18 अप्रैल 2025

बक्फ बोर्ड: दिल्ली से मुर्शिदाबाद तक



बक्फ बोर्ड: दिल्ली से मुर्शिदाबाद तक


अरुण साथी

बक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक को लेकर देश के एक वर्ग में तीव्र विरोध देखने को मिल रहा है। इसके राजनीतिक, संवैधानिक, कानूनी और धार्मिक आयामों पर सभी के अपने-अपने दृष्टिकोण हैं। कहीं तर्क हैं, तो कहीं कुतर्क। निरपेक्षता के साथ किसी बात को रखने की संभावनाएं लगातार कम होती जा रही हैं। ऐसे समय में सामाजिक और धार्मिक पहलुओं को आम आदमी के नजरिए से समझना आवश्यक हो जाता है।
2014 के बाद से देश के मुसलमानों और कट्टर मोदी विरोधियों की ओर से किसी भी विषय पर तटस्थ विचार नहीं आता। वे न तो इस आधार पर समर्थन करते हैं कि कुछ अच्छा हो रहा है, न ही इस आधार पर विरोध करते हैं कि कुछ गलत है। केवल इस कारण से विरोध या समर्थन होता है कि वह कदम नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा उठाया गया है। किसान बिल, तीन तलाक, सीएए आदि इसके उदाहरण हैं।

अब जब केंद्र सरकार ने संसद में बहुमत के साथ बक्फ कानून में संशोधन प्रस्तुत किया है, तो विरोध भी उसी पैटर्न पर सामने आया है। विरोध की तीव्रता मुर्शिदाबाद में हुए दंगों में दिखती है, और उतनी ही प्रमुखता से इस पर मोदी विरोधी वर्ग की चुप्पी या 'किंतु–परंतु' के साथ बात रखने की प्रवृत्ति भी।

सोशल मीडिया के इस युग में 'कथित क्रांतिजीवी' इसलिए पोस्ट करते हैं कि उनके दर्शक क्या पसंद करेंगे, न कि इसलिए कि उसमें सत्य है। यह प्रवृत्ति दोनों पक्षों में है। उदाहरण के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने बक्फ बोर्ड को लेकर जो टिप्पणियाँ कीं, उसे कुछ लोगों ने संशोधन विधेयक पर रोक (स्टे) के रूप में प्रचारित किया, जबकि वास्तविकता यह नहीं थी।

बिल की तकनीकी और कानूनी व्याख्या विशेषज्ञों पर छोड़ दें। चर्चा सामाजिक और धार्मिक पहलुओं की होनी चाहिए।

शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटना तुष्टिकरण की पराकाष्ठा था। दुर्भाग्यवश, वर्तमान सरकार ने भी इसी राह पर चलते हुए अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट कर वही गलती दोहराई। वोट बैंक के लिए किया गया यह निर्णय भी समाज के लिए हानिकारक रहा।

सामाजिक और धार्मिक सुधार के लिए कठोर कानूनों की आवश्यकता होती है। अंग्रेजी राज में भी सती प्रथा जैसी राक्षसी प्रथा को खत्म करने के लिए कड़ा रुख अपनाया गया, जिससे बड़ा सामाजिक बदलाव संभव हुआ।

बक्फ संशोधन का विरोध मुसलमानों के बौद्धिक वर्ग द्वारा एक स्वर में हो रहा है, कुछ अपवादों को छोड़कर। झारखंड के एक विधायक ने यहाँ तक कह दिया कि "शरियत संविधान से ऊपर है।" जब दूसरे मुद्दे होते हैं, तब संविधान सर्वोच्च होता है, पर जब बात अपने धर्म की आती है तो शरियत आगे...!

बक्फ कानून को एक शेर के माध्यम से समझिए—

"मेरा क़ातिल ही मेरा मुंशीफ़ है,
क्या मेरे हक में फैसला देगा...?"

सरकार ने संशोधन में 'मुंशीफ़' यानी सदस्य
को स्वतंत्र रखने का प्रावधान किया है। यही बात असहनीय बन गई है।

यह भी समझना चाहिए कि हिन्दुओं के मठ, मंदिर, गौशाला जैसी संस्थाओं पर पहले से ही सरकार का सीधा नियंत्रण है। इनकी जमीनों की सुरक्षा के लिए यह जरूरी भी है। देश के किसी गांव, टोले, शहर में शायद ही ऐसा कोई स्थान हो जहां मठ, मंदिर की जमीन को लेकर संघर्ष न हुआ हो। कई जगह हत्याएं तक हुईं। मेरे अपने क्षेत्र—शेखपुरा और बरबीघा में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं। कई मामले अभी भी हाईकोर्ट में विचाराधीन हैं।

