प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप
ऐसा समझो—
सम्प्रदाय अतीत है, धर्म वर्तमान है। इसलिए जब भी कोई धार्मिक व्यक्ति पैदा होगा, सम्प्रदाय से संघर्ष निश्चित है। होगा ही। सम्प्रदाय यानी हिरण्यकश्यप; धर्म यानी प्रह्लाद। निश्चित ही हिरण्यकश्यप शक्तिशाली है, प्रतिष्ठित है। सब ताकत उसके हाथ में है। प्रह्लाद की सामर्थ्य क्या है? नया-नया उगा अंकुर है। कोमल अंकुर है। सारी शक्ति तो अतीत की है, वर्तमान तो अभी-अभी आया है, ताजा-ताजा है। बल क्या है वर्तमान का? पर मजा यही है कि वर्तमान जीतेगा और अतीत हारेगा; क्योंकि वर्तमान जीवन्तता है और अतीत मौत है।
हिरण्यकश्यप के पास सब था—फौज-फांटे थे, पहाड़-पर्वत थे। वह जो चाहता, करता। जो चाहा उसने करने की कोशिश भी की, फिर भी हारता गया। शक्ति नहीं जीतती, जीवन जीतता है। प्रतिष्ठा नहीं जीतती, सत्य जीतता है। सम्प्रदाय पुराने हैं।
नास्तिकता में ही आस्तिक पैदा होगा। तुम सभी नास्तिक हो। हिरण्यकश्यप बाहर नहीं है, न ही प्रह्लाद बाहर है। हिरण्यकश्यप और प्रह्लाद दो नहीं हैं—प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटनेवाली दो घटनाएं हैं। जब तक तुम्हारे मन में सन्देह है—हिरण्यकश्यप है—तब तक तुम्हारे भीतर उठते श्रद्धा के अंकुरों को तुम पहाड़ों से गिराओगे, पत्थरों से दबाओगे, पानी में डुबाओगे, आग में जलाओगे—लेकिन तुम जला न पाओगे। उनको जलाने की कोशिश में तुम्हारे ही हाथ जल जाएंगे।
— *ओशो*
भक्ति—सूत्र, प्रवचन 16 से संकलित (प्रस्तुति अरुण साथी)
*होलिका की हार्दिक शुभकामनाएं*
शुभकामनाएं आपके साथ दोनों को प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप को भी
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