मेला, बेटी और रोटी
आज अहले सुबह मालती पोखर सूर्य मंदीर पर चैती छठ पर जहाँ सुबह सुबह लोग श्रद्धा का अर्घ्य देने जा रहे थे वहीं एक माँ और उसके दो बच्चे अपनी रोटी कमाने जाते मिले। माता और दोनों बच्चों के माथे पर भारी बोझ था। ऐसे, जैसे वह भूख का बोझ उठाये हो। सभी मेला में दुकान लगाने जा रहे थे।
खैर, उनमें एक छोटी बेटी थी। उससे इस कच्ची उम्र में भारी बोझ नहीं संभल रहा था। वह अपनी माता को आवाज दे रही थी।
"मम्मी, बहुत भारी हो..!"
मम्मी ने कोई ध्यान नहीं दिया। शायद उसका अपना बोझ भी भारी ही था।
वह बढ़ती जा रही थी। मम्मी को आवाज लगा रही थी। मैं उसके पीछे था। लगा की उसे सहारा दे दूँ, पर एक मन ने कहा,
"नहीं, सहारा मिलते ही वह कमजोर होगी। लड़ने दो उसे। लड़ने में हमेशा जीत हो, यह जरूरी नहीं। पर लड़ने वाला ही जीतेगा, यह जरूरी है।"
वह बेटी चलती रही और मेला स्थान पर पहुँच गयी।
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