28 दिसंबर 2012

एक पत्रकार का अपहरण (आपबीती)---3


दिसम्बर की सर्द रात को कोहरे ने अपने आगोश में ले लिया था और हमारे प्राण को अपराधियों ने अपने आगोश में। जिंदगी और दोस्ती की बाजी में मैंने जिंदगी को दांव पर लगा दिया। मैं उसे यह समझाता रहा है कि हमलोग पत्रकार है और हमारा अपहरण करने से कोई फायदा नहीं होगा। जान भी मार दोगे तो क्या मिलेगा? फिर बॉस ने अपने एक साथी को बुलाकर आदेश दिया। 
‘‘चलो काम खत्म करो यार, कहां ढोते रहोगे। खत्म करदो यहीं।’’ देशी पिस्तौल की ठंढी नली कनपटी पर आकर सटी तो मेरे जैसे अर्ध-आस्तिक के पास भी ईश्वर को याद करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। हे भोला। जीवन के अच्छे-बुरे कर्म तरेंगन की तरह आंखांे के आगे नाचने लगे। बुरे कर्मों को अच्छे कर्मों से संतुलित करने लगा पर पलड़ा बुरा का आज शायद भारी था इसलिए तो मौत सामने खड़ी थी और मैं जिंदगी से हिसाब किताब कर रहा था। खुद के बारे में सोंचने लगा। परिवार का क्या होगा? किसी का सहारा भी तो नहीं। एक छोटा भाई है बस। किसी तरह की जमा पूंजी तक नहीं। ईश्वर को याद करता हुआ उनसे बतियाने लगा। जैसे कि वह सामने हो और सब कुछ उनकी मर्जी से हो रहा हो। अपने अच्छे कर्माें की दुहाई भी देता तब बुरे कर्म सामने आ जाता। देवा। शायद मौत के आगोश में ही जिंदगी की हकीकत सामने आती है। गीता का वचन, कर्म प्रधान विश्वकरि राखा याद आने लगा। कोई जैसे पूछ रहा था 
‘‘बताओ क्या किया इतने दिनो’’ और मैं जबाब दे रहा है। इसी तर्क वितर्क में कट की आवाज ने बुरे कर्म की प्रधाना बता दी, गया, पर नहीं, यह पिस्तौल के बोल्ट के चढ़ाने की आवाज थी।
‘‘रूको’’, बॉस की यह आवाज जैसे ईश्वर का आदेश हो। ‘‘चलो इसको लेकर चलते है।’’ सफर फिर से प्रारंभ हो गया। सर्दी की यह कंपकंपा देने वाली रात आज डरावनी नहीं लग रही थी और न ही अब मौत का डर लग रहा था। पता नहीं क्यों मौत की आगोश में होने के बाद उसका डर खत्म सा हो गया था या यूं कहें कि सोंच लिया था कि जब मरना ही है तो मरेगे, पर मैंने जिंदगी का दामन नहीं छोड़ा। ऐसे समय में आचार्य रजनीश की बातें याद आने लगी। 
‘‘मौत तो सुनिश्चित समय पर एक बार आनी तय है इसलिए उसके भय से बार बार नहीं मरना।’’
और मैं फिर मौत से बतियाने लगा।
‘‘काहे ले हमरा अर के मारे ले कैलो हो, जिंदा रहबो त कामे देबो।’’ मैं समझाने के विचार से बोला।
‘‘की काम देमहीं।’’
बातचीत प्रारंभ, मैं यह समझाने की प्रयास करने में सफल हो रहा था कि हमलोग समाज से तुम्हारी तरह ही लड़तें है। अन्याय का विरोध करते है। सफर में बातचीत का सिलसिला चलते चलते लगा जैसे दो मित्र आपस में बात कर रहे हो। मैं मनोविज्ञान के लिहाज से उसका आत्मीय होने का प्रयास करने लगा। फिर एकएका मुझे कंपकंपी लगने लगी। हाफ स्वेटर पर ठंढ बर्दास्त नहीं हो रही थी औंर मैं कंपाने लगा। तभी मेरे देह पर एक चादर आ कर रखा गया। 
‘‘ ला ओढ़ो, हम कोट पहनले हिए।’’ बॉस से युवक ने अपने देह से चादर उतार कर मेरे देह रखते हुए कहा। देवा। मौत को भी संवेदना होती है? और बोलते बतियाते हमलोग चलते रहे। इस बीच सभी का व्यवहार अब पहले जैसा नहीं रहा, थोड़ आत्मीय हो गया। रास्ते में कहीं झाड, तो उंचे उंचे टीले मिले। हमलोग चलते जा रहे थे। तभी रास्ते में बड़ी सी नदी मिली। सब मिलकर पार करने की सोंचने लगे। ‘‘पानी अधिक नहीं है पार हो जाएगें।’’ एक ने प्रवेश कर देखते हुए कहा। फिर जुत्ता, मौजा हाथ में और हमलोग पानी मे। 
नदी में पानी कम और कीचड़ ज्यादा दी। भर ठेहूना कीचड़ में धंसता हुआ जा थे। उस पार दूर एक गांव के होने का आभास हुआ। कुत्तों ने भौंकना प्रारंभ कर दिया था। थोड़ी ही दूर चलने पर नदी के अलंग पर ही एक धान का खलिहान मिला। हमलोग वहीं बैठ गए। कारण हमलोगों से ज्यादा उसमें से एक की हालत ठंढ से ज्यादा खराब थी। सब लोग वहीं बैठ गए। आलम यह कि उपरी तौर पर हमलोग आपस में धुलमिल गए थे। बोल-बतिया ऐसे रहे थे जैसे वर्षों पुराना मित्र। उनलोगों को विश्वास में ले लिया कि यदि मुझे छोड़ दिया तो किसी प्रकार का खतरा नहीं होगा। पुलिस को भी कुछ नहीं बताएगे।
फिर उसमें से एक ने मचिस निकाली और नेबारी लहका दिया। सब मिलकर आग तापने लगे। फिर थोड़ी देर के बाद बॉस ने कहा कि चलो मुखिया जी से चलकर आदेश ले लेते है कि क्या करना है, मारना है कि छोड़ना है। और फिर दो साथी उस गांव की ओर चल दिए जिधर से कुत्तांे के भौंकने की आवाज आ रही थी। दो ने अपने हाथ में पिस्तौल निकाल लिया, 
‘‘कोई होशियारी नै करे के, नै ता जान यहां चल जइतो।’’
‘‘नै नै होशियारी की, जे तोरा करे के हो करो, हमरा ले भगवान तोंही हा, मारे को मारो, जियाबे के हो जियाबो।’’
फिर धीरे धीरे आग लहकता रहा और सबकी आंखों में नींद नाचने गली। दोनों अपराधियों को नींद ने अपने आगोश में ले लिया। एक की पिस्तौल वहीं रखी हुई थी। पर मैं बेचैन हो रहा था। मेरे मन में यहां से भागने का ख्याल आने गला। पिस्तौल को अपने कब्जे में लेकर यहां से भाग सकते है? पर मेरे मन की यह बात यहीं दबी रह गई। मेरे मित्र मनोज जी के खर्राटे की आवाज ने मेरे अरमानों पर पानी फेर दिया। यदि मैं भागने की या इनको जगाने की कोशीश करता हूं तो यह लोग भी जाग जाएगें और फिर खेल खत्म.....

अंतिम कड़ी 30 दिसम्बर को.....

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति,
    जारी रहिये,
    बधाई !!

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