कई मठाधीशों ने दान की गई जमीनें औने-पौने दाम पर माफियाओं को बेच दीं। ऐसे में धार्मिक न्यास बोर्ड जैसे संस्थानों का गठन कर सरकार ने नियंत्रण स्थापित किया। इसमें सेवानिवृत्त अधिकारियों को अध्यक्ष नियुक्त किया गया। बिहार में आचार्य किशोर कुणाल जैसे संत इसके अध्यक्ष रहे हैं।

यहाँ तक कि इस बोर्ड का अध्यक्ष किसी भी धर्म का हो सकता है। अभी हाल ही में बिहार धार्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष एक जैन धर्मावलंबी थे।

मठ, मंदिर और गौशाला समितियों का पदेन अध्यक्ष स्थानीय अनुमंडल पदाधिकारी (SDO) होते हैं, जो किसी भी धर्म के हो सकते हैं—यहाँ तक कि मुसलमान भी। और कई स्थानों पर हैं भी।

सोचिए, क्या इस बदलाव को लेकर कभी हिन्दुओं ने बवाल किया? नहीं। उन्होंने इसे सहजता से स्वीकार किया।

बस, यही अपेक्षा मुसलमान समाज से भी की जाती है कि वे भी सामाजिक और धार्मिक बदलावों को उतनी ही सहजता और उदारता से स्वीकार करें। बस.. 


-

12 अप्रैल 2025

प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार: बिहार की राजनीति के दो दृश्य


प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार: बिहार की राजनीति के दो दृश्य

प्रशांत किशोर को लेकर पहले भी कहा था—अखाड़े के बाहर से पहलवान को लड़वाना और अखाड़े में उतरकर खुद पहलवानी करना, ये दो अलग-अलग बातें हैं। अखाड़ा में पहलवान की जीत होती है। 

गांधी मैदान की रैली में प्रशांत किशोर दूसरी बार असफल रहे। उनका चार घंटे देर से आना और झुंझलाकर आठ मिनट में चले जाना, इस असफलता का ही संकेत था।
असफल इस लिए कि जितनी तैयारी थी, उतने लोग नहीं आये। और तैयारी इतनी हुई कैसे..? हवा हवाई नेताओं ने भरोसा दिया होगा। 

उधर, कन्हैया कुमार ने दम दिखाया। मुख्यमंत्री आवास घेराव का आंदोलन लगभग सफल रहा। "लगभग" इसलिए कि कांग्रेस की अंदरूनी कमजोरी अब भी जस की तस है—एक ओर लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को अपनी राजनीति में समाहित कर लिया है, दूसरी ओर कांग्रेस के नेता अब भी सत्ता सुख के आदि हैं, संघर्ष और सड़कों पर उतरना उनकी राजनीति का हिस्सा अब नहीं रहा।
अब फिर प्रशांत किशोर पर लौटते हैं। गांधी मैदान की रैली की असफलता दरअसल प्रशांत किशोर की असफलता है। सबसे बड़ी बात यह कि वे एक 'कंपनी मॉडल' के सहारे बिहार की राजनीति बदलना चाहते हैं, जबकि बिहार की राजनीति जमीनी हकीकत से चलती है, कॉर्पोरेट स्ट्रैटजी से नहीं। वे अपनी कंपनी के कर्मचारियों के भरोसे बदलाव की बात कर रहे हैं, जो शायद ही संभव है।
प्रशांत किशोर को एक 'मास्टर स्ट्रैटजिस्ट' कहा जाता है, पर यह समझ से परे है कि रणनीति का यह कैसा मॉडल है, जहां उनकी कंपनी के लोग मुझे खुद पटना कवरेज के लिए बुलाने लगे। मैंने उन्हें फटकार लगाई—कंपनी को ज़मीनी सच्चाई की ज़रा भी समझ नहीं!

रैली की नाकामी एक और बात साफ करती है—प्रशांत द्वारा आयातित, अतिमहत्वाकांक्षी नेताओं की पोल खुल गई है। एक विधानसभा सीट पर दो दर्जन उम्मीदवार, सभी धनाढ्य, सभी टिकट के दावेदार। सभी एक दूसरे को गिरा कर ही टिकट पाने की दौड़ में है। 

और टिकट न मिलने पर वही उम्मीदवार निर्दलीय बनकर पार्टी को ही हराने पर आमादा!


 यही हाल है। प्रशांत किशोर सोशल मीडिया मैनेजमेंट में माहिर माने जाते हैं, लेकिन जब खुद पर बात आई, तो वह भी फेल हो गया। रैली से पहले ही सुबह से कई दिग्गज मीडिया के खिलाडी इसे फ्लॉप बता रहे थे—कारण सबको पता है। मैनेजमेंट..! ऐसे में सवाल उठता है: क्या वाकई सफल हो पाएंगे प्रशांत?

