28 फ़रवरी 2025

भूमिहार और शूद्र के बच्चे: सामाजिक समरसता की अनदेखी तस्वीर

भूमिहार और शूद्र के बच्चे: सामाजिक समरसता की अनदेखी तस्वीर

शिव विवाह के उपरांत माउर गांव में प्रसाद वितरण एवं भंडारे का आयोजन किया गया था। गुरुवार की दोपहर, मुझे भी मंदिर के पास बगीचे में पंगत पर बैठकर प्रसाद ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
प्रसाद ग्रहण करने के दौरान मेरी नजर एक दृश्य पर टिक गई—एक बुजुर्ग व्यक्ति के चारों ओर दो दर्जन से अधिक बच्चे लिपटे हुए हंसी-ठिठोली कर रहे थे। वे सभी उन्हें "बाबा" या "दादा" कहकर बुला रहे थे। यह आत्मीयता और अपनत्व का दृश्य था, जिसने मेरे मन में जिज्ञासा जगा दी। खैर, फिर सभी बच्चों को वहाँ बैठाकर कर प्रसाद दिया खिलाया गया। 

जब मैंने बुजुर्ग के बारे में पूछताछ की, तो जो जानकारी सामने आई, वह अचंभित करने वाली थी। वे राजेश्वर सिंह थे, जो जाति से भूमिहार थे, और उनके साथ खेलते ये सभी बच्चे वे थे, जिन्हें समाज में अक्सर "शूद्र," "दलित," या "वंचित" वर्ग का कहा जाता है। इनमें कोई चमार था, कोई पासवान, कोई कहार—यानी वे सभी, जिन्हें सामाजिक श्रेणीकरण की संकीर्ण दृष्टि से अलग-थलग रखा जाता है।

यह देखकर मन में एक सवाल उठा—आज के 'जय भीम' के दौर में ऐसी सकारात्मक तस्वीरों को क्यों नजरअंदाज किया जाता है? क्यों समाज की अच्छाइयों को उभारने के बजाय बुराइयों को ही बार-बार सामने लाया जाता है? जातिवाद और सामाजिक भेदभाव की कड़वी सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन यह भी सच है कि समाज में प्रेम, सद्भाव और समरसता की मिसालें भी हमेशा से रही हैं।

समाज सुधारकों ने वर्षों की मेहनत से सामाजिक दूरियों को मिटाने का प्रयास किया, और इसका असर भी स्पष्ट दिखता है। लेकिन आज की राजनीति और मीडिया में बुराइयों का प्रचार अधिक होता है, जबकि इस तरह के सकारात्मक बदलावों को दबा दिया जाता है।

यह घटना हमें बताती है कि समाज में सिर्फ भेदभाव ही नहीं, बल्कि अपनापन भी मौजूद है। जरूरत इस बात की है कि हम अच्छाइयों को भी उतनी ही प्रमुखता दें, जितनी बुराइयों को देते हैं। समाज को जोड़ने वाली कहानियों को साझा करें, ताकि प्रेम और भाईचारे की भावना और मजबूत हो।

23 फ़रवरी 2025

महाकुंभ का भेड़ियाधसान

महाकुंभ का भेड़ियाधसान

पटना के बिहार बोर्ड ऑफिस के बाहर लिट्टी चोखा खा रहा था। इसी बीच महाकुंभ के महा पुण्य और महा प्रताप के बीच एक लिट्टी वाले ने धर्म का तत्व ज्ञान दे दिया। दर असल, दुकान पर एक मानसिक दिव्यांग व्यक्ति आये। उनके चेहरे पर उत्तेजना थी। आचरण भी उत्तेजक लगा। पटना में ऐसे दिव्यांग पर भला कौन ध्यान देता है? सो मैं भी लिट्टी चोखा खाने में लग गया। 
मेरा ध्यान उस दिव्यांग की ओर तब गया जब वह लिट्टी चोखा बहुत आनंद से खा रहे थे । मैंने ने दुकान संचालक भाई से उस दिव्यांग के लिट्टी की राशि देने की इच्छा प्रकट की । तभी तत्व ज्ञान प्राप्त हुआ। दुकानदार भाई राधोपुर के रहने वाले थे। नाम उदय बताया। और कहा, 
"सर , ई तीन साल से रोजे आता है। चुपचाप बैठ जाता है। मैं भगवान् कि पूजा समझ रोज इसको लिट्टी चोखा का भोग लगाता हूँ। पैसा नहीं लेता। क्या पता, भगवान् ही हों...?"

