इस महा कुम्भ के वैभव और विलासिता में बहुत कुछ डूब गया
सोशल मीडिया। मुख्य मीडिया। आधा सच। आधा झूठ। इसी का पर्याय। बस इसी से हर बात पर न तो पोस्ट न ही टिपण्णी। बस, मौन होकर, टुकुर टुकुर देखने का मन करता है।
इस बीच। प्रयाग का महाकुंभ। मोनालिसा। आईआईटी बाबा। ममता कुलकर्णी। सुंदरी हर्षा। यहां से होते हुए महाकुंभ का वैभव। विलासिता। मंहगे सुइट ।
महा प्रचार। महा भीड़। महान महान नेता। महा आडंबर। महा भोज। महा धर्म। महा जाम। महा यात्रा। महा अखाड़ा। सब कुछ ।
बेचैन मन। शब्द गढ़ने लगे। बात प्रयागराज के भगदड़ से। कितनी लाशें। कौन दोषी। कौन निर्दोष। कौन गिद्ध। कौन भेड़िया। कौन कौन बाघ।
धीरे धीरे सब पटल पर आ गया। महाकुंभ को महा वैभवशाली बनाया गया। महा प्रचार हुए। अरबों अरब पानी की तरह बहे। नतीजा क्या..? संगम के किनारे आधी रात को लोग कुचल गए। अब लाशों को छुपाने के लिए कैमरे को बंद कराया जा रहा। बस यही इस बात का प्रमाण है कि महा कुम्भ के इस सबसे बड़े अमृत महोत्सव में भी हम भगवान से नहीं डरते।
खैर, बात सिर्फ लाशों को गिनने भर की नहीं है। बात यह भी है कि सनातन में कर्म की प्रधानता के सिद्धांत के बीच आज चारों ओर आडंबर है। यह आडंबर तब भी दिखा जब कोई मात्र एक साल पहले घर से भागा युवक कैमरा के सामने स्वयं को आईआईटी मुंबई का विद्यार्थी जानबूझ के बताता है। बस लोग उसके पीछे भागने लगे। ऐसा भागे कि कुंभ भूमि का वैराग्य उसी में समा के रह गया। वह निकला क्या, एक नशेड़ी, जिसकी बातों में गांभीर्य नहीं। गहराई नहीं। वह खुद को भगवान बताने लगा। उथली बातें मोबाइल पर वायरल हुई। बस।
आचार्य ओशो ने तो कहा ही है, जब हम अपने साथ अपना धन, पद, प्रतिष्ठा लेकर चलते है तो वैराग्य नहीं है। और आम जन भी किसी हमेशा इसी के पीछे भागते है। सन्यासी कितना बड़ा धनी था, पद प्रतिष्ठा कितना छोड़ा।
मतलब कि। मयान की कीमत अधिक। तलबार की नहीं।
कबीर ने कहा है,
जात न पूछो साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार की, पड़न रहे दो म्यान।।
खैर,
यह आडंबर तब भी दिखा जब एक माला बेचने वाली मोनालिसा की खूबसूरत आँखें वायरल हो गई। यूट्यूब मोबाइल वालों ने उसे इसे पकड़ा जैसे कोई बाज अपना शिकार पकड़ता हो। और सनातन का सारा पुण्य लाभ उसी आंखों में समाता चला गया और वह वायरल हो गई। इसमें से एक भी सम्पन्न सज्जन ऐसा न होगा, जो उस बेचारी को ब्याह कर अपना घर ले आए।
यह आडंबर तब भी दिखा यह एक सुन्दरी लड़की हर्षा और एक अभिनेत्री ममता महा कुम्भ में आ गई। हमारा कैमरा उसी पर फोकस हुआ और हमारा मन उसी में रम गया।
सभी ने एक से रिल्स बनाए। लाइव किया। धर्म नहीं जिया। पता ही नहीं चला कि रील बनाने गए या कुंभ स्नान में।
फिर सुंदरियों के यौवन की अश्लीलता में महा डुबकी लगाते हम डूबते, उतराते रहे।
फिर उसी में दिखा कई हठ योगी। जिसके अंदर संतत्व नहीं था। चिमटे से वह सबको चिपकाता रहा।