अब बात कन्हैया कुमार की। वह वाम विचारधारा से ऊर्जा पाकर उभरे बेगूसराय के ऐंठल छोरा हैं। कांग्रेस ने उन्हें अब एक 'प्रयोग' के तौर पर उतारा है। मुख्यमंत्री आवास घेराव में जो भी हुआ, वह कांग्रेस के लिहाज से उल्लेखनीय है। कन्हैया की मौजूदगी से कांग्रेस को लालू यादव की परछाईं से बाहर निकालने की एक उम्मीद दिख रही है। यह उम्मीद अब गांव की चौपालों में भी चर्चा का विषय बन रही है।

लेकिन इसी बीच कांग्रेस के 'मठाधीश' खुले तौर पर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा मानने की बात कह रहे हैं, जबकि कांग्रेस का आधिकारिक रुख यह है कि इसका फैसला चुनाव बाद किया जाएगा। यह सब दरअसल सीटों के मोलभाव का खेल है, जिसे सब समझते हैं।

बहरहाल, बिहार में कन्हैया कुमार की जोरदार लॉन्चिंग हुई है। अगर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सीटों को लेकर सौदेबाजी की मजबूत स्थिति में पहुंचती है, तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। और अगर कन्हैया को पांच साल तक बिहार में रणनीति के तहत लगातार काम करने दिया गया, तो कांग्रेस की मृतप्राय स्थिति में नई जान आ सकती है और बिहार को लालू यादव के भूत के भय से मुक्ति मिलेगी। तेजस्वी यादव का नई पीढी में आज नहीं तो कल, मेरे अलावा कौन का अहंकार टूटेगा। क्योंकि उप मुख्यमंत्री रहते अपने मंत्री से भी नहीं मिल पाने वाले की बात जगजाहिर है। 

लेकिन अनुभव कहता है कि पिछले दो-तीन दशकों में कांग्रेस ने रणनीति के नाम पर रामजतन सिन्हा, अनिल सिंह, अशोक चौधरी जैसे कई नेताओं को कुछ समय की मोहलत दी, वे कोशिश किये और फिर अचानक खुद ही उन्हें किनारे कर, आत्मघाती गोल कर लिया। यही नहीं दोहराया जाए—बस यही उम्मीद हो... 

04 अप्रैल 2025

मेला, बेटी और रोटी

मेला, बेटी और रोटी

आज अहले सुबह मालती पोखर सूर्य मंदीर  पर चैती छठ पर जहाँ सुबह सुबह लोग श्रद्धा का अर्घ्य देने जा रहे थे वहीं एक माँ और उसके दो बच्चे अपनी रोटी कमाने जाते मिले। माता और दोनों बच्चों के माथे पर भारी बोझ था। ऐसे, जैसे वह भूख का बोझ उठाये हो। सभी मेला में दुकान लगाने जा रहे थे। 
खैर, उनमें एक छोटी बेटी थी। उससे इस कच्ची उम्र में भारी बोझ नहीं संभल  रहा था। वह अपनी माता को आवाज दे रही थी।

 "मम्मी, बहुत भारी हो..!"

मम्मी ने कोई ध्यान नहीं दिया। शायद उसका अपना बोझ भी भारी ही था। 

वह बढ़ती जा रही थी। मम्मी को आवाज लगा रही थी। मैं उसके पीछे था। लगा की उसे सहारा दे दूँ, पर एक मन ने कहा, 


"नहीं, सहारा मिलते ही वह कमजोर होगी। लड़ने दो उसे। लड़ने में हमेशा जीत हो, यह जरूरी नहीं। पर लड़ने वाला ही जीतेगा, यह जरूरी है।"

वह बेटी चलती रही और मेला स्थान पर पहुँच गयी।

14 मार्च 2025

करेजा ठंडा रखता है...!

करेजा ठंडा रख 

होलिका दहन की अगली सुबह बासी भात और झोड़ (करी) खाने की परंपरा है। अपने घर में अभी तक इसका पालन किया जा रहा है।  

 माय कहती थी कि इससे करेजा ठंडा रहता है। पता नहीं यह परंपरा क्यों बनी, पर अभी तक चल रही है। पता नहीं यह और कहाँ कहाँ चलन मे है।

वैसे अभी देश में कई लोगों को करेजा ठंडा रखने की जरूरत है। बिना वजह छोटी-छोटी बातों को धार्मिक उन्माद का रूप दिया जा रहा है । कोई रंग नहीं खेलने पर अड़ा हुआ है तो कोई रंग लगाने को लेकर अड़ गया है। 

