मेहरबान,
कद्रदान,
साहेबान,
लोकतंत्रिक देश के ‘‘बुढ़ेजवान’’
सबको इस मदारी का सलाम।
हां तो,
सिपाही जी अपनी टोपी उतार लें,
कालेकोट वाले भाई साहब
और
कलमनवीशों से मेरी गुजारिश है,
आंख बंद कर देखने की सिफारिश है।
तो जनाब
यह मरियल सा आम आदमी
मेरा जमूरा है,
तमाशाबीन आर्यावर्त पूरा है।
‘‘तो बोल जमूरे तुम मरना क्यों चाहते हो’’
हूजूर
मैंने घोर पाप किया है,
लोकतंत्र के राजा को हरबार माफ किया है,
कभी मुंबई तो कभी रेल बलास्ट,
कभी संसद पर हमला
तो कभी मंदिर-मस्जिद विवाद।
अब तो राजा की मेहरबानी से
मंहगाई का बोलबाला है,
और मेरे जैसों को दाल-रोटी का भी लाले है,
‘‘और इतने पर भी मेरा खून तो अब खौलता ही नहीं’’
‘‘जुंबा तो है पर यह विरोध में बोलता ही नहीं।’’
भ्रष्टाचार और मंहगाई से हम रोज मर रहें है,
इसलिए आत्महत्या कर रहें है।
‘‘और इतने पर भी मेरा खून तो अब खौलता ही नहीं’’
जवाब देंहटाएं‘‘जुंबा तो है पर यह विरोध में बोलता ही नहीं।’’
मारो एक झपाटा साले को तो बोलने लगेगा ! हा हा। बहुत उम्दा बात कही आपने।
बहुत खूब, यथार्थ बयां करती कविता !
जवाब देंहटाएंबहुत लाजवाब और उम्दा लिखा है......गहरी बात आसानी से कह दी आपने
जवाब देंहटाएंaajkal yah jamoora kadam-kadam par dikh jata hai. har insaan me...
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