17 जून 2019

जो लोग अपने मां—बाप को प्रेम दे पाते हैं, उन्हें ही मैं मनुष्य कहता हूं..

ओशो को पढ़िए
आपने कल माता और पिता के बारे में जो भी कहा, वह बहुत प्रिय था। माता—पिता बच्चों को प्रेम देते हैं, लेकिन बच्चे माता—पिता को प्रेम क्यों नहीं दे पाते हैं?

 —तीन बातें समझनी जरूरी हैं।

एक तो आपसे मैंने कहा कि अपने माता—पिता को प्रेम दें। प्रश्न जिन्होंने पूछा है, वे बच्चों से अपने लिए प्रेम मांग रहे हैं। वहीं भूल हो गई है।

सभी मां—बाप बच्चों से प्रेम मांगते हैं। आपके मां—बाप ने भी आपसे मांगा होगा और आप नहीं दे पाए। आप भी अपने बच्चों से मांग रहे हैं और प्रेम पाने की संभावना बहुत कम है। आपके बच्चे भी अपने बच्चों से मांगेंगे।

जो मैंने कहा था, वह कहा था बच्चों के लिए मां —बाप को प्रेम देने के लिए। मां—बाप बच्चों से प्रेम मांगें, इसके लिए नहीं। और प्रेम कभी मांगकर मिलता नहीं, और मांगकर मिल भी जाए, तो उसका कोई मूल्य नहीं है। जहां मांग पैदा होती है, वहीं प्रेम मर जाता है।

दूसरी बात, मां —बाप का प्रेम बच्चे के प्रति स्वाभाविक, सहज, प्राकृतिक है। जैसे नदी नीचे की तरफ बहती है, ऐसा प्रेम भी नीचे की तरफ बहता है। बच्चे का प्रेम मां—बाप के प्रति बडी अस्वाभाविक, बड़ी साधनागत घटना है। वह जैसे पानी को ऊपर चढाना हो।

तो गुरजिएफ का जो सूत्र था, वह यह था कि जो लोग अपने मां—बाप को प्रेम दे पाते हैं, उन्हें ही मैं मनुष्य कहता हूं; क्योंकि अति कठिन बात है।

सभी मां—बाप अपने बच्चों को प्रेम देते हैं, वह सहज बात है। उसके लिए मनुष्य होना भी जरूरी नहीं है, पशु भी उतना करते हैं। मां —बाप से बच्चे की तरफ प्रेम का बहना नदी का नीचे उतरना है। बच्चे मां—बाप को प्रेम दें,तो ऊर्ध्वगमन शुरू हुआ। अति कठिन बात है।

मां—बाप सोचते हैं, हम इतना प्रेम बच्चों को देते हैं, बच्चों से हमें प्रेम क्यों नहीं मिलता? सीधी—सी बात उनकी स्मृति में नहीं है। उनका अपने मां—बाप के प्रति कैसा संबंध रहा? और अगर आप अपने मां—बाप को प्रेम नहीं दे पाए, तो आपके बच्चे भी कैसे दे पाएंगे?और जैसा आप अपने बच्चों को दे रहे हैं,आपके बच्चे भी उनके बच्चों को देंगे, आपको क्यों देंगे?

यह प्राकृतिक पशु .में भी हो जाता है। इसलिए मां—बाप इसमें बहुत गौरव अनुभव भ करें कि वे बच्चों को प्रेम करते हैं। यह सीधी स्वाभाविक, प्राकृतिक घटना है। मां—बाप बच्चों को प्रेम न करें, तो अप्राकृतिक घटना होगी। बच्चे मां—बाप को प्रेम करें, तो अस्वाभाविक घटना घटती है, बहुत बहुमूल्य। क्योंकि वहां प्रेम प्रकृति के चक्र से मुक्त हो जाता है, वहां प्रेम सचेतन हो जाता है।

इसलिए सभी प्राचीन संस्कृतियां माता—पिता के लिए परम आदर का स्थापन करती हैं। और इसे सिखाना होता है। इसके संस्कार डालने होते हैं। इसके लिए पूरी संस्कृति का वातावरण चाहिए, पूरी हवा चाहिए, जहां कि यह ऊपर की तरफ उड़ना आसान हो सके।