यह धार्मिक कट्टरपन प्रायोजित रूप से खड़ा कर दिया जाता है। 

इस विवाद में पड़कर आपसी सौहार्द खत्म हो रहे हैं। नतीजा धार्मिक स्थलों को ढकने तक आ गई है। रंगों का त्यौहार है और हमने मुस्लिम साथियों के साथ प्रत्येक वर्ष होली खेली है। 

 इस वर्ष भी रोजेदार मित्रों ने होली मिलन समारोह में होली खेली। रंग गुलाल लगाया। होली गाये। यहां तक की रोजेदार डॉक्टर फैजल अरशद ने मंगलाचरण गाया। 

ऐसी ऐसी छोटी-छोटी अच्छी बातें देश भर में कई जगह होती है परंतु इसकी चर्चा देश में नहीं होती है। चर्चा नफरत की होगी। 

चर्चा धार्मिक कट्टरपन का होगा। चर्चा रंग नहीं लगाने की होगी। चर्चा रंग लगाकर नमाज नहीं पढ़ने की होगी । चर्चा जबरदस्ती रंग लगाने की होगी। धार्मिक उन्माद , धार्मिक कट्टरपंथी से सामाजिक सौहार्द बिगड़ रहा है रंगोत्सव के उत्सव में भी भंग घोल दिया। 

13 मार्च 2025

बाजार में प्रधानमंत्री की अपील का होली में दिखा असर

प्रधानमंत्री की अपील का दिख रहा है असर 

होली के अवसर पर प्रधानमंत्री के अपील लोकल फॉर भोकाल का असर दिखाई पड़ रहा है ।  बाजार में हमेशा की तरह चाइनीस पिचकारी की प्रचुरता दिखाई नहीं पड़ती है। 

भारतीय पिचकारी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। पूछने पर दुकानदारों ने बताया कि भारतीय पिचकारी ही चीनी पिचकारी से कम कीमत पर उपलब्ध है । 
और खोजबीन करने पर पता चला की लोकल और भोकल अभियान में इसका असर हुआ है ।  बाजार में लोकल निर्माण किए गए सामग्री की खरीद बढ़ने से दुकानदारों में भी रुचि बढ़ी और इसका निर्माण भी अधिक होने लगा। 
 चाइनीस सामान से थोड़ी कम गुणवत्ता का भारतीय सामान भले है परंतु इसकी कीमत भी चीनी से कम है ।  इस वजह से इस बार बाजार में भारतीय पिचकारी की धूम देखी जा रही है। लोकल  का असर इसे माना जा सकता है और आम लोगों के द्वारा इसके लिए किया गया प्रचार भी असरदार है। 
तस्वीरों में होली का बाजार

11 मार्च 2025

क्रूरता बनाम मानवता

क्रूरता बनाम मानवता


यह एक मुश्किल दौर है। तर्क, कुतर्क के सहारे हमे कट्टरपंथी बन जाने के लिए प्रेरित किया जा रहा। सवाल उठाये जा रहे। धर्म के बचने की। 
कबिलाई संघर्ष को हम इसी रूप में जानते हैं। एक कबीले के लोग दूसरे कबीले के लोगों को मार देते थे और दूसरे कबीले के लोग भी यही करते थे और उस युग को हम कभी कबीला युग कहते हैं। आज कम या ज्यादा, वही दौड़ पूरी दुनिया में है। 
यह सभ्यताओं का संघर्ष है।  यह चलता रहेगा। 

जब तालिबानियों ने पढ़ने के सवाल पर मलाला को गोली मार दी थी तो  दुनिया ने कोहराम मचाया था। 
जब  शर्ली हब्दो में केवल धार्मिक कार्टून बनाने के लिए कई लोगों को मार दिया गया तब भी दुनिया में हंगामा मचा। 
कई दिशाओं में यह संघर्ष जारी है। हम क्रूरता की ओर बढ़े या मानवता की ओर, इसके लिए भी संघर्ष हो रहा है। इसके लिए भी तर्क और कुतर्क गढ़े जा रहे हैं।  

कुछ लोग क्रूरता, घृणा चुन रहे हैं तो कुछ लोग मानवता, संवेदनशीलता और प्रेम और भाईचारे को।  

हम लोगों ने होली मिलन समारोह में प्रेम और भाईचारे को चुना ।  होली मिलन में ही इफ्तार पार्टी का आयोजन कर अपने साथियों के लिए रोजा खोलने की व्यवस्था की। चर्च के फादर भी उपस्थित रहे । इसी मंच से डॉक्टर फैजल अरशद ने होली की टोली  के साथ मिलकर करताल बजाकर खूब आनंद लिया। जबकि मंगल चरण और महामृत्युंजय का गायन भी उन्होंने किया


 हमारे साथी शब्बीर हुसैन बंटी, इरशाद गणी, फादर क्रिस्टोफर और प्रिंस पीजे, एक साथ होली का उत्सव मनाया, बात खत्म.. 

