(अपने ही दुख के आंखू शब्द बनकर निकलें है और उसी दुख की एक तस्वीर भी बना दी. मैंने.. सुना है साइबर दुनिया में मित्र रहते है... शायद कोई अपना मेरी भावनाओं को समझ सकें..)
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कांधे पर लिए
रोटी के लिए जुतते जुतते
बैल बन गया मैं....
हर वक्त
दायें चलने का साहस
और पीठ पर
अपनों के हाथों
पड़ता अरौउआ....(डंडा)
वर्षों बाद आज
तन्हाई में दिख गया
पीठ पे पड़ा हुआ
घटठा...(सुखा हुआ जख्म)
एकबारगी
जख्मों पर पड़ी हुई पट्टी को
परत दर परत
उघाड़ता चला गया...
नोंन-तेल
मां-बाबूजी
बीबी-बच्चे
परिवार
और
हरे हरे
प्यारे प्यारे
मेरे जख्म...
उस पे पड़ी
मेरी मुस्कुराहटों की पट्टी...
किसे दिखेगा
कौन देखेगा....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (03-06-2014) को "बैल बन गया मैं...." (चर्चा मंच 1632) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक