13 दिसंबर 2025

स्विमिंग पूल में हार का जश्न

स्विमिंग पूल में हार का जश्न खेलावन काका की कलम से बिहार के लोग भी अजीब बिहारी हैं। सब तरह की खुमारी है और हर जगह मारा-मारी है। मारा-मारी मतलब लाठी-डंडा नहीं बाबू, कुर्सी की। यहाँ कुर्सी ऐसी चीज़ है कि जिसको मिल जाए, वह बैठता नहीं, जम जाता है। और जम गया तो फिर पीढ़ियाँ बदल जाएँ, कुर्सी नहीं बदलती।
राजनीति में तो यह मारा-मारी सबसे ज्यादा चमकती है। अभी एक नेताजी ने अपने बेटे की ऐसी डायरेक्ट एंट्री करवाई कि लगे जैसे रेलवे की जनरल बोगी में वीआईपी पास लेकर घुसा हो। न लाइन, न टिकट, न इंतज़ार, सीधे सिंहासन। समर्थक बोले, “नेताजी का बेटा है, खून में राजनीति है।” जनता मन ही मन बोली, “हमारे खून में तो सिर्फ महँगाई और बेरोज़गारी है।” अब कहानी में नया मोड़ यह है कि राजनीति के वही नेताजी, जिन्हें अब तक परिवारवाद से ऊपर, त्याग का प्रतीक और सिद्धांतों का आदर्श माना जाता था, उनके पुत्र को भी सिंहासन पर बैठाने की रणनीति चल रही है। बिहार में इसे रणनीति नहीं, परिवारिक समायोजन कहते हैं। जब दूसरे करें तो परिवारवाद, जब अपने करें तो अनुभव का उत्तराधिकार। इस पर बिहार में चर्चा खूब हो रही है। चौक-चौराहे, पान की दुकान, सैलून और सोशल मीडिया, सब जगह एक ही सवाल, “अब बचा कौन है?” कोई कहता है, “सब एक जैसे हैं,” तो कोई जवाब देता है, “एक जैसे नहीं, सब रिश्तेदार हैं।” --- वैसे भी आजकल बिहार में युवराज के रंग बड़े रंगीन हैं। राजनीति में हार मिली, सदन में सवाल पूछने थे, लेकिन युवराज जश्न मनाने विदेश निकल गए। यहाँ बहस होनी थी, वहाँ सेल्फी हो रही थी। यहाँ लोकतंत्र पसीना बहा रहा था, वहाँ स्विमिंग पूल में हार का जश्न मनाया जा रहा था। हार का जश्न भी अब अंतरराष्ट्रीय हो गया है। --- समर्थक सफाई देते हैं, “युवराज युवा हैं, थोड़ा एंजॉय कर लिया तो क्या?” अरे भाई, एंजॉय तो जनता भी करना चाहती है। रोज़गार का, शिक्षा का, इलाज का। लेकिन यहाँ तो युवराज का एंजॉयमेंट खबर बन जाता है और जनता का दर्द फुटनोट में चला जाता है। खेलावन काका कहते हैं, बिहार की राजनीति अब सेवा से ज़्यादा विरासत का विषय हो गई है। यहाँ सिंहासन कोई ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि पैतृक संपत्ति समझी जाती है।

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