20 अप्रैल 2025

चिराग पासवान: जीरो बटा सन्नाटा

चिराग पासवान: जीरो बटा सन्नाटा

सबसे पहले चिराग पासवान हमारे सांसद 10 वर्ष तक रहे हैं। मेरे जिला शेखपुरा में उनके नाम जीरो उपलब्धि है। यहां तक की आम आदमी से जुड़ने की पहल भी उनके द्वारा कभी दिखाई नहीं पड़ी। 
बिहार फर्स्ट और बिहारी फर्स्ट का नारा जब चिराग पासवान ने दिया, तो वह केवल एक नारा ही रह गया। 

उस नारे के आगे, पीछे किसी प्रकार का कोई विजन अभी तक सामने नहीं आया है। 

बिहार फर्स्ट , बिहारी फर्स्ट के लिए उनके द्वारा कोई बड़ा कृत भी नहीं किया गया। हाँ, मीडिया में लच्छेदार बातों को रखने की कला में हुए सिद्ध हस्त हैं। 

बिहार में अब उन्होंने अपनी सक्रियता बढ़ाने की बात कह कर एक बार फिर से राजनीति में हलचल मचा दी है। खासकर एनडीए की राजनीति में। 

पिछले विधानसभा में हनुमान की बात कह कर उन्होंने नीतीश कुमार की पार्टी को बैक फुट पर ला दिया था। 

चिराग पासवान के जनाधार की यदि बात करें तो उनका स्वजातीय जनाधार उनके साथ निश्चित रूप से है और यह सब उनके पिता, स्वर्गीय रामविलास पासवान जी की कीर्ति की वजह से है। कर्मों की वजह से है। इसमें चिराग पासवान का शून्य योगदान है। उधर, राजनीति में पार्टी का टूटना और परिवारिक लड़ाई भी चिराग पासवान के नकारात्मक पहला का प्रमाण है।  

इस बात का अनुभूति हर किसी को है कि चिराग पासवान स्टारडम के सहारे राजनीति में अभिनय कला का जबरदस्त प्रदर्शन करते हैं। 

पहले भी इस बात पर चर्चा की गई है कि चिराग पासवान के पास राजनीतिक महत्वाकांक्षा अति प्रबल है, परंतु जन सरोकार और संवेदनशील संबंध के मामले में वह शून्य हैं।  

बाकि राजनीति संभावनाओं का खेल  है... देखिये.. 

18 अप्रैल 2025

बक्फ बोर्ड: दिल्ली से मुर्शिदाबाद तक



बक्फ बोर्ड: दिल्ली से मुर्शिदाबाद तक


अरुण साथी

बक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक को लेकर देश के एक वर्ग में तीव्र विरोध देखने को मिल रहा है। इसके राजनीतिक, संवैधानिक, कानूनी और धार्मिक आयामों पर सभी के अपने-अपने दृष्टिकोण हैं। कहीं तर्क हैं, तो कहीं कुतर्क। निरपेक्षता के साथ किसी बात को रखने की संभावनाएं लगातार कम होती जा रही हैं। ऐसे समय में सामाजिक और धार्मिक पहलुओं को आम आदमी के नजरिए से समझना आवश्यक हो जाता है।
2014 के बाद से देश के मुसलमानों और कट्टर मोदी विरोधियों की ओर से किसी भी विषय पर तटस्थ विचार नहीं आता। वे न तो इस आधार पर समर्थन करते हैं कि कुछ अच्छा हो रहा है, न ही इस आधार पर विरोध करते हैं कि कुछ गलत है। केवल इस कारण से विरोध या समर्थन होता है कि वह कदम नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा उठाया गया है। किसान बिल, तीन तलाक, सीएए आदि इसके उदाहरण हैं।

अब जब केंद्र सरकार ने संसद में बहुमत के साथ बक्फ कानून में संशोधन प्रस्तुत किया है, तो विरोध भी उसी पैटर्न पर सामने आया है। विरोध की तीव्रता मुर्शिदाबाद में हुए दंगों में दिखती है, और उतनी ही प्रमुखता से इस पर मोदी विरोधी वर्ग की चुप्पी या 'किंतु–परंतु' के साथ बात रखने की प्रवृत्ति भी।

सोशल मीडिया के इस युग में 'कथित क्रांतिजीवी' इसलिए पोस्ट करते हैं कि उनके दर्शक क्या पसंद करेंगे, न कि इसलिए कि उसमें सत्य है। यह प्रवृत्ति दोनों पक्षों में है। उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने बक्फ बोर्ड को लेकर जो टिप्पणियाँ कीं, उसे कुछ लोगों ने संशोधन विधेयक पर रोक (स्टे) के रूप में प्रचारित किया, जबकि वास्तविकता यह नहीं थी।

