगी, खबर तब लगी जब थोड़ी देर में मेरे आयोजक मित्र ने कहा कि इस तरह का कैच नहीं पकड़ना है और जिला प्रशासन की टीम को जीतने देना..! जानकारी मिलते ही मैं मैदान छोड़ कर बाहर हो गया। सचमुच जिला प्रशासन की टीम की जीत हुई। सारे शिल्ड और पदक पदाधिकारियों के बीच वितरित कर दिया गया और चम्चागिरी की सारी सीमाओं को लांध दिया गया। बतौर खिलाड़ी मुझे भी पदक लेने बुलाया गया पर मैंने अपना विरोध दर्ज कराते हुए पदक ग्रहण नहीं किया।
निश्चित ही प्रशासन और नागरिक के बीच इस तरह का मैच एक सराहनीय पहल है जिसकी वजह से मैं भाग लिया पर जिस तरह से खेल भावना के साथ बलात्कार किया गया वह धोर निंदनीय है... और आज मैं आत्मग्लानी से भरा हुआ इस मौच का हिस्सा बनने पर अपने आप को कोस रहा हूं.....

04 दिसंबर 2014

घृणा, उग्रता, जाति-धर्म और हिंसात्मकता दिखती है सोशल मीडिया पर..

सोशल मीडिया वौज्ञानिकता का प्रतीक है पर आज यहां घृणा, जाति-धर्म और हिंसात्मकता ही दिखती है। रामजादे-हरामजादे और मरीच के रूप में घृणा के बोल निकल रहे है और उसके समर्थन में एक बड़ा वर्ग सामने आ रहा है। 

युवाओं के जहर बुझे बोल है, एक कौम विशेष के लिए आग बरस रही है। सेकूलर होने पर गाली दी जा रही है। यह भारत के लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। हमारा देश और इसका जनमानस सेकूलर है, (छद्म सेकूलर नहीं)  और आम आदमी सभी जाति और धर्म के लोगों के साथ मिलकर रहते है। उसी के साथ उठते-बैठते, हंसते-बोलते है। हां छद्म सेकूलरों ने इस छवि को धुमिल किया है, इससे भी सहमत हूं। 

अब सचमुच में लगने लगा है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनना भले ही विकास की नई रौशन ले कर आने वाली साबित होगी पर उसी रौशनी से कुछ लोग देश के सेकूलर छवि को जला देना चाहते है, आग लगा देना चाहते है। तब सच्चे सेकूलरों को आगे आकर इसका डटकर विरोध करना चाहिए, मैं अपना विरोध दर्ज कराता है। 

आज जब हम आधुनिक युग में जी रहे है वैसे में मानवता, आदमीय, प्रेम और भाईचारा से बढ़ कर कोई धर्म नहीं हो सकता, कोई धर्म नहीं...

01 दिसंबर 2014

हलवान पुष्पंजय बना बिहार टॉपर, ग्रामीणों ने किया अभिन्नदन।

बरबीघा / बिहार 
पहलवान पुष्पंजय कुमार उर्फ निखिल बिहार टॉपर पहलवान बन गया और गांव पहूंचते ही ग्रामीणों ने उसका जमकर अभिन्नदन किया। पुष्पंजय ने बिहार सरकार के कला, संस्कृति एवं युवा विभाग के द्वारा अन्तर प्रमण्डल स्कूल हैण्डबॉल एवं कुश्ती प्रतियोगिता के 69 किलोग्राम वजह में गोल्ड मेडल हासिल किया। इसका आयोजन 28 एवं 29 नवम्बर को पश्चिम चंपारण में किया गया था।

पुष्पंजय बरबीघा प्रखण्ड के शेरपर गांव निवासी राजनीति सिंह का पुत्र है। बरबीघा उच्च विद्यालय का छात्र पुष्पंजय कुश्ती में ही अपना कैयरियर बनाना चाहता है पर आर्थिक कमजोरी उसके सपने के आड़े आ रही है। पुष्पंजय ने कहा कि बचपन से ही वह कुश्ती के प्रति आक्रषित था और फिर गांव में कुश्ती लड़ते हुए उसने प्रमण्डलीय प्रतियोगिता में बढ़िया प्रदर्शन किया जिसके बाद बिहार के नामी पहलवान जयराम यादव की उसपे नजर पड़ी और उन्होने उसे कुश्ती को कैरीयर बनाने की प्रेरणा दी और पुलिस लाइन अखाड़ा में कुश्ती का प्रशिक्षण दिया जिसकी वजह से वह गोल्ड जीत सका।

पुष्पंजय के बिहार टॉपर पहलवान बनने पर ग्रामीण बबन सिंह , पुर्व वार्ड सदस्य रविशंकर सिंह कहते है कि इसने गंाव का ही नहीं पूरे बिहार का मान बढ़ाया है और बिहार सरकार यदि इसे विधिवत प्रशिक्षण दे तो यह नेशनल के साथ साथ ओलंपिक तक का सफर तय कर सकता है।
इसके अभिनन्दन समारोह में जयराम झा, कौशल कुमार, महेश्वर सिंह, शंकू कुमार सहित अन्य शामिल हुए।