नीचे की तरफ उतरने में कुछ भी गौरव—गरिमा नहीं है। कठिन और भी है। जब एक बच्चा पैदा होता है, तो बच्चा तो निर्दोष होता है,सरल होता है। और बड़ी बात है—वही उसका गुण है, जिसकी वजह से आपका प्रेम उसकी तरफ बहता है—असहाय होता है, हेल्पलेस होता है। असहाय को प्रेम देने में आपके अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। असहाय को बड़ा करने में आपको बड़ा रस आता है। फिर बच्चा निर्दोष होता है। उसको घृणा करने का तो कोई उपाय भी नहीं। उस पर कठोर होने में आपको मूढ़ता मालूम पड़ेगी।

पर जैसे—जैसे बच्चा बडा होता है, वैसे—वैसे आपका प्रेम सूखने लगता है; वैसे—वैसे आप कठोर होने लगते हैं! जैसे—जैसे बच्चा अपने पैरों पर खडा होने लगता है, वैसे—वैसे आप और बच्चे के बीच खाई बढ़ने लगती है। क्योंकि अब बच्चा असहाय नहीं है। और अब बच्चे का भी अहंकार पैदा हो रहा है। अब बच्चा भी संघर्ष करेगा, प्रतिरोध करेगा, बगावत करेगा, लड़ेगा। अब उसकी जिद्द और उसका हठ पैदा हो रहा है। उससे आपके अहंकार को चोट पहुंचनी शुरू होगी।

नवजात बच्चे को प्रेम करना बड़ा सरल है। लेकिन जैसे ही बच्चा बड़ा होना शुरू होता है, प्रेम करना मुश्किल, कठिन होने लगता है।

ठीक इससे उलटी बात खयाल में रखें कि बच्चे के लिए आपको प्रेम करना बहुत कठिन है, घृणा करना सरल है। क्योंकि आप शक्तिशाली हैं। और निर्बल हमेशा शक्तिशाली को घृणा करेगा। शक्तिशाली दया बता सकता है निर्बल के प्रति, लेकिन निर्बल को दया बताने का तो कोई उपाय नहीं है। निर्बल शक्तिशाली को घृणा करेगा।

बच्चा अनुभव करता है, असहाय है और आप शक्तिशाली हैं। बच्चा अनुभव करता है,वह परतंत्र है और सारी शक्ति, सारी परतंत्रता का जाल आपके हाथ में है। जैसे ही बच्चे का अहंकार बड़ा होगा—बड़ा होगा ही, क्योंकि वही गति है जीवन की—जैसे ही बच्चा सजग होगा और समझेगा मैं हूं, वैसे ही आपके साथ संघर्ष शुरू होगा।

आप चाहेंगे आज्ञा माने, और बच्चा चाहेगा कि आशा तोड़े। क्योंकि आज्ञा मनवाने में आपके अहंकार की तृप्ति है और आशा तोड्ने में उसके अहंकार की तृप्ति है। और बच्चे के मन में आपके लिए घृणा होगी, और आपका प्रेम सिर्फ जालसाजी मालूम होगी। क्योंकि प्रेम के नाम पर आप बच्चे का शोषण कर रहे हैं,ऐसा बच्चे को प्रतीत होगा। और सौ में नब्बे मौके पर बच्चा गलती में भी नहीं है। प्रेम के नाम पर यही हो रहा है।

यह सारी घृणा बच्चे में इकट्ठी होगी। अगर बच्चा लड़का है, तो पिता के प्रति घृणा इकट्ठी होगी, अगर लड़की है, तो मां के प्रति घृणा इकट्ठी होगी। कोई बेटा अपने बाप को आदर नहीं कर पाता। आदर करना पड़ता है,मजबूरी है, लेकिन भीतर से बगावत करना चाहता है। कोई लड़की अपनी मां को प्रेम नहीं कर पाती। दिखलाती है, वह शिष्टाचार है। लेकिन भीतर ईर्ष्या, जलन और संघर्ष है। इसलिए गुरजिएफ की बात मूल्यवान है कि जो व्यक्ति अपने मां—बाप को प्रेम कर पाए, उसे ही मैं मनुष्य कहता हूं। क्योंकि यह बड़ी कठिन यात्रा है।