बिल की तकनीकी और कानूनी व्याख्या विशेषज्ञों पर छोड़ दें। चर्चा सामाजिक और धार्मिक पहलुओं की होनी चाहिए।

शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटना तुष्टिकरण की पराकाष्ठा था। दुर्भाग्यवश, वर्तमान सरकार ने भी इसी राह पर चलते हुए अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर वही गलती दोहराई। वोट बैंक के लिए किया गया यह निर्णय भी समाज के लिए हानिकारक रहा।

सामाजिक और धार्मिक सुधार के लिए कठोर कानूनों की आवश्यकता होती है। अंग्रेजी राज में भी सती प्रथा जैसी राक्षसी प्रथा को खत्म करने के लिए कड़ा रुख अपनाया गया, जिससे बड़ा सामाजिक बदलाव संभव हुआ।

बक्फ संशोधन का विरोध मुसलमानों के बौद्धिक वर्ग द्वारा एक स्वर में हो रहा है, कुछ अपवादों को छोड़कर। झारखंड के एक विधायक ने यहाँ तक कह दिया कि "शरियत संविधान से ऊपर है।" जब दूसरे मुद्दे होते हैं, तब संविधान सर्वोच्च होता है, पर जब बात अपने धर्म की आती है तो शरियत आगे...!

बक्फ कानून को एक शेर के माध्यम से समझिए—

"मेरा क़ातिल ही मेरा मुंशीफ़ है,
क्या मेरे हक में फैसला देगा...?"

सरकार ने संशोधन में 'मुंशीफ़' यानी सदस्य
को स्वतंत्र रखने का प्रावधान किया है। यही बात असहनीय बन गई है।

यह भी समझना चाहिए कि हिन्दुओं के मठ, मंदिर, गौशाला जैसी संस्थाओं पर पहले से ही सरकार का सीधा नियंत्रण है। इनकी जमीनों की सुरक्षा के लिए यह जरूरी भी है। देश के किसी गांव, टोले, शहर में शायद ही ऐसा कोई स्थान हो जहां मठ, मंदिर की जमीन को लेकर संघर्ष न हुआ हो। कई जगह हत्याएं तक हुईं। मेरे अपने क्षेत्र—शेखपुरा और बरबीघा में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं। कई मामले अभी भी हाईकोर्ट में विचाराधीन हैं।

कई मठाधीशों ने दान की गई जमीनें औने-पौने दाम पर माफियाओं को बेच दीं। ऐसे में धार्मिक न्यास बोर्ड जैसे संस्थानों का गठन कर सरकार ने नियंत्रण स्थापित किया। इसमें सेवानिवृत्त अधिकारियों को अध्यक्ष नियुक्त किया गया। बिहार में आचार्य किशोर कुणाल जैसे संत इसके अध्यक्ष रहे हैं।

यहाँ तक कि इस बोर्ड का अध्यक्ष किसी भी धर्म का हो सकता है। अभी हाल ही में बिहार धार्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष एक जैन धर्मावलंबी थे।

मठ, मंदिर और गौशाला समितियों का पदेन अध्यक्ष स्थानीय अनुमंडल पदाधिकारी (SDO) होते हैं, जो किसी भी धर्म के हो सकते हैं—यहाँ तक कि मुसलमान भी। और कई स्थानों पर हैं भी।

सोचिए, क्या इस बदलाव को लेकर कभी हिन्दुओं ने बवाल किया? नहीं। उन्होंने इसे सहजता से स्वीकार किया।

बस, यही अपेक्षा मुसलमान समाज से भी की जाती है कि वे भी सामाजिक और धार्मिक बदलावों को उतनी ही सहजता और उदारता से स्वीकार करें। बस.. 


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12 अप्रैल 2025

प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार: बिहार की राजनीति के दो दृश्य


प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार: बिहार की राजनीति के दो दृश्य

प्रशांत किशोर को लेकर पहले भी कहा था—अखाड़े के बाहर से पहलवान को लड़वाना और अखाड़े में उतरकर खुद पहलवानी करना, ये दो अलग-अलग बातें हैं। अखाड़ा में पहलवान की जीत होती है। 

गांधी मैदान की रैली में प्रशांत किशोर दूसरी बार असफल रहे। उनका चार घंटे देर से आना और झुंझलाकर आठ मिनट में चले जाना, इस असफलता का ही संकेत था।
असफल इस लिए कि जितनी तैयारी थी, उतने लोग नहीं आये। और तैयारी इतनी हुई कैसे..? हवा हवाई नेताओं ने भरोसा दिया होगा। 