28 फ़रवरी 2025

भूमिहार और शूद्र के बच्चे: सामाजिक समरसता की अनदेखी तस्वीर

भूमिहार और शूद्र के बच्चे: सामाजिक समरसता की अनदेखी तस्वीर

शिव विवाह के उपरांत माउर गांव में प्रसाद वितरण एवं भंडारे का आयोजन किया गया था। गुरुवार की दोपहर, मुझे भी मंदिर के पास बगीचे में पंगत पर बैठकर प्रसाद ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
प्रसाद ग्रहण करने के दौरान मेरी नजर एक दृश्य पर टिक गई—एक बुजुर्ग व्यक्ति के चारों ओर दो दर्जन से अधिक बच्चे लिपटे हुए हंसी-ठिठोली कर रहे थे। वे सभी उन्हें "बाबा" या "दादा" कहकर बुला रहे थे। यह आत्मीयता और अपनत्व का दृश्य था, जिसने मेरे मन में जिज्ञासा जगा दी। खैर, फिर सभी बच्चों को वहाँ बैठाकर कर प्रसाद दिया खिलाया गया। 

जब मैंने बुजुर्ग के बारे में पूछताछ की, तो जो जानकारी सामने आई, वह अचंभित करने वाली थी। वे राजेश्वर सिंह थे, जो जाति से भूमिहार थे, और उनके साथ खेलते ये सभी बच्चे वे थे, जिन्हें समाज में अक्सर "शूद्र," "दलित," या "वंचित" वर्ग का कहा जाता है। इनमें कोई चमार था, कोई पासवान, कोई कहार—यानी वे सभी, जिन्हें सामाजिक श्रेणीकरण की संकीर्ण दृष्टि से अलग-थलग रखा जाता है।

यह देखकर मन में एक सवाल उठा—आज के 'जय भीम' के दौर में ऐसी सकारात्मक तस्वीरों को क्यों नजरअंदाज किया जाता है? क्यों समाज की अच्छाइयों को उभारने के बजाय बुराइयों को ही बार-बार सामने लाया जाता है? जातिवाद और सामाजिक भेदभाव की कड़वी सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन यह भी सच है कि समाज में प्रेम, सद्भाव और समरसता की मिसालें भी हमेशा से रही हैं।

समाज सुधारकों ने वर्षों की मेहनत से सामाजिक दूरियों को मिटाने का प्रयास किया, और इसका असर भी स्पष्ट दिखता है। लेकिन आज की राजनीति और मीडिया में बुराइयों का प्रचार अधिक होता है, जबकि इस तरह के सकारात्मक बदलावों को दबा दिया जाता है।

यह घटना हमें बताती है कि समाज में सिर्फ भेदभाव ही नहीं, बल्कि अपनापन भी मौजूद है। जरूरत इस बात की है कि हम अच्छाइयों को भी उतनी ही प्रमुखता दें, जितनी बुराइयों को देते हैं। समाज को जोड़ने वाली कहानियों को साझा करें, ताकि प्रेम और भाईचारे की भावना और मजबूत हो।

23 फ़रवरी 2025

महाकुंभ का भेड़ियाधसान

महाकुंभ का भेड़ियाधसान

पटना के बिहार बोर्ड ऑफिस के बाहर लिट्टी चोखा खा रहा था। इसी बीच महाकुंभ के महा पुण्य और महा प्रताप के बीच एक लिट्टी वाले ने धर्म का तत्व ज्ञान दे दिया। दर असल, दुकान पर एक मानसिक दिव्यांग व्यक्ति आये। उनके चेहरे पर उत्तेजना थी। आचरण भी उत्तेजक लगा। पटना में ऐसे दिव्यांग पर भला कौन ध्यान देता है? सो मैं भी लिट्टी चोखा खाने में लग गया। 
मेरा ध्यान उस दिव्यांग की ओर तब गया जब वह लिट्टी चोखा बहुत आनंद से खा रहे थे । मैंने ने दुकान संचालक भाई से उस दिव्यांग के लिट्टी की राशि देने की इच्छा प्रकट की । तभी तत्व ज्ञान प्राप्त हुआ। दुकानदार भाई राधोपुर के रहने वाले थे। नाम उदय बताया। और कहा, 
"सर , ई तीन साल से रोजे आता है। चुपचाप बैठ जाता है। मैं भगवान् कि पूजा समझ रोज इसको लिट्टी चोखा का भोग लगाता हूँ। पैसा नहीं लेता। क्या पता, भगवान् ही हों...?"

