संत कबीर: प्रतिमा की पूजा या विचारों की उपेक्षा?
आज संत कबीर जयंती है। हम प्रतिमा के आगे दीप जला रहे हैं, फूल चढ़ा रहे हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या हम कबीर के विचारों को भी उतनी ही श्रद्धा से याद कर रहे हैं? शायद नहीं।
कबीर, जो निर्गुण भक्ति के उपासक थे, मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी रहे। उन्होंने न केवल हिंदू समाज की रूढ़ियों पर प्रहार किया, बल्कि मुस्लिम समाज की भी आलोचना की। वे किसी भी धर्म के नाम पर किए जाने वाले पाखंडों के घोर विरोधी थे।
"कंकर-पत्थर जोड़ि के मस्जिद लई बनाई,
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा भयो खुदाई?"
कबीर ने यहां अजान की व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए यह पूछा कि क्या ईश्वर बहरा हो गया है, जिसे ऊँचे स्वर में पुकारना पड़ता है?
इसी तरह उन्होंने मूर्ति पूजा को लेकर कहा:
"पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़,
ता से तो चक्की भली, पीस खाए संसार।"
कबीर ने भक्ति को कर्म से जोड़ा, और वही गीता का भी सार है—कर्म ही प्रधान है।
उन्होंने धार्मिक उन्माद और झगड़ों पर भी गहरा व्यंग्य किया—
"हिंदू कहे मोहि राम प्यारा, तुर्क कहे रहमाना,
आपस में दोऊ लड़ मुए, मरम न कोऊ जाना।"
कबीर के विचार आज भी उतने ही ज़रूरी हैं जितने उस समय थे। पर दुखद विडंबना यह है कि अगर आज कबीर होते, तो शायद उनके सवालों और सच्चाई को सुनकर उन्हें "राष्ट्रविरोधी", "विवादास्पद" या "धर्मविरोधी" कहकर चुप करा दिया जाता।
मेरे बरबीघा प्रखंड के मालदह में—कबीरपंथी मठ आज भी मौजूद है। वहां कबीर के अनुयायियों द्वारा वर्षों तक भजन-कीर्तन और सत्संग का आयोजन होता रहा। पर समय के साथ, हमारी भूख बढ़ती गई और अब मठ की जमीन पर कब्जे की लड़ाई है।
सिर्फ कबीर ही नहीं, बल्कि नानक जैसे संतों की संगतें भी हमारे गांवों में थीं। वे सांप्रदायिक सद्भाव और आध्यात्मिक चेतना के केंद्र हुआ करती थीं। आज यह सब पीछे छूट गया है। अब हमारे पास सोशल मीडिया पर धर्म है, पर आत्मा से खालीपन भी है।
क्या यह विकास है या मूल्यों का ह्रास?
कभी लगता है, भक्ति काल का दौर शायद सभ्यता का शिखर था। कबीर, रहीम, तुलसी, सूर—इन संतों की वाणी में जो व्यापकता थी, वह आज के दौर में दुर्लभ हो गई है।
आज, कबीर को याद करने का असली तरीका यही होगा कि हम उनके विचारों को जीवन में उतारें—उनके साहस, उनके तर्क और उनके धर्म के पार जाकर इंसानियत को देखने वाले दृष्टिकोण को अपनाएं।