मैंने कहा "भाई यह तो बड़ा पुण्य का काम कर रहे हो।"

वह खुल गया। बोला, 

"सर हमलोग का पाप, पुण्य कहाँ होता है। सुबह से रात तक काम करते है और थक के सो जाते हैं। पाप , पुण्य का हिसाब किताब भी पेट भरने के बाद ही आदमी लगाता है। अब देखिये, अभी कुंभ का भेड़ियाधसान है। मैं पुण्य कमाने नहीं जा सका। रोज ग्राहक की चिंता होती है।"

खैर, अभी महाकुंभ को भेड़ियाधसान कहा जा सकता है। जो लोग इसे सनातन की जागृति कह रहे, मैं इससे सहमत नहीं। महा कुंभ की दिव्यता राजनीति के वैभय में गुम गया। मैं धर्म शास्त्री नहीं हूँ। बिल्कुल नहीं। ढेर सारा पाप अपने हिस्से में है। थोड़ा थोड़ा पुण्य संचय कि उत्कंठा है। लोभ है। पर नास्तिक भी नहीं हूँ। चीजों को अपनी समझ से देखता हूँ। भीड़ की समझ से नहीं। और भोगे हुए सच को कहता हूं, बस। 

तब, 


"नहि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो।।"

यह श्लोक पालि भाषा में है और बौद्ध धर्मग्रंथ 'धम्मपद' से लिया गया है। इसका भावार्थ है, 

इस संसार में वैर (शत्रुता) से वैर कभी शांत नहीं होता। वैर केवल अवैर (अहिंसा, प्रेम और मैत्री) से ही समाप्त होता है। यही सनातन धर्म है।

और आज हम घोषित रूप से वैर से वैर समाप्त करने का जयघोष कर रहे। हमे डरा दिया गया है कि हम उनके जैसा कट्टर और क्रूर नहीं बनेगें तो अस्तित्व मिट जायेगा। और हम डर गए है। 

दुख की बात यह कि गाँव के गलियों से लेकर राष्ट्रीय फलक तक, धर्म से सरोकार नहीं रखने वाले धर्म ध्वजा के वाहक है। 

आप, हम, इसे नजर अंदाज कर देते है। पर चुभता सबको है। अभी आचरण से स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी का भी गला काट लेने से गुरेज नहीं करने वाला, लंपट, ठग, मनचला सभी धर्म ध्वजा का वाहक है। पर हमारे आचरण में धर्म नहीं उतरा। शास्त्रों और धर्मचारी कि माने तो धर्म धारण करने कि चीज है। आचरण, व्यव्हार में यदि धार्मिक नहीं तो धर्म कैसा..! 

खैर , जो बात चुभती है उसपर बोलना चाहिए। अभी महाकुंभ को लेकर मन में टीस है। एक खबर आई, बुढी माता को घर में बंद करके कुंभ स्नान में चला गया। ऐसी कई खबरें हैं। बात धार्मिक है, हम नजर अंदाज कर देते है। 

हमने नजर अंदाज कर दिया कि कुंभ में जाने के लिए कैसे कैसे पाप किये। सोंचिये, यदि दूसरे धर्म को मानने वाले अपने किसी धार्मिक आयोजन में जाने के लिए डेढ़ माह तक रोड और रेल मार्ग को ठप कर देता! रेल में सुई भर जगह नहीं होती। फ्री में रेल यात्रा करते। वातानुकूलित रेल के शीशे तोड़ कर उसपर कब्जा कर लेता, तब हम क्या कहते..? सोंचिये बस... बाकि अगली बार.. 










