21 जून 2025

बैल की जगह खेत में काम कर रहे किसान

योग दिवस है। जो योग नहीं करते वह भी शुभकामनाएं देते है। खैर, 

नियमित अभ्यास में शामिल हो तो यह वरदान है। 


कल की यह तस्वीर और वीडियो आम गरीब भारतीय किसान, मजदूर  के जीवन योग की संलिप्तता जीवन का कैसे हिस्सा है, उसके लिए है। 



किसान नवल यादव। बैल अब है नहीं। धान का बिचड़ा गिराना है। खेत जोता हुआ है। अब उसमें चौकी देना है। इसलिए बैल की जगह खुद ही चौकी (पाटा) दे रहे। उनके साथ उनके पोता, पोती भी चुहल कर रहे। इसी बहाने वे जीवन की सबसे कठिन पाठशाला में परिश्रम की पढ़ाई कर रहे।


और यहां, यह भी समझने की बात है कि जिस चावल को हम भोजन के रूप में ग्रहण करते है उसे उपजाना पहाड़ तोड़ने जैसा कठिन कार्य है। आम किसान रोज रोज पहाड़ तोड़ता है। तब भी उनका जीवन अभावों में बीतता है। 




और एक बात और। कल शाम में जब शेखपुरा से लौट रहा था । बाइक चलाते हुए। तभी नेमदारगंज गांव के पास सड़क कुछ ही दूरी पर खेत में चौकी चलाते किसान दिख गए। खेत में गया। तस्वीर ले ली। अक्सर यह होता है। सड़क पर चलते हुए आसपास यदि खबर हो तो पता नहीं कैसे दिख जाता है।  अक्सर ऐसा होता है। 



13 जून 2025

भाषण प्रतियोगिता के माध्यम से युवाओं में संचार कौशल को बढ़ावा देने की पहल

भाषण प्रतियोगिता के माध्यम से युवाओं में संचार कौशल को बढ़ावा देने की पहल 

 बरबीघा, शेखपुरा

दैनिक जागरण द्वारा युवाओं में भाषण कला के प्रति रुचि बढ़ाने के उद्देश्य से आयोजित भाषण प्रतियोगिता की एक कड़ी में श्रीकृष्ण रामरुचि कॉलेज, बरबीघा में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया।
इस अवसर पर मुख्य अतिथि डॉ. मुरारी प्रसाद उपस्थित रहे, जिन्होंने अपने संबोधन में युवाओं को बेहतर संवाद कौशल विकसित करने और बिहार के उज्ज्वल भविष्य में योगदान देने के लिए प्रेरित किया। कॉलेज के प्राचार्य डॉ. वीरेंद्र पांडे ने भी आयोजन को संबोधित करते हुए युवाओं की भागीदारी को सराहा।
कार्यक्रम में प्रो. मनोज कुमार, प्रो. उपेंद्र दास, प्रो. सुमित कुमार सहित कई गणमान्य शिक्षकों की महत्वपूर्ण उपस्थिति रही। समारोह का सफल संचालन कॉलेज कर्मी संतोष कुमार ने किया।
दैनिक जागरण के प्रतिनिधि के रुप में मेरे साथ, साथी अभय कुमार और सनोज कुमार की भी आयोजन में सक्रिय सहभागिता रही। यह कार्यक्रम न केवल एक प्रतियोगिता था, बल्कि युवाओं के भीतर आत्मविश्वास और अभिव्यक्ति की क्षमता को प्रोत्साहित करने की दिशा में एक प्रभावशाली पहल भी रही।

11 जून 2025

संत कबीर: प्रतिमा की पूजा या विचारों की उपेक्षा?

 संत कबीर: प्रतिमा की पूजा या विचारों की उपेक्षा?


आज संत कबीर जयंती है। हम प्रतिमा के आगे दीप जला रहे हैं, फूल चढ़ा रहे हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या हम कबीर के विचारों को भी उतनी ही श्रद्धा से याद कर रहे हैं? शायद नहीं।


कबीर, जो निर्गुण भक्ति के उपासक थे, मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी रहे। उन्होंने न केवल हिंदू समाज की रूढ़ियों पर प्रहार किया, बल्कि मुस्लिम समाज की भी आलोचना की। वे किसी भी धर्म के नाम पर किए जाने वाले पाखंडों के घोर विरोधी थे।



"कंकर-पत्थर जोड़ि के मस्जिद लई बनाई,

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा भयो खुदाई?"