मैंने कहा "भाई यह तो बड़ा पुण्य का काम कर रहे हो।"

वह खुल गया। बोला, 

"सर हमलोग का पाप, पुण्य कहाँ होता है। सुबह से रात तक काम करते है और थक के सो जाते हैं। पाप , पुण्य का हिसाब किताब भी पेट भरने के बाद ही आदमी लगाता है। अब देखिये, अभी कुंभ का भेड़ियाधसान है। मैं पुण्य कमाने नहीं जा सका। रोज ग्राहक की चिंता होती है।"

खैर, अभी महाकुंभ को भेड़ियाधसान कहा जा सकता है। जो लोग इसे सनातन की जागृति कह रहे, मैं इससे सहमत नहीं। महा कुंभ की दिव्यता राजनीति के वैभय में गुम गया। मैं धर्म शास्त्री नहीं हूँ। बिल्कुल नहीं। ढेर सारा पाप अपने हिस्से में है। थोड़ा थोड़ा पुण्य संचय कि उत्कंठा है। लोभ है। पर नास्तिक भी नहीं हूँ। चीजों को अपनी समझ से देखता हूँ। भीड़ की समझ से नहीं। और भोगे हुए सच को कहता हूं, बस। 

तब, 


"नहि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो।।"

यह श्लोक पालि भाषा में है और बौद्ध धर्मग्रंथ 'धम्मपद' से लिया गया है। इसका भावार्थ है, 

इस संसार में वैर (शत्रुता) से वैर कभी शांत नहीं होता। वैर केवल अवैर (अहिंसा, प्रेम और मैत्री) से ही समाप्त होता है। यही सनातन धर्म है।

और आज हम घोषित रूप से वैर से वैर समाप्त करने का जयघोष कर रहे। हमे डरा दिया गया है कि हम उनके जैसा कट्टर और क्रूर नहीं बनेगें तो अस्तित्व मिट जायेगा। और हम डर गए है। 

दुख की बात यह कि गाँव के गलियों से लेकर राष्ट्रीय फलक तक, धर्म से सरोकार नहीं रखने वाले धर्म ध्वजा के वाहक है। 

आप, हम, इसे नजर अंदाज कर देते है। पर चुभता सबको है। अभी आचरण से स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी का भी गला काट लेने से गुरेज नहीं करने वाला, लंपट, ठग, मनचला सभी धर्म ध्वजा का वाहक है। पर हमारे आचरण में धर्म नहीं उतरा। शास्त्रों और धर्मचारी कि माने तो धर्म धारण करने कि चीज है। आचरण, व्यव्हार में यदि धार्मिक नहीं तो धर्म कैसा..! 

खैर , जो बात चुभती है उसपर बोलना चाहिए। अभी महाकुंभ को लेकर मन में टीस है। एक खबर आई, बुढी माता को घर में बंद करके कुंभ स्नान में चला गया। ऐसी कई खबरें हैं। बात धार्मिक है, हम नजर अंदाज कर देते है। 

हमने नजर अंदाज कर दिया कि कुंभ में जाने के लिए कैसे कैसे पाप किये। सोंचिये, यदि दूसरे धर्म को मानने वाले अपने किसी धार्मिक आयोजन में जाने के लिए डेढ़ माह तक रोड और रेल मार्ग को ठप कर देता! रेल में सुई भर जगह नहीं होती। फ्री में रेल यात्रा करते। वातानुकूलित रेल के शीशे तोड़ कर उसपर कब्जा कर लेता, तब हम क्या कहते..? सोंचिये बस... बाकि अगली बार.. 










11 फ़रवरी 2025

हम बदलेगें, युग बदलेगा

 हम बदलेगें, युग बदलेगा  


यह कोई ज्ञान देने की बात नहीं है, बल्कि समझ की बात है। जितने अधिक लोगों के पास यह समझ होगी, उतना ही समाज का कल्याण होगा।

रणवीर इलाहाबादी और उनके साथ की लड़की इन दिनों अश्लील जोक्स के विवाद में हैं। विवाद का स्तर इतना निम्न है कि जो भी इसके बारे में जानता है, वह सहम जाता है। इलाहाबादी ने अपने माता-पिता के अंतरंग पलों का वर्णन सार्वजनिक मंच पर किया, और उस लड़की ने सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया।



अब, जैसा कि हम सोशल मीडिया पर अक्सर करते हैं, इस मुद्दे पर एक साथ 'हुआ-हुआ' शुरू हो गया। संस्कृति और सभ्यता की दुहाई दी जाने लगी। लेकिन जरा सोचिए, जब हर कोई इसकी निंदा कर रहा है, तो वे कौन लोग हैं जो मानसिक विकृति के शिकार इन लोगों को देख रहे हैं और सुन रहे हैं?