11 फ़रवरी 2025

हम बदलेगें, युग बदलेगा

 हम बदलेगें, युग बदलेगा  


यह कोई ज्ञान देने की बात नहीं है, बल्कि समझ की बात है। जितने अधिक लोगों के पास यह समझ होगी, उतना ही समाज का कल्याण होगा।

रणवीर इलाहाबादी और उनके साथ की लड़की इन दिनों अश्लील जोक्स के विवाद में हैं। विवाद का स्तर इतना निम्न है कि जो भी इसके बारे में जानता है, वह सहम जाता है। इलाहाबादी ने अपने माता-पिता के अंतरंग पलों का वर्णन सार्वजनिक मंच पर किया, और उस लड़की ने सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया।



अब, जैसा कि हम सोशल मीडिया पर अक्सर करते हैं, इस मुद्दे पर एक साथ 'हुआ-हुआ' शुरू हो गया। संस्कृति और सभ्यता की दुहाई दी जाने लगी। लेकिन जरा सोचिए, जब हर कोई इसकी निंदा कर रहा है, तो वे कौन लोग हैं जो मानसिक विकृति के शिकार इन लोगों को देख रहे हैं और सुन रहे हैं?


वे कौन हैं जिनकी वजह से इन्हें लाखों-करोड़ों दर्शक मिलते हैं? यही लोग इनकी अश्लीलता को बढ़ावा देते हैं, जिससे ये और अधिक गंदगी परोसने और बेचने लगते हैं। ये दर्शक कोई मंगल ग्रह के निवासी तो नहीं हैं, बल्कि हम में से ही हैं।


सबसे बड़ा सवाल यही है। हमारी मानसिकता उस सुअर की तरह हो गई है जो गंदगी खाने के लिए दौड़ लगाता है, लेकिन जब कोई पकड़ा जाता है, तो हम सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देने लगते हैं। यह ठीक वैसे ही है, जैसा आचार्य ओशो ने कहा था—"संत कहलाने की पहली शर्त यही है कि हर सामने वाले को चोर कहो।" खुद को संत कोई कैसे कहेगा? बस सबको चोर कहना आसान है। हमारे कथा-वाचक भी इसी तरह की बातें करते हैं।


ओशो की एक और बात याद आती है—हजारों सालों से कहा जाता रहा कि हमारे शास्त्र सभ्यता और संस्कृति की शिक्षा देते हैं, लेकिन फिर भी समाज असभ्य और अपसंस्कृति की ओर क्यों बढ़ गया? इसका मतलब या तो हमारे सभ्यता, संस्कृति गलत हैं या हमारी पढ़ाई।


आज के दौर में हमारे आम घरों की महिलाएं सोशल मीडिया पर दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या-क्या नहीं कर रही हैं। महज उरोज की एक झलक दिखाकर लाखों दर्शकों को लुभा लिया जाता है। इतना ही नहीं, कैमरे के सामने जानबूझकर अनुचित हरकतें करके व्यूज बटोरे जाते हैं, और यह सब हमारे आस-पास की लड़कियाँ, नवविवाहिताएँ और यहाँ तक कि बुजुर्ग महिलाएँ भी कर रही हैं।


यह समस्या केवल भारत में नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया इसी प्रवृत्ति में डूबी हुई है। इसका सीधा अर्थ यह है कि हम पुरुष पूरी दुनिया में समान रूप से छिछोरेपन के शिकार हैं।

हाल ही में, मेरे इलाके में रंगा यादव नाम के एक व्यक्ति ने कॉमेडी के नाम पर बच्चे के साथ आपत्तिजनक हरकतें कीं, जिस पर बाल संरक्षण इकाई ने संज्ञान लिया। मैंने इस पर एक खबर बनाई, फिर  यूट्यूबर ने इस खबर को लेकर वीडियो बनाया और सबको चुनौती दे डाली।


तो सवाल फिर वही है—ये लोग ऐसा कर क्यों रहे हैं? इसका जवाब सीधा-साधा है: क्योंकि हम ही इन्हें पसंद करते हैं। हमें अच्छे कॉमेडी, अच्छे अभिनय और सार्थक सामग्री उतनी नहीं भाती, जितनी यह सस्ती और भद्दी चीजें। बाजार में वही बेचा जाता है, जिसकी मांग सबसे अधिक होती है। अगर हमें बदलाव लाना है, तो पहले हमे बदलना होगा। आचार्य पंडित श्री राम शर्मा ने कहा है, हम बदलेंगे, युग बदलेगा।

02 फ़रवरी 2025

इस महा कुम्भ के वैभव और विलासिता में बहुत कुछ डूब गया

इस  महा कुम्भ के वैभव और विलासिता में बहुत कुछ डूब गया


सोशल मीडिया। मुख्य मीडिया। आधा सच। आधा झूठ। इसी का पर्याय। बस इसी से हर बात पर न तो पोस्ट न ही टिपण्णी। बस, मौन होकर, टुकुर टुकुर देखने का मन करता है। 


इस बीच। प्रयाग का महाकुंभ। मोनालिसा। आईआईटी बाबा। ममता कुलकर्णी। सुंदरी हर्षा। यहां से होते हुए महाकुंभ का वैभव। विलासिता। मंहगे सुइट । 

महा प्रचार। महा भीड़। महान महान नेता। महा आडंबर। महा भोज। महा धर्म। महा जाम। महा यात्रा। महा अखाड़ा। सब कुछ ।

बेचैन मन। शब्द गढ़ने लगे। बात प्रयागराज के भगदड़ से। कितनी लाशें। कौन दोषी। कौन निर्दोष। कौन गिद्ध। कौन भेड़िया। कौन कौन बाघ।

धीरे धीरे सब पटल पर आ गया। महाकुंभ को महा वैभवशाली बनाया गया। महा प्रचार हुए। अरबों अरब पानी की तरह बहे। नतीजा क्या..? संगम के किनारे आधी रात को लोग कुचल गए। अब लाशों को छुपाने के लिए कैमरे को बंद कराया जा रहा। बस यही इस बात का प्रमाण है कि महा कुम्भ के इस सबसे बड़े अमृत महोत्सव में भी हम भगवान से नहीं डरते। 

खैर, बात सिर्फ लाशों को गिनने भर की नहीं है। बात यह भी है कि सनातन में कर्म की प्रधानता के सिद्धांत के बीच आज चारों ओर आडंबर है। यह आडंबर तब भी दिखा जब कोई मात्र एक साल पहले घर से भागा युवक कैमरा के सामने स्वयं को आईआईटी मुंबई का विद्यार्थी जानबूझ के बताता है। बस लोग उसके पीछे भागने लगे। ऐसा भागे कि कुंभ भूमि का वैराग्य उसी में समा के रह गया। वह निकला क्या, एक नशेड़ी, जिसकी बातों में गांभीर्य नहीं। गहराई नहीं। वह खुद को भगवान बताने लगा। उथली बातें मोबाइल पर वायरल हुई। बस। 

आचार्य ओशो ने तो कहा ही है, जब हम अपने साथ अपना धन, पद, प्रतिष्ठा लेकर चलते है तो वैराग्य नहीं है। और आम जन भी किसी हमेशा इसी के पीछे भागते है। सन्यासी कितना बड़ा धनी था, पद प्रतिष्ठा कितना छोड़ा। 


मतलब कि। मयान की कीमत अधिक। तलबार की नहीं।

कबीर ने कहा है,

जात न पूछो साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार की, पड़न रहे दो म्यान।।

खैर, 
यह आडंबर तब भी दिखा जब एक माला बेचने वाली मोनालिसा की खूबसूरत आँखें वायरल हो गई। यूट्यूब मोबाइल वालों ने उसे इसे पकड़ा जैसे कोई बाज अपना शिकार पकड़ता हो। और सनातन का सारा पुण्य लाभ उसी आंखों में समाता चला गया और वह वायरल हो गई। इसमें से एक भी सम्पन्न सज्जन ऐसा न होगा, जो उस बेचारी को ब्याह कर अपना घर ले आए।

यह आडंबर तब भी दिखा यह एक सुन्दरी लड़की हर्षा और एक अभिनेत्री ममता महा कुम्भ में आ गई। हमारा कैमरा उसी पर फोकस हुआ और हमारा मन उसी में रम गया। 

सभी ने एक से रिल्स बनाए। लाइव किया। धर्म नहीं जिया। पता ही नहीं चला कि रील बनाने गए या कुंभ स्नान में।

फिर सुंदरियों के यौवन की अश्लीलता में महा डुबकी लगाते हम डूबते, उतराते रहे।

फिर उसी में दिखा कई हठ योगी। जिसके अंदर संतत्व नहीं था। चिमटे से वह सबको चिपकाता रहा।

