08 अगस्त 2018

एक भूमिहार ब्राह्मण रमेश सिंह भला भूख से कैसे मर सकता है...? सबका यही सवाल..

( मैं हूँ ट्विटर पे @arunsathi )

घटना उद्वेलित भी करती है और उद्विग्न भी। मंगलवार की शाम जब यह खबर मिली की भूख और आर्थिक तंगी की वजह से शेखपुरा जिले के बरबीघा प्रखंड के कुटौत गांव निवासी 30 वर्ष के युवक रमेश कुमार सिंह की मौत हो गई। उसे कई दिनों से खाने के लिए कुछ नहीं मिल रहा था तो एकबारगी सन्न रह गया। भला कोई भूमिहार ब्राह्मण इतना भी गरीब हो सकता है? मौके पे पहुंचा तो स्थिति बड़ी भयावह थी।

खाने का एक दाना नहीं..न राशन न पेंशन

रमेश के घर खाने का एक दाना नहीं था। उसके चूल्हे एक माह से खामोश थे। उसकी पत्नी आर्थिक तंगी की वजह से छोड़ कर चली गयी। साथ ही छोड़ गई एक आठ साल की बेटी और छह साल का बेटा। दुर्भाग्य देखिये की बेटा का नाम राजा है। चूंकि वह भूमिहार है इसलिए सरकार इसे गरीब नहीं मान सकती। सो इसका नाम बीपीएल सूची में नहीं है। न ही इसे सरकारी राशन-किरासन मिलता है और न इसकी अस्सी बर्षीय बूढ़ी माँ को पेंशन!!

मौके पे गांव के लोग आपस मे उलझ रहे थे।

"के साला होत जेकर ई मजदूरी नै कैलक और शायदे कोय एकरा मजदूरी के पैसा देलक। सीधा के सब दहनजो है। भगवान देखो हखुन..!!"

मतलब साफ हो गया। बीबी के चले जाने के बाद रमेश के पास को आसरा न था। वह गांव में मजदूरी करने लगा। गांव के लोग कितने निर्मम और क्रूर होते है इसे भी देखिये। लोग मजदूर कराने के बाद भी पैसा नहीं देते। रमेश इतना सीधा की किसी से तन के मांगता भी नहीं। और हालात खराब होते गए। वह अवसाद में चला गया। गुमसुम रहने लगा। किसी से कुछ बोलना बतियाना बंद। लोग उसे विक्षिप्त मानने लगे। वह खुद्दार भी था जिसकी वजह से वह किसी से मांग कर नहीं खाता। माँ मांग कर लाती तो खा लेता।

दस कट्ठा जमीन भी था जो पिता के श्राद्ध में बिक गया..

अपने ही समाज की क्रूरता की कहानी भी रमेश ही है!!

रमेश अपने ही समाज की क्रूरता, शोषण और गरीबी अमीरी के भेदभाव की कहानी है। रमेश के पास दस कट्ठा जमीन भी थी पर अपने पिता के निधन पे श्राद्ध कर्म में जमीन हाथ से निकल गयी। रमेश पे समाज के लोगों ने श्राद्ध ठाठ से करने का दबाब दिया और फिर उसने जमीन को अपने की समाज के एक व्यक्ति के पास बैबुलवफ़ा (गिरवी) रख श्राद्ध किया। हालात इतने खराब की वह तय समय पे गिरवी न छुड़ा सका और जमीन उसके हाथ से निकल गयी।

भूख से नहीं हुई मौत

भूख से मौत की खबर फैलते ही प्रसाशन आनन फानन में पहुँच कर बीडीओ पंकज कुमार के नेतृत्व में दो बोरा अनाज घर पहुंचा दिया। 20000 का पारिवारिक लाख और 3000 का कबीर अंत्येष्टि की राशि दे दी। भूख से मौत को स्थापित करना नामुमकिन है। इस जागो मांझी के प्रकरण में देख लिया था सो जानता था कि यह नहीं होने वाला। बिना पोस्टमार्टम के तो खैर और मुश्किल। खैर प्रसाशनिक बयान आ गया। भूख से नहीं हुई मौत।

बस पूरी कहानी यही है बाकी सब अफसाना

रमेश मर गया। वजह भूख है या गरीबी या समाज। तय करिये। पर देखिये समाज को। रमेश के शवदाह पे गए लोग गंगा किनारे जम के मिठाई उड़ाई होगी। उसे शर्म न आई होगी। और हाँ रमेश के श्राद्ध पे भी ब्रह्मभोज होगा। हो सकता उसका एक छोटा घर भी बिक जाए.. इससे क्या। समाज को तो भोज खाना है नहीं तो समाज जीने देगा। एक पत्तल भात नै जुटलो। समाज को इससे शर्म नहीं आती की एक गरीब का वह परवरिश न कर सका! उसके दो अनाथ बच्चे का पालन पोषण कैसे होगा?

और सरकार तो हमेशा से ही फाइलों पे ही विकास करती रही है। रमेश को राशन किरासन नहीं मिलना, बूढ़ी को बृद्धा पेंशन नहीं मिलना कोई मुद्दा नहीं है। हजारों लाखों है ऐसे। एक मर गया। लोग जान गए। कई गुमनाम भी मरते होंगे!!

और फिर सवर्ण भूमिहार गरीब तो होता नहीं..गरीब तो वोट होता है। जिस जाति का अधिक वोट लोकतंत्र में उसी का हित सधेगा.. हो सकता है अब चुनाव आने वाला है और रमेश के घर नेताओं का आना जाना शुरू हो जाये..घड़ियाली आंसूं बहाने..और हो सकता है कि वह वहां जाति समाज के हित की बात करे और यह भी हो सकता है कि कोई नौजवान उन नेताओं से समाज हित के लिए किए गए काम का जबाब मांगकर शर्मिंदा कर दे...हो तो यह भी सकता है कि दोनों बच्चे भी भूख से मर जाये और हम उसे बीमारी से मौत करार दे दें...

भूख से मौत
***
एक आदमी
भूख से मरा
या एक गांव
एक समाज
एक सरकार
एक सभ्यता
एक संस्कृति
भूख से मर गई
सोंच कर देखो..

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