वे कौन हैं जिनकी वजह से इन्हें लाखों-करोड़ों दर्शक मिलते हैं? यही लोग इनकी अश्लीलता को बढ़ावा देते हैं, जिससे ये और अधिक गंदगी परोसने और बेचने लगते हैं। ये दर्शक कोई मंगल ग्रह के निवासी तो नहीं हैं, बल्कि हम में से ही हैं।


सबसे बड़ा सवाल यही है। हमारी मानसिकता उस सुअर की तरह हो गई है जो गंदगी खाने के लिए दौड़ लगाता है, लेकिन जब कोई पकड़ा जाता है, तो हम सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देने लगते हैं। यह ठीक वैसे ही है, जैसा आचार्य ओशो ने कहा था—"संत कहलाने की पहली शर्त यही है कि हर सामने वाले को चोर कहो।" खुद को संत कोई कैसे कहेगा? बस सबको चोर कहना आसान है। हमारे कथा-वाचक भी इसी तरह की बातें करते हैं।


ओशो की एक और बात याद आती है—हजारों सालों से कहा जाता रहा कि हमारे शास्त्र सभ्यता और संस्कृति की शिक्षा देते हैं, लेकिन फिर भी समाज असभ्य और अपसंस्कृति की ओर क्यों बढ़ गया? इसका मतलब या तो हमारे सभ्यता, संस्कृति गलत हैं या हमारी पढ़ाई।


आज के दौर में हमारे आम घरों की महिलाएं सोशल मीडिया पर दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या-क्या नहीं कर रही हैं। महज उरोज की एक झलक दिखाकर लाखों दर्शकों को लुभा लिया जाता है। इतना ही नहीं, कैमरे के सामने जानबूझकर अनुचित हरकतें करके व्यूज बटोरे जाते हैं, और यह सब हमारे आस-पास की लड़कियाँ, नवविवाहिताएँ और यहाँ तक कि बुजुर्ग महिलाएँ भी कर रही हैं।


यह समस्या केवल भारत में नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया इसी प्रवृत्ति में डूबी हुई है। इसका सीधा अर्थ यह है कि हम पुरुष पूरी दुनिया में समान रूप से छिछोरेपन के शिकार हैं।

हाल ही में, मेरे इलाके में रंगा यादव नाम के एक व्यक्ति ने कॉमेडी के नाम पर बच्चे के साथ आपत्तिजनक हरकतें कीं, जिस पर बाल संरक्षण इकाई ने संज्ञान लिया। मैंने इस पर एक खबर बनाई, फिर  यूट्यूबर ने इस खबर को लेकर वीडियो बनाया और सबको चुनौती दे डाली।


तो सवाल फिर वही है—ये लोग ऐसा कर क्यों रहे हैं? इसका जवाब सीधा-साधा है: क्योंकि हम ही इन्हें पसंद करते हैं। हमें अच्छे कॉमेडी, अच्छे अभिनय और सार्थक सामग्री उतनी नहीं भाती, जितनी यह सस्ती और भद्दी चीजें। बाजार में वही बेचा जाता है, जिसकी मांग सबसे अधिक होती है। अगर हमें बदलाव लाना है, तो पहले हमे बदलना होगा। आचार्य पंडित श्री राम शर्मा ने कहा है, हम बदलेंगे, युग बदलेगा।

02 फ़रवरी 2025

इस महा कुम्भ के वैभव और विलासिता में बहुत कुछ डूब गया

इस  महा कुम्भ के वैभव और विलासिता में बहुत कुछ डूब गया


सोशल मीडिया। मुख्य मीडिया। आधा सच। आधा झूठ। इसी का पर्याय। बस इसी से हर बात पर न तो पोस्ट न ही टिपण्णी। बस, मौन होकर, टुकुर टुकुर देखने का मन करता है। 


इस बीच। प्रयाग का महाकुंभ। मोनालिसा। आईआईटी बाबा। ममता कुलकर्णी। सुंदरी हर्षा। यहां से होते हुए महाकुंभ का वैभव। विलासिता। मंहगे सुइट । 

महा प्रचार। महा भीड़। महान महान नेता। महा आडंबर। महा भोज। महा धर्म। महा जाम। महा यात्रा। महा अखाड़ा। सब कुछ ।

बेचैन मन। शब्द गढ़ने लगे। बात प्रयागराज के भगदड़ से। कितनी लाशें। कौन दोषी। कौन निर्दोष। कौन गिद्ध। कौन भेड़िया। कौन कौन बाघ।

धीरे धीरे सब पटल पर आ गया। महाकुंभ को महा वैभवशाली बनाया गया। महा प्रचार हुए। अरबों अरब पानी की तरह बहे। नतीजा क्या..? संगम के किनारे आधी रात को लोग कुचल गए। अब लाशों को छुपाने के लिए कैमरे को बंद कराया जा रहा। बस यही इस बात का प्रमाण है कि महा कुम्भ के इस सबसे बड़े अमृत महोत्सव में भी हम भगवान से नहीं डरते। 