फिर इसमें शामिल हुए हमलोग। जो धर्म के इस लूट में से अपना हिस्सा लेने ऐसे भागे जैसे सदियों से कोई भूखा भोजन पर टूटता है। और अंत में एक दूसरे को कुचल कर मार देते है।
पुण्य लूटने हमने रेलगाड़ी पर कब्जा कर लिया। दरवाजा बंद। यह भी नहीं देखा कि जिनका रिजर्वेशन है उनमें से किसी को इलाज से लिए दिल्ली जाना था। कई को कमाने विदेश।
इसी आडम्बर में यह भी दिखा कि अपने ने एक महिला को कुंभ लाकर नशीली दवाई देकर स्टंप पर अंगूठा लगा लिया।
सब कुछ दिखा पर कुरुक्षेत्र , धर्म क्षेत्र में धर्म कहीं जाकर छुप गया। वह दिखा ही नहीं।।
दिखता, या होता तो हम पुण्य लाभ के लिए नदी किनारे सोए आदमी को कुचल कर लाश में नहीं बदलते। हम लाशों को नहीं छुपाते। धर्म को हम आचरण में धारण करते। पर हमेशा की तरह राम, कृष्ण सरीखे के चरित्र को हम कथाओं, लीलाओं में सुनकर आह्लादित होते है और उसी चर्चा करते हुए दूसरे को उपदेश देते है।
अगर ऐसे नहीं होता तो हम जानते की भागवत महापुराण में हमारे युगांधर भगवान कृष्ण ने भी कर्म को प्रधान माना। और इसीलिए भगवान कृष्ण का अंत भयावह रूप में वर्णित है। एक बहेलिए के तीर पांव में लगने भर से वे तड़प कर अकेल मर गए। उनके कुल का नाश हो गया। वैभवशाली द्वारिका समुद्र में समा गई।
खैर, मैं कोई धर्माचार्य तो हूं नहीं, जो उपदेश दूं। न ही बहुत गहरी समझ है।
पर एक आम आदमी के मन में भी पीड़ा होती है। इसीलिए वह कभी कभी उल्टी कर देता है।
पीड़ा तो यह भी होती है कि कैसे वैभवशाली महाकुंभ के इस महा भीड़ में गिद्ध की तरह कुछ लोग ताक में थे, कब लाशें गिरे और वे तांडव करें। सोशल मीडिया वाले क्रांतिकारी का भी अपना अपना साम्राज्य है। अपने लंपटों के वाहवाही से वे भी उसी तरह खुशी में नाचने लगते है जैसे मोरनी को रिझाने, मोर नाचता है। मोर को नहीं पता होता कि इससे उसके पैर भी दिख जाते है।
खैर, मुद्दा, मामला यह की यहां तक कोई बिरला ही इसे पढ़ेगा। इतना धैर्य अब किसके पास। फिर भी, महा कुम्भ एक भीड़ है। और ओशो कह गए है। भीड़ के पास अपना कुछ भी नहीं होता। न अपनी समझ, न अपना स्वत। न ही अपना बोध। न अपना धर्म। वह बस एक भीड़ होता है। भीड़।
और ओशो ने यह भी कहा है, सदियों से हमारा धर्म, धार्मिक ग्रन्थ, शास्त्र हमे मानवता, संवेदना, धार्मिकता का पाठ पढ़ा रहे और आज हम स्वयं कहते है कि मानवता, संवेदना, धार्मिकता का ह्रास हुआ है, तब हमे जो पाठ पढ़ाया जा रहा उसमें जरूर कुछ न कुछ त्रुटि रही होगी...तभी ऐसा हुआ।
अब अंध धार्मिकता का ऐसा नशा चढ़ा कि कुंभ में मौत पर कोई बाबा कहता है कि मोक्ष मिला और हम प्रतिकार भी नहीं करते।
और अंत में एक बात। इस भगदड़ में लाशे गिरने और गिनने की होड़ के बीच इसमें दोषी कौन है, यह सबसे सवाल है। और जबाव बहुत सरल है। दोषी वह है जिसने इसे अति वैभवशाली बताया, बनाया। दोषी वह है जिसके कैमरे ने वैभव और विलासिता ही दिखाई, कमी नहीं! सबसे बड़ा दोषी वह है जो पुण्य लूटने आदमी को लाश में बदलने में भी नहीं चूकता। बस
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