बिसुआ और गरीब का मिलौना सत्तू
नागपंचमी पसार, बिसुआ उसार। देहात में यह कहावत प्रचलित है कि नागपंचमी से पर्व त्योहारों की शुरुआत हिंदू धर्मावलंबियों के लिए हो जाती है जबकि बिसुआ पर्व, पर्व त्योहारों की समाप्ति की घोषणा होती है।
बिसुआ पर्व पर सत्तू को पूज्य मानते हुए प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की परंपरा आज भी है। मेरी समझ से बिसुआ भी भारत के उस संस्कृति का एक हिस्सा है जिसमें न्यूनतम से न्यूनतम साधन का उपयोग कर उत्सव मनाने की परंपरा है। ऐसे में सत्तू को भी उत्सव पर्व में जोड़ दिया गया।
सत्तू आज भले ही ब्रांडिंग के दौर में मध्य वर्गों के लिए भी स्वीकार हो गया हो परंतु तीन चार दशक पहले यह गरीबों का आहार था। गांव देहात में लोग जब किसी को उलाहना देना चाहते थे तो यह कहते थे कि सत्तू खाते हुए दिन जा रहा है और फुटनी करते हो।
यह बात सत्य भी था। सत्तू को किसान मजदूरों (हलवाहा) के उपयोग के लिए भी देते थे। हल जोतने वाले के नसीब में खाना के रूप में सत्तू, नमक और प्याज ही होता । कभी कभी खुशी में आचार दे दिया जाता। मुझे याद है कि जब भी धान खेत के रोपनी से पहले उसकी जुदाई होती थी तो मजदूर के खाना के रूप में हलवाहा के खाना के रूप में सत्तू लेकर जाता था।
बाल्टी में पानी, गमछे में सत्तू, कोई बर्तन नहीं।
हलवाहा का सत्तू गमछी में बांधकर बाल्टी में पानी के साथ ले जाया जाता था। गमछी पर सत्तू सान कर हलवाहा भोजन करते थे। हलवाहा के द्वारा भले ही किसान के द्वारा कम सत्तू दिया जाता हो परंतु बैल के लिए एक–एक मुट्ठी जरूर खिलाया जाता था। कम सत्तू होने पर घर में आकर मालकिन से शिकायत की जाती थी कि कम सत्तू दिया गया।
सत्तू भी कई प्रकार के होते थे
गरीबों के लिए अलग सत्तू । दरअसल सत्तू को हम लोग केवल चना का सत्तू के रूप में ही जानते हैं परंतु गरीब लोग अपने स्तर से हर चीज का रास्ता खोज लेते हैं । ऐसे में सत्तू गरीबों का भी अलग हुआ। मिलोना ( Mix) का सत्तू उसे कहते हैं । उसमें गेहूं, मकई, जौ, मसूर और बहुत कम चना।
बिसुआ पर्व पर सत्तू को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया। घर के देसी गाय का घी। देसी मिठ्ठा, चने का सत्तू मिलाकर आनंद पूर्वक ग्रहण किया।
:) बस धर्म या अधर्म का सत्तू बाजार में आना बाकी है|
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