कहीं आग नहीं, फिर भी धुआं क्यूं है।
तन्हाई के सफर में भी कारवां क्यूं है।
कभी तो खामोशी की जुवां को समझो साथी,
क्यों पूछते हो, यह अपनों के दरम्यां क्यूं है।
दुनियादार तुम भी नहीं हो मेरी तरह शायद,
तभी तो कहते हो कि जुल्म की इम्तहां क्यूं है।
यह नासमझी नहीं तो और क्या है,
कि जिस चमन में माली नहीं, और पूछते हो यह विरां क्यूं है।
शीशा-ऐ-दिल से दिल्लगी है उनकी फितरत,
गाफील तुम, पूछते हो संगदिल बेवफा क्यूं है।
इस काली अंधेरी रात में साथी चराग बन,
शीश-महलों को देख डोलता तेरा भी इमां क्यूं है।
कभी तो अपनी गुस्ताखियां देखों साथी,
की अब बन्दे भी यहॉ खुदा क्यूं है।
यह नासमझी नहीं तो और क्या है,
जवाब देंहटाएंकि जिस चमन में माली नहीं, और पूछते हो यह विरां क्यूं है।
.... behatreen abhivyakti ... bhaavpoorn gajal !!!
बहुत सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंbahut hi khoob surat gajal
जवाब देंहटाएंare yar now i know only that you are genious in writing on any subject,
जवाब देंहटाएंyou always write excellent.
wish that in future also follow the excellent step.
harish sagar (guddu)