11 अगस्त 2013

अब गीत नहीं गाती है गोरैया.....


बहुत से लोगों ने बचपन में गीत गाती गोरैया को देखा होगा... हीरा मोती बैल की जोड़ी और नीलकंठ... बहुत कुछ था बचपन में पर अब सबकुछ खोता जा रहा है..इसी को शब्द दिया है मैंने... थोड़ा सा रूक कर पढ़ें और कुछ कहें... 



अब मुंडेर पर अतिथि के आने की
सूचना लेकर कागा नहीं आता....
अब बाबू जी नहीं लाते धान की बाली
जिसे गीत गाते हुए फोंकती थी गोरैया..
अब छत पर सूखते अनाज अगोरने
नहीं कहती है मां....
अब मकई के खेत में भी
बाबू जी नहीं बनाते है मचान
जिस पर बैठकर उड़ता रहता था
झुंड के झुंड  आते सुग्गों को...
अब श्राद्ध में पितरों को तर्पित
भात खाने वाले चिंड़य-चुनमुन
न जाने कहां खो गए.....
अब मुद्राखोर चील भी न जाने कहां रहता है
जैसे नाराज हो
हमे सड़ाध की सजा दे रहा है....
अब घर से बाहर निकलने पर
नीलकंठ को उड़ा कर
जतरा नहीं बना पाते बाबू जी....
अब तो रंग बिरंगी तितली को देख
पूछती है बेटी
पापा यह कहां मिलेगी......
अब तो सावन में झूले लगाने के लिए
नहीं मिलता है पीपल का दरखत...
अब मां भी
बटवृक्ष और आंवले की पूजा के लिए
बोनासाई घर लाने के लिए कह रही है...
अब हीरा-मोती की कहानी कैसे लिखेगें
प्रेमचंद......
अब खेत में कौन करेगा
हरमोतर......
अब गौ माता को पूजने कहां जाएगी
बहुरिया....
और कहां से आएगा
ठाकुरजी बनाने के लिए
देशी गाय का गोबर....

अब तो मेरे गांव में भी रोती है मैना
रो रहे हैं तोंते
हुंआ हुंआ कर कर
रो रहा है सियार

जैसे कह रहा है-
‘‘हे भगवान यह आदमी क्यों बनाया
जो तेरी दुनिया में ही विनाश लेकर आया।’’

5 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन की कहानियां खो चुकी हैं..महानगरों में खासकर हिंदी रोमन लिपी में पढ़ी जा रही है ..जाहिर है कि ऐसे में गौरेया कि चिंता कौन करेगा..सरकार आंख बंद कर तकनीकि को बढ़ावा दे रही है पर उसके साइडइफेक्ट से बचाव पर ध्यान नहीं दे रही ..जब इंसान को कैंसर हो रहा है तो नन्ही गौरेया तो बेचारी सिर्फ अपनी जान ही देरही है..फिलहाल घर के पास गौरेया का कोई ठिकाना नहीं रहा है..

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  2. अतीत न हो जाएँ इसलिए धरोहरों को बचाए आने की जरूरत है...
    कविता वस्तुस्थिति स्पष्ट करती हुई, ऐसा किये जाने को प्रेरित करती है!

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