बक्फ बोर्ड: दिल्ली से मुर्शिदाबाद तक
अरुण साथी
बक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक को लेकर देश के एक वर्ग में तीव्र विरोध देखने को मिल रहा है। इसके राजनीतिक, संवैधानिक, कानूनी और धार्मिक आयामों पर सभी के अपने-अपने दृष्टिकोण हैं। कहीं तर्क हैं, तो कहीं कुतर्क। निरपेक्षता के साथ किसी बात को रखने की संभावनाएं लगातार कम होती जा रही हैं। ऐसे समय में सामाजिक और धार्मिक पहलुओं को आम आदमी के नजरिए से समझना आवश्यक हो जाता है।
2014 के बाद से देश के मुसलमानों और कट्टर मोदी विरोधियों की ओर से किसी भी विषय पर तटस्थ विचार नहीं आता। वे न तो इस आधार पर समर्थन करते हैं कि कुछ अच्छा हो रहा है, न ही इस आधार पर विरोध करते हैं कि कुछ गलत है। केवल इस कारण से विरोध या समर्थन होता है कि वह कदम नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा उठाया गया है। किसान बिल, तीन तलाक, सीएए आदि इसके उदाहरण हैं।
अब जब केंद्र सरकार ने संसद में बहुमत के साथ बक्फ कानून में संशोधन प्रस्तुत किया है, तो विरोध भी उसी पैटर्न पर सामने आया है। विरोध की तीव्रता मुर्शिदाबाद में हुए दंगों में दिखती है, और उतनी ही प्रमुखता से इस पर मोदी विरोधी वर्ग की चुप्पी या 'किंतु–परंतु' के साथ बात रखने की प्रवृत्ति भी।
सोशल मीडिया के इस युग में 'कथित क्रांतिजीवी' इसलिए पोस्ट करते हैं कि उनके दर्शक क्या पसंद करेंगे, न कि इसलिए कि उसमें सत्य है। यह प्रवृत्ति दोनों पक्षों में है। उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने बक्फ बोर्ड को लेकर जो टिप्पणियाँ कीं, उसे कुछ लोगों ने संशोधन विधेयक पर रोक (स्टे) के रूप में प्रचारित किया, जबकि वास्तविकता यह नहीं थी।
बिल की तकनीकी और कानूनी व्याख्या विशेषज्ञों पर छोड़ दें। चर्चा सामाजिक और धार्मिक पहलुओं की होनी चाहिए।
शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटना तुष्टिकरण की पराकाष्ठा था। दुर्भाग्यवश, वर्तमान सरकार ने भी इसी राह पर चलते हुए अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर वही गलती दोहराई। वोट बैंक के लिए किया गया यह निर्णय भी समाज के लिए हानिकारक रहा।
सामाजिक और धार्मिक सुधार के लिए कठोर कानूनों की आवश्यकता होती है। अंग्रेजी राज में भी सती प्रथा जैसी राक्षसी प्रथा को खत्म करने के लिए कड़ा रुख अपनाया गया, जिससे बड़ा सामाजिक बदलाव संभव हुआ।
बक्फ संशोधन का विरोध मुसलमानों के बौद्धिक वर्ग द्वारा एक स्वर में हो रहा है, कुछ अपवादों को छोड़कर। झारखंड के एक विधायक ने यहाँ तक कह दिया कि "शरियत संविधान से ऊपर है।" जब दूसरे मुद्दे होते हैं, तब संविधान सर्वोच्च होता है, पर जब बात अपने धर्म की आती है तो शरियत आगे...!
बक्फ कानून को एक शेर के माध्यम से समझिए—
"मेरा क़ातिल ही मेरा मुंशीफ़ है,
क्या मेरे हक में फैसला देगा...?"
सरकार ने संशोधन में 'मुंशीफ़' यानी सदस्य
को स्वतंत्र रखने का प्रावधान किया है। यही बात असहनीय बन गई है।
यह भी समझना चाहिए कि हिन्दुओं के मठ, मंदिर, गौशाला जैसी संस्थाओं पर पहले से ही सरकार का सीधा नियंत्रण है। इनकी जमीनों की सुरक्षा के लिए यह जरूरी भी है। देश के किसी गांव, टोले, शहर में शायद ही ऐसा कोई स्थान हो जहां मठ, मंदिर की जमीन को लेकर संघर्ष न हुआ हो। कई जगह हत्याएं तक हुईं। मेरे अपने क्षेत्र—शेखपुरा और बरबीघा में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं। कई मामले अभी भी हाईकोर्ट में विचाराधीन हैं।
कई मठाधीशों ने दान की गई जमीनें औने-पौने दाम पर माफियाओं को बेच दीं। ऐसे में धार्मिक न्यास बोर्ड जैसे संस्थानों का गठन कर सरकार ने नियंत्रण स्थापित किया। इसमें सेवानिवृत्त अधिकारियों को अध्यक्ष नियुक्त किया गया। बिहार में आचार्य किशोर कुणाल जैसे संत इसके अध्यक्ष रहे हैं।
यहाँ तक कि इस बोर्ड का अध्यक्ष किसी भी धर्म का हो सकता है। अभी हाल ही में बिहार धार्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष एक जैन धर्मावलंबी थे।
मठ, मंदिर और गौशाला समितियों का पदेन अध्यक्ष स्थानीय अनुमंडल पदाधिकारी (SDO) होते हैं, जो किसी भी धर्म के हो सकते हैं—यहाँ तक कि मुसलमान भी। और कई स्थानों पर हैं भी।
सोचिए, क्या इस बदलाव को लेकर कभी हिन्दुओं ने बवाल किया? नहीं। उन्होंने इसे सहजता से स्वीकार किया।
बस, यही अपेक्षा मुसलमान समाज से भी की जाती है कि वे भी सामाजिक और धार्मिक बदलावों को उतनी ही सहजता और उदारता से स्वीकार करें। बस..
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