09 जून 2025

ग़ज़ल की खामोशी, हास्य का शोर — एक शाम, कई एहसास

ग़ज़ल की खामोशी, हास्य का शोर — एक शाम, कई एहसास


"खुदकलामी का हुनर सीख न पाए जो लोग
वे मेरी खामोशी को अहंकार समझ लेते हैं..."
शनिवार की शाम बिहारशरीफ में दैनिक जागरण के द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में जब अजहर इकबाल ने मंच से यह शेर पढ़ा, तो लगा जैसे किसी ने मेरे भीतर की बात छीन ली हो। यह केवल एक शेर नहीं था, बल्कि उन तमाम लम्हों की तहरीर थी जब हम अपने भीतर का शोर बाहर लाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते – और लोग उसे ‘अहंकार’ का नाम दे देते हैं।

ग़ज़ल कभी केवल उर्दू की बपौती नहीं रही। 

"रावण की तरह घात में बैठी है ये दुनिया, सीता की तरह भोली है भोजाई हमारी.."

***
"है साक्षी काशी का हर एक घाट अभी तक,
होता था भजन आपका शहनाई हमारी.."
जब अजहर इकबाल ने विशुद्ध हिंदी में ग़ज़ल पढ़ी, तो लगा जैसे भाषा की सीमाएं टूट गईं और भावनाओं ने अपनी नई जगह तलाश ली। यह शेर, और उनके जैसे कई शेर, श्रोता के भीतर उतरते गए – बिना शोर मचाए, बिना दावा किए।

और यही तो सबसे खूबसूरत बात थी उस शाम की – शब्दों का वह अदृश्य स्पर्श, जो हर किसी को अपने-अपने हिस्से की सोच सौंप रहा था।

लेकिन जहाँ एक ओर यह गहराई थी, वहीं दूसरी ओर हास्य कवि पार्थ नवीन और विनोद पाल ने उसी शाम को ठहाकों से गूंजा दिया। मंच पर जब पार्थ ने राजस्थानी अंदाज़ में अपनी हास्य कविताएं सुनाईं, तो हँसी की लहरें मानो सजीव हो गईं। ऐसा लगा जैसे जीवन की गंभीरता को तोड़ने के लिए हास्य ने अपना सबसे सच्चा रूप दिखाया हो।

मनु वैशाली की आवाज़ जैसे नदी की तरह थी — सतह पर शांति, भीतर भावनाओं की गहराई। उनका पाठ सुनते हुए यह महसूस हुआ कि कविता सिर्फ शब्दों से नहीं, स्वर और संवेदना से भी जन्म लेती है। अपनी कविता में उन्होंने गांव को जिया।

विनीत चौहान की वीर रस में डूबी कविताएं, हमेशा की तरह प्रेरणा बनकर उभरीं। उन्होंने सिर्फ कविता नहीं पढ़ी, एक समय की जीवंत तस्वीर खींच दी — जैसे शब्दों में धड़कता हुआ इतिहास हो। इसमें गुरु गोविंद सिंह और मुगलों का संग्राम जीवंत हो उठा।

हाँ, यह सही है कि पद्मिनी शर्मा की प्रस्तुति उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी, लेकिन हर शाम हर कोई सूरज नहीं बनता। कभी-कभी चाँद की मौजूदगी ही काफी होती है।

उस शाम को मैं एक श्रोता नहीं था, एक संवेदना बन गया था — कभी हँसता, कभी चुप रहता, कभी भीतर ही भीतर भीगता हुआ।

कभी-कभी, शब्द किसी किताब या मंच तक सीमित नहीं रहते। वे हमारे भीतर उतरते हैं, बैठ जाते हैं और हमें बदल देते हैं। यह कवि सम्मेलन भी वैसा ही एक अनुभव था — जहाँ हर श्रोता अपने-अपने हिस्से की कविता लेकर लौटा।

एक बात और, जैसा कि स्वाभाविक है। इसमें भीड़ नहीं थी। भीड़ तो आर्केस्ट्रा, बार डांसर में होती है...

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