कबीर ने यहां अजान की व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए यह पूछा कि क्या ईश्वर बहरा हो गया है, जिसे ऊँचे स्वर में पुकारना पड़ता है?


इसी तरह उन्होंने मूर्ति पूजा को लेकर कहा:


"पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़,

ता से तो चक्की भली, पीस खाए संसार।"


कबीर ने भक्ति को कर्म से जोड़ा, और वही गीता का भी सार है—कर्म ही प्रधान है।


उन्होंने धार्मिक उन्माद और झगड़ों पर भी गहरा व्यंग्य किया—


"हिंदू कहे मोहि राम प्यारा, तुर्क कहे रहमाना,

आपस में दोऊ लड़ मुए, मरम न कोऊ जाना।"


कबीर के विचार आज भी उतने ही ज़रूरी हैं जितने उस समय थे। पर दुखद विडंबना यह है कि अगर आज कबीर होते, तो शायद उनके सवालों और सच्चाई को सुनकर उन्हें "राष्ट्रविरोधी", "विवादास्पद" या "धर्मविरोधी" कहकर चुप करा दिया जाता।


मेरे बरबीघा प्रखंड के मालदह में—कबीरपंथी मठ आज भी मौजूद है। वहां कबीर के अनुयायियों द्वारा वर्षों तक भजन-कीर्तन और सत्संग का आयोजन होता रहा। पर समय के साथ, हमारी भूख बढ़ती गई और अब मठ की जमीन पर कब्जे की लड़ाई है।


सिर्फ कबीर ही नहीं, बल्कि नानक जैसे संतों की संगतें भी हमारे गांवों में थीं। वे सांप्रदायिक सद्भाव और आध्यात्मिक चेतना के केंद्र हुआ करती थीं। आज यह सब पीछे छूट गया है। अब हमारे पास सोशल मीडिया पर धर्म है, पर आत्मा से खालीपन भी है।


क्या यह विकास है या मूल्यों का ह्रास?

कभी लगता है, भक्ति काल का दौर शायद सभ्यता का शिखर था। कबीर, रहीम, तुलसी, सूर—इन संतों की वाणी में जो व्यापकता थी, वह आज के दौर में दुर्लभ हो गई है।


आज, कबीर को याद करने का असली तरीका यही होगा कि हम उनके विचारों को जीवन में उतारें—उनके साहस, उनके तर्क और उनके धर्म के पार जाकर इंसानियत को देखने वाले दृष्टिकोण को अपनाएं।

09 जून 2025

ग़ज़ल की खामोशी, हास्य का शोर — एक शाम, कई एहसास

ग़ज़ल की खामोशी, हास्य का शोर — एक शाम, कई एहसास


"खुदकलामी का हुनर सीख न पाए जो लोग
वे मेरी खामोशी को अहंकार समझ लेते हैं..."
शनिवार की शाम बिहारशरीफ में दैनिक जागरण के द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में जब अजहर इकबाल ने मंच से यह शेर पढ़ा, तो लगा जैसे किसी ने मेरे भीतर की बात छीन ली हो। यह केवल एक शेर नहीं था, बल्कि उन तमाम लम्हों की तहरीर थी जब हम अपने भीतर का शोर बाहर लाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते – और लोग उसे ‘अहंकार’ का नाम दे देते हैं।

ग़ज़ल कभी केवल उर्दू की बपौती नहीं रही। 

"रावण की तरह घात में बैठी है ये दुनिया, सीता की तरह भोली है भोजाई हमारी.."

***
"है साक्षी काशी का हर एक घाट अभी तक,
होता था भजन आपका शहनाई हमारी.."
जब अजहर इकबाल ने विशुद्ध हिंदी में ग़ज़ल पढ़ी, तो लगा जैसे भाषा की सीमाएं टूट गईं और भावनाओं ने अपनी नई जगह तलाश ली। यह शेर, और उनके जैसे कई शेर, श्रोता के भीतर उतरते गए – बिना शोर मचाए, बिना दावा किए।

और यही तो सबसे खूबसूरत बात थी उस शाम की – शब्दों का वह अदृश्य स्पर्श, जो हर किसी को अपने-अपने हिस्से की सोच सौंप रहा था।

लेकिन जहाँ एक ओर यह गहराई थी, वहीं दूसरी ओर हास्य कवि पार्थ नवीन और विनोद पाल ने उसी शाम को ठहाकों से गूंजा दिया। मंच पर जब पार्थ ने राजस्थानी अंदाज़ में अपनी हास्य कविताएं सुनाईं, तो हँसी की लहरें मानो सजीव हो गईं। ऐसा लगा जैसे जीवन की गंभीरता को तोड़ने के लिए हास्य ने अपना सबसे सच्चा रूप दिखाया हो।

मनु वैशाली की आवाज़ जैसे नदी की तरह थी — सतह पर शांति, भीतर भावनाओं की गहराई। उनका पाठ सुनते हुए यह महसूस हुआ कि कविता सिर्फ शब्दों से नहीं, स्वर और संवेदना से भी जन्म लेती है। अपनी कविता में उन्होंने गांव को जिया।

विनीत चौहान की वीर रस में डूबी कविताएं, हमेशा की तरह प्रेरणा बनकर उभरीं। उन्होंने सिर्फ कविता नहीं पढ़ी, एक समय की जीवंत तस्वीर खींच दी — जैसे शब्दों में धड़कता हुआ इतिहास हो। इसमें गुरु गोविंद सिंह और मुगलों का संग्राम जीवंत हो उठा।

हाँ, यह सही है कि पद्मिनी शर्मा की प्रस्तुति उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी, लेकिन हर शाम हर कोई सूरज नहीं बनता। कभी-कभी चाँद की मौजूदगी ही काफी होती है।

उस शाम को मैं एक श्रोता नहीं था, एक संवेदना बन गया था — कभी हँसता, कभी चुप रहता, कभी भीतर ही भीतर भीगता हुआ।

कभी-कभी, शब्द किसी किताब या मंच तक सीमित नहीं रहते। वे हमारे भीतर उतरते हैं, बैठ जाते हैं और हमें बदल देते हैं। यह कवि सम्मेलन भी वैसा ही एक अनुभव था — जहाँ हर श्रोता अपने-अपने हिस्से की कविता लेकर लौटा।

एक बात और, जैसा कि स्वाभाविक है। इसमें भीड़ नहीं थी। भीड़ तो आर्केस्ट्रा, बार डांसर में होती है...

03 जून 2025

आश्चर्य होता है... यही खान सर की सच्चाई है..

खान सर कोचिंग संचालक है। मनोरंजन करके पढ़ाते है। यह सभी जानते है। पर खान सर कौन है यह आज भी बहुत कम लोग जानते है। 
आश्चर्य होता है... यही खान सर की सच्चाई है.. 


मतलब कि वे हमेशा आधा सच ही सामने रखते है। उसके कुछ बड़ा कारण भी होगा..! 

खैर, सोशल मीडिया पर उनके शादी की पार्टी की धूम है। सभी न्यूज़ वाले उसे शेयर कर रहे। 

खान सर ने शादी भी गुप्त रखी। कोचिंग मे सबको बताया। 

अब  रिसेप्शन में बिहार के तेजस्वी यादव सहित कुछ नामी लोग भी पहुंचे परंतु नई नवेली दुल्हन का घूंघट हमेशा चेहरे को छुपा कर रखा ।

खान सर अपने कोचिंग में पढ़ाते कम और उपदेश ज्यादा देते हैं, जिसमें समाज को बदलने का उपदेश भी होता है। 


रिसेप्शन की पार्टी में घूंघट में दुल्हन खान सर के स्त्रियों को पर्दे में रखने के पितृ सत्तात्मक सोच का उदाहरण है...! शुक्र है कि दुल्हन हिजाब में नहीं थी..! 

मतलब यह की स्त्री के पर्दा प्रथा के कट्टर समर्थक है खान सर...! 


मतलब यह कि उनके नजर में स्त्री को स्वतंत्रता नहीं है? उनका अपना कोई अस्तित्व नहीं है? इस पर भी उनका अपना तर्क आएगा और वह लंबा-लंबा भाषण देंगे, परंतु यह उनका दकियानुसी सोंच ही है...