फिर इसमें शामिल हुए हमलोग। जो धर्म के इस लूट में से अपना हिस्सा लेने ऐसे भागे जैसे सदियों से कोई भूखा भोजन पर टूटता है। और अंत में एक दूसरे को कुचल कर मार देते है। 

पुण्य लूटने हमने रेलगाड़ी पर कब्जा कर लिया। दरवाजा बंद। यह भी नहीं देखा कि जिनका रिजर्वेशन है उनमें से किसी को इलाज से लिए दिल्ली जाना था। कई को कमाने विदेश। 

इसी आडम्बर में यह भी दिखा कि अपने ने एक महिला को कुंभ लाकर नशीली दवाई देकर स्टंप पर अंगूठा लगा लिया।



सब कुछ दिखा पर कुरुक्षेत्र , धर्म क्षेत्र में धर्म कहीं जाकर छुप गया। वह दिखा ही नहीं।।

दिखता, या होता तो हम पुण्य लाभ के लिए नदी किनारे सोए आदमी को कुचल कर लाश में नहीं बदलते। हम लाशों को नहीं छुपाते। धर्म को हम आचरण में धारण करते। पर हमेशा की तरह राम, कृष्ण सरीखे  के चरित्र को हम कथाओं, लीलाओं में सुनकर आह्लादित होते है और उसी चर्चा करते हुए दूसरे को उपदेश देते है। 

अगर ऐसे नहीं होता तो हम जानते की भागवत महापुराण में हमारे युगांधर भगवान कृष्ण ने भी कर्म को प्रधान माना। और इसीलिए भगवान कृष्ण का अंत भयावह रूप में वर्णित है। एक बहेलिए के तीर पांव में लगने भर से वे तड़प कर अकेल मर गए। उनके कुल का नाश हो गया। वैभवशाली द्वारिका समुद्र में समा गई। 

खैर, मैं कोई धर्माचार्य तो हूं नहीं, जो उपदेश दूं। न ही बहुत गहरी समझ है।

पर एक आम आदमी के मन में भी पीड़ा होती है। इसीलिए वह कभी कभी उल्टी कर देता है। 

पीड़ा तो यह भी होती है कि कैसे वैभवशाली महाकुंभ के इस महा भीड़ में गिद्ध की तरह कुछ लोग ताक में थे, कब लाशें गिरे और वे तांडव करें। सोशल मीडिया वाले क्रांतिकारी का भी अपना अपना साम्राज्य है। अपने लंपटों के वाहवाही से वे भी उसी तरह खुशी में नाचने लगते है जैसे मोरनी को रिझाने, मोर नाचता है। मोर को नहीं पता होता कि इससे उसके पैर भी दिख जाते है।

खैर, मुद्दा, मामला यह की यहां तक कोई बिरला ही इसे पढ़ेगा। इतना धैर्य अब किसके पास। फिर भी, महा कुम्भ एक भीड़ है। और ओशो कह गए है। भीड़ के पास अपना कुछ भी नहीं होता। न अपनी समझ, न अपना स्वत। न ही अपना बोध। न अपना धर्म। वह बस एक भीड़ होता है। भीड़।

और ओशो ने यह भी कहा है, सदियों से हमारा धर्म, धार्मिक ग्रन्थ, शास्त्र हमे मानवता, संवेदना, धार्मिकता का पाठ पढ़ा रहे और आज हम स्वयं कहते है कि मानवता, संवेदना, धार्मिकता का ह्रास हुआ है, तब हमे जो पाठ पढ़ाया जा रहा उसमें जरूर कुछ न कुछ त्रुटि रही होगी...तभी ऐसा हुआ। 

अब अंध धार्मिकता का ऐसा नशा चढ़ा कि कुंभ में मौत पर कोई बाबा कहता है कि मोक्ष मिला और हम प्रतिकार भी नहीं करते।

और अंत में एक बात। इस भगदड़ में लाशे गिरने और गिनने की होड़ के बीच इसमें दोषी कौन है, यह सबसे  सवाल है। और जबाव बहुत सरल है। दोषी वह है जिसने इसे अति वैभवशाली बताया, बनाया। दोषी वह है जिसके कैमरे ने वैभव और विलासिता ही दिखाई, कमी नहीं! सबसे बड़ा दोषी वह है जो पुण्य लूटने आदमी को लाश में बदलने में भी नहीं चूकता। बस