देखना तुम
ये घर मैं बना रही हूँ
इंट-गारे के साथ
अपना पसीना मिला रही हूँ..
बताउंगी किसी अपने को
की ये जो दूर से चमक रहा है
इस घर को मैंने बनाया है...
चाँद सिक्के दे
भले ही तुम भूल जाओ मुझे बाबू
पर मैं हमेशा याद रखूगी इस घर को...
(मित्र के बन रहे मकान पे काम करती इस मजदूरनी को देख मुझे लगा की वह यही कह रही है....)
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (07.03.2014) को "साधना का उत्तंग शिखर (चर्चा अंक-१५४४)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें, वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंBahut achha
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर .
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : पंचतंत्र बनाम ईसप की कथाएँ
सही है
जवाब देंहटाएंसटीक उदगार ...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST - पुरानी होली.
सीख देती कविता !
जवाब देंहटाएंइसे कहते हैं सृजन का सुख...
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