इसलिए आप अगर अपने बच्चों को प्रेम करते हैं, तो बहुत गौरव मत मान लेना। सभी अपने बच्चों को प्रेम करते हैं, आपके बच्चे भी करेंगे। इसमें कोई विशेषता नहीं है। लेकिन अगर आप अपने मां—बाप के प्रति आदर करते हैं, प्रेम करते हैं, सम्मान रखते हैं, तो जरूर गौरव की बात है, जरूर महत्वपूर्ण बात है। क्योंकि यह एक चेतनागत उपलब्धि है। और यह तब ही हो सकती है, जब आप मूल के प्रति श्रद्धा से भर जाएं।

अन्यथा हर बेटे को ऐसा लगता है कि बाप मूढ़ है। और जैसे—जैसे आधुनिक विकास हुआ है शिक्षा का, वैसे—वैसे यह प्रतीति और गहरी होने लगी है।

शायद बाप उतना पढ़ा—लिखा न हो,जितना बेटा पढ़ा—लिखा है। बाप बहुत—सी बातें नहीं भी जानता है, जो बेटा जान सकता है। रोज शान विकसित हो रहा है। इसलिए बाप का ज्ञान तो पिछड़ा हो जाता है; आउट आफ डेट हो जाता है।

तो बेटे के मन में स्वभाविक हो सकता है कि बाप कुछ भी नहीं जानता। श्रद्धा कैसे पैदा हो? श्रद्धा किन्हीं तथ्यों पर आधारित नहीं हो सकती। श्रद्धा तो सिर्फ इस बात पर आधारित हो सकती है कि पिता उदगम है, स्रोत है; और जहां से मैं आया हूं, उससे पार जाने का कोई उपाय नहीं। मैं कितना ही जान लूं, मैं कितना ही बड़ा हो जाऊं अपनी आंखों में, मेरा अहंकार कितना ही प्रतिष्ठित हो जाए, लेकिन फिर भी मूल और उदगम के सामने मुझे नत होना है। क्योंकि कोई भी अपने उदगम से ऊपर नहीं जा सकता।

कोई वृक्ष अपने बीज से ज्यादा नहीं होता। हो भी नहीं सकता। बीज में पूरा वृक्ष छिपा है। कितना ही विराट वृक्ष हो जाए वह छोटे—से बीज में छिपा है। और उससे अन्यथा होने की कोई नियति नहीं है। और अंतिम फल जो होगा वृक्ष का, वह यह होगा कि उन्हीं बीजों को वह फिर पुन: पैदा कर जाए।

उदगम से आप कभी बड़े नहीं हो सकते। मूल से कभी विकास बड़ा नहीं हो सकता। वृक्ष कभी बीज से बड़ा नहीं है, कितना ही बडा दिखाई पड़े। इस अस्तित्वगत घटना की गहरी प्रतीति माता—पिता के प्रति आदर से भर सकती है।

लेकिन आप माता—पिता की तरह इसको मत सुनना, इसको बेटे और बेटी की तरह सुनना। यह आपके माता—पिता के प्रति आपकी श्रद्धा के लिए कह रहा हूं। अब जाकर अपने घर में आप अपने बच्चों से श्रद्धा मत मांगने लगना। क्योंकि तब आप बात समझे ही नहीं, चूक ही गए।

और जिस समाज में भी माता—पिता के प्रति श्रद्धा कम हो जाएगी, उस समाज में ईश्वर का भाव खो जाता है। क्योंकि ईश्वर आदि उदगम है। वह परम स्रोत है।

अगर आप अपने बाप से आगे चले गए हैं तीस साल में, आपके और बाप के बीच अगर तीस साल की उम्र का फासला है, आप इतने आगे चले गए हैं बाप से, तो परम पिता से,परमेश्वर से तो आप बहुत आगे चले गए होंगे। अरबों—खरबों वर्ष का फासला है। अगर परमात्मा मिल जाए, तो वह बिलकुल महाजड़,महामूढ़ मालूम पड़ेगा। जब पिता ही मूड मालूम पड़ता है, अगर परमात्मा से आपका मिलन हो,तो वह तो आपको मनुष्य भी मालूम नहीं पड़ेगा।

पीछे की ओर, मूल की ओर, उदगम की ओर सम्मान का बोध अत्यंत विचार और विवेक की निष्पत्ति है। वह प्रकृति से नहीं मिलती। विमर्श, चिंतन, ध्यान से उपलब्ध होती है।

पर ध्यान रखना, जो भी मैं कह रहा हूं वह आपसे बेटे और बेटियों की तरह कह रहा हूं पिता और माता की तरह नहीं।

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-06-2019) को "बरसे न बदरा" (चर्चा अंक- 3370) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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