सुदूर गावों में दो वक्त की रोटी वमुश्किल मिलती है। इसी रोटी की खातिर बांस, फूस और मिट्टी से दुकान बनाती एक महिला।
और मेरे चाँद शब्द......
जिंदगी तुम हो तो क्या तुम हो।
जी कर तुझे, तेरी औकात बताते है हम।।
सिर्फ महलों में तेरा बसेरा नहीं।
झोपड़ियों में भी तुझे खींच लाते है हम।।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (18-02-2014) को "अक्ल का बंद हुआ दरवाज़ा" (चर्चा मंच-1527) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हौसला बढ़ाने के लिए आभार
हटाएंहौसला बढ़ाने के लिए आभार
हटाएंमार्मिक अभिव्यक्ती
जवाब देंहटाएंआभार आपका
जवाब देंहटाएंलाजबाब प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST -: पिता