उधर, कन्हैया कुमार ने दम दिखाया। मुख्यमंत्री आवास घेराव का आंदोलन लगभग सफल रहा। "लगभग" इसलिए कि कांग्रेस की अंदरूनी कमजोरी अब भी जस की तस है—एक ओर लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को अपनी राजनीति में समाहित कर लिया है, दूसरी ओर कांग्रेस के नेता अब भी सत्ता सुख के आदि हैं, संघर्ष और सड़कों पर उतरना उनकी राजनीति का हिस्सा अब नहीं रहा।
अब फिर प्रशांत किशोर पर लौटते हैं। गांधी मैदान की रैली की असफलता दरअसल प्रशांत किशोर की असफलता है। सबसे बड़ी बात यह कि वे एक 'कंपनी मॉडल' के सहारे बिहार की राजनीति बदलना चाहते हैं, जबकि बिहार की राजनीति जमीनी हकीकत से चलती है, कॉर्पोरेट स्ट्रैटजी से नहीं। वे अपनी कंपनी के कर्मचारियों के भरोसे बदलाव की बात कर रहे हैं, जो शायद ही संभव है।
प्रशांत किशोर को एक 'मास्टर स्ट्रैटजिस्ट' कहा जाता है, पर यह समझ से परे है कि रणनीति का यह कैसा मॉडल है, जहां उनकी कंपनी के लोग मुझे खुद पटना कवरेज के लिए बुलाने लगे। मैंने उन्हें फटकार लगाई—कंपनी को ज़मीनी सच्चाई की ज़रा भी समझ नहीं!

रैली की नाकामी एक और बात साफ करती है—प्रशांत द्वारा आयातित, अतिमहत्वाकांक्षी नेताओं की पोल खुल गई है। एक विधानसभा सीट पर दो दर्जन उम्मीदवार, सभी धनाढ्य, सभी टिकट के दावेदार। सभी एक दूसरे को गिरा कर ही टिकट पाने की दौड़ में है। 

और टिकट न मिलने पर वही उम्मीदवार निर्दलीय बनकर पार्टी को ही हराने पर आमादा!


 यही हाल है। प्रशांत किशोर सोशल मीडिया मैनेजमेंट में माहिर माने जाते हैं, लेकिन जब खुद पर बात आई, तो वह भी फेल हो गया। रैली से पहले ही सुबह से कई दिग्गज मीडिया के खिलाडी इसे फ्लॉप बता रहे थे—कारण सबको पता है। मैनेजमेंट..! ऐसे में सवाल उठता है: क्या वाकई सफल हो पाएंगे प्रशांत?

अब बात कन्हैया कुमार की। वह वाम विचारधारा से ऊर्जा पाकर उभरे बेगूसराय के ऐंठल छोरा हैं। कांग्रेस ने उन्हें अब एक 'प्रयोग' के तौर पर उतारा है। मुख्यमंत्री आवास घेराव में जो भी हुआ, वह कांग्रेस के लिहाज से उल्लेखनीय है। कन्हैया की मौजूदगी से कांग्रेस को लालू यादव की परछाईं से बाहर निकालने की एक उम्मीद दिख रही है। यह उम्मीद अब गांव की चौपालों में भी चर्चा का विषय बन रही है।

लेकिन इसी बीच कांग्रेस के 'मठाधीश' खुले तौर पर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा मानने की बात कह रहे हैं, जबकि कांग्रेस का आधिकारिक रुख यह है कि इसका फैसला चुनाव बाद किया जाएगा। यह सब दरअसल सीटों के मोलभाव का खेल है, जिसे सब समझते हैं।

बहरहाल, बिहार में कन्हैया कुमार की जोरदार लॉन्चिंग हुई है। अगर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सीटों को लेकर सौदेबाजी की मजबूत स्थिति में पहुंचती है, तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। और अगर कन्हैया को पांच साल तक बिहार में रणनीति के तहत लगातार काम करने दिया गया, तो कांग्रेस की मृतप्राय स्थिति में नई जान आ सकती है और बिहार को लालू यादव के भूत के भय से मुक्ति मिलेगी। तेजस्वी यादव का नई पीढी में आज नहीं तो कल, मेरे अलावा कौन का अहंकार टूटेगा। क्योंकि उप मुख्यमंत्री रहते अपने मंत्री से भी नहीं मिल पाने वाले की बात जगजाहिर है। 

लेकिन अनुभव कहता है कि पिछले दो-तीन दशकों में कांग्रेस ने रणनीति के नाम पर रामजतन सिन्हा, अनिल सिंह, अशोक चौधरी जैसे कई नेताओं को कुछ समय की मोहलत दी, वे कोशिश किये और फिर अचानक खुद ही उन्हें किनारे कर, आत्मघाती गोल कर लिया। यही नहीं दोहराया जाए—बस यही उम्मीद हो... 

04 अप्रैल 2025

मेला, बेटी और रोटी

मेला, बेटी और रोटी

आज अहले सुबह मालती पोखर सूर्य मंदीर  पर चैती छठ पर जहाँ सुबह सुबह लोग श्रद्धा का अर्घ्य देने जा रहे थे वहीं एक माँ और उसके दो बच्चे अपनी रोटी कमाने जाते मिले। माता और दोनों बच्चों के माथे पर भारी बोझ था। ऐसे, जैसे वह भूख का बोझ उठाये हो। सभी मेला में दुकान लगाने जा रहे थे। 
खैर, उनमें एक छोटी बेटी थी। उससे इस कच्ची उम्र में भारी बोझ नहीं संभल  रहा था। वह अपनी माता को आवाज दे रही थी।

 "मम्मी, बहुत भारी हो..!"

मम्मी ने कोई ध्यान नहीं दिया। शायद उसका अपना बोझ भी भारी ही था। 

वह बढ़ती जा रही थी। मम्मी को आवाज लगा रही थी। मैं उसके पीछे था। लगा की उसे सहारा दे दूँ, पर एक मन ने कहा, 


"नहीं, सहारा मिलते ही वह कमजोर होगी। लड़ने दो उसे। लड़ने में हमेशा जीत हो, यह जरूरी नहीं। पर लड़ने वाला ही जीतेगा, यह जरूरी है।"

वह बेटी चलती रही और मेला स्थान पर पहुँच गयी।

14 मार्च 2025

करेजा ठंडा रखता है...!

करेजा ठंडा रख 

होलिका दहन की अगली सुबह बासी भात और झोड़ (करी) खाने की परंपरा है। अपने घर में अभी तक इसका पालन किया जा रहा है।  

 माय कहती थी कि इससे करेजा ठंडा रहता है। पता नहीं यह परंपरा क्यों बनी, पर अभी तक चल रही है। पता नहीं यह और कहाँ कहाँ चलन मे है।

वैसे अभी देश में कई लोगों को करेजा ठंडा रखने की जरूरत है। बिना वजह छोटी-छोटी बातों को धार्मिक उन्माद का रूप दिया जा रहा है । कोई रंग नहीं खेलने पर अड़ा हुआ है तो कोई रंग लगाने को लेकर अड़ गया है। 

यह धार्मिक कट्टरपन प्रायोजित रूप से खड़ा कर दिया जाता है। 

इस विवाद में पड़कर आपसी सौहार्द खत्म हो रहे हैं। नतीजा धार्मिक स्थलों को ढकने तक आ गई है। रंगों का त्यौहार है और हमने मुस्लिम साथियों के साथ प्रत्येक वर्ष होली खेली है। 

 इस वर्ष भी रोजेदार मित्रों ने होली मिलन समारोह में होली खेली। रंग गुलाल लगाया। होली गाये। यहां तक की रोजेदार डॉक्टर फैजल अरशद ने मंगलाचरण गाया। 

ऐसी ऐसी छोटी-छोटी अच्छी बातें देश भर में कई जगह होती है परंतु इसकी चर्चा देश में नहीं होती है। चर्चा नफरत की होगी। 

चर्चा धार्मिक कट्टरपन का होगा। चर्चा रंग नहीं लगाने की होगी। चर्चा रंग लगाकर नमाज नहीं पढ़ने की होगी । चर्चा जबरदस्ती रंग लगाने की होगी। धार्मिक उन्माद , धार्मिक कट्टरपंथी से सामाजिक सौहार्द बिगड़ रहा है रंगोत्सव के उत्सव में भी भंग घोल दिया। 

13 मार्च 2025

बाजार में प्रधानमंत्री की अपील का होली में दिखा असर

प्रधानमंत्री की अपील का दिख रहा है असर 

होली के अवसर पर प्रधानमंत्री के अपील लोकल फॉर भोकाल का असर दिखाई पड़ रहा है ।  बाजार में हमेशा की तरह चाइनीस पिचकारी की प्रचुरता दिखाई नहीं पड़ती है। 

भारतीय पिचकारी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। पूछने पर दुकानदारों ने बताया कि भारतीय पिचकारी ही चीनी पिचकारी से कम कीमत पर उपलब्ध है । 
और खोजबीन करने पर पता चला की लोकल और भोकल अभियान में इसका असर हुआ है ।  बाजार में लोकल निर्माण किए गए सामग्री की खरीद बढ़ने से दुकानदारों में भी रुचि बढ़ी और इसका निर्माण भी अधिक होने लगा। 
 चाइनीस सामान से थोड़ी कम गुणवत्ता का भारतीय सामान भले है परंतु इसकी कीमत भी चीनी से कम है ।  इस वजह से इस बार बाजार में भारतीय पिचकारी की धूम देखी जा रही है। लोकल  का असर इसे माना जा सकता है और आम लोगों के द्वारा इसके लिए किया गया प्रचार भी असरदार है। 
तस्वीरों में होली का बाजार