खैर, बात सिर्फ लाशों को गिनने भर की नहीं है। बात यह भी है कि सनातन में कर्म की प्रधानता के सिद्धांत के बीच आज चारों ओर आडंबर है। यह आडंबर तब भी दिखा जब कोई मात्र एक साल पहले घर से भागा युवक कैमरा के सामने स्वयं को आईआईटी मुंबई का विद्यार्थी जानबूझ के बताता है। बस लोग उसके पीछे भागने लगे। ऐसा भागे कि कुंभ भूमि का वैराग्य उसी में समा के रह गया। वह निकला क्या, एक नशेड़ी, जिसकी बातों में गांभीर्य नहीं। गहराई नहीं। वह खुद को भगवान बताने लगा। उथली बातें मोबाइल पर वायरल हुई। बस। 

आचार्य ओशो ने तो कहा ही है, जब हम अपने साथ अपना धन, पद, प्रतिष्ठा लेकर चलते है तो वैराग्य नहीं है। और आम जन भी किसी हमेशा इसी के पीछे भागते है। सन्यासी कितना बड़ा धनी था, पद प्रतिष्ठा कितना छोड़ा। 


मतलब कि। मयान की कीमत अधिक। तलबार की नहीं।

कबीर ने कहा है,

जात न पूछो साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार की, पड़न रहे दो म्यान।।

खैर, 
यह आडंबर तब भी दिखा जब एक माला बेचने वाली मोनालिसा की खूबसूरत आँखें वायरल हो गई। यूट्यूब मोबाइल वालों ने उसे इसे पकड़ा जैसे कोई बाज अपना शिकार पकड़ता हो। और सनातन का सारा पुण्य लाभ उसी आंखों में समाता चला गया और वह वायरल हो गई। इसमें से एक भी सम्पन्न सज्जन ऐसा न होगा, जो उस बेचारी को ब्याह कर अपना घर ले आए।

यह आडंबर तब भी दिखा यह एक सुन्दरी लड़की हर्षा और एक अभिनेत्री ममता महा कुम्भ में आ गई। हमारा कैमरा उसी पर फोकस हुआ और हमारा मन उसी में रम गया। 

सभी ने एक से रिल्स बनाए। लाइव किया। धर्म नहीं जिया। पता ही नहीं चला कि रील बनाने गए या कुंभ स्नान में।

फिर सुंदरियों के यौवन की अश्लीलता में महा डुबकी लगाते हम डूबते, उतराते रहे।

फिर उसी में दिखा कई हठ योगी। जिसके अंदर संतत्व नहीं था। चिमटे से वह सबको चिपकाता रहा।

फिर इसमें शामिल हुए हमलोग। जो धर्म के इस लूट में से अपना हिस्सा लेने ऐसे भागे जैसे सदियों से कोई भूखा भोजन पर टूटता है। और अंत में एक दूसरे को कुचल कर मार देते है। 

पुण्य लूटने हमने रेलगाड़ी पर कब्जा कर लिया। दरवाजा बंद। यह भी नहीं देखा कि जिनका रिजर्वेशन है उनमें से किसी को इलाज से लिए दिल्ली जाना था। कई को कमाने विदेश। 

इसी आडम्बर में यह भी दिखा कि अपने ने एक महिला को कुंभ लाकर नशीली दवाई देकर स्टंप पर अंगूठा लगा लिया।



सब कुछ दिखा पर कुरुक्षेत्र , धर्म क्षेत्र में धर्म कहीं जाकर छुप गया। वह दिखा ही नहीं।।

दिखता, या होता तो हम पुण्य लाभ के लिए नदी किनारे सोए आदमी को कुचल कर लाश में नहीं बदलते। हम लाशों को नहीं छुपाते। धर्म को हम आचरण में धारण करते। पर हमेशा की तरह राम, कृष्ण सरीखे  के चरित्र को हम कथाओं, लीलाओं में सुनकर आह्लादित होते है और उसी चर्चा करते हुए दूसरे को उपदेश देते है। 

अगर ऐसे नहीं होता तो हम जानते की भागवत महापुराण में हमारे युगांधर भगवान कृष्ण ने भी कर्म को प्रधान माना। और इसीलिए भगवान कृष्ण का अंत भयावह रूप में वर्णित है। एक बहेलिए के तीर पांव में लगने भर से वे तड़प कर अकेल मर गए। उनके कुल का नाश हो गया। वैभवशाली द्वारिका समुद्र में समा गई। 

खैर, मैं कोई धर्माचार्य तो हूं नहीं, जो उपदेश दूं। न ही बहुत गहरी समझ है।

पर एक आम आदमी के मन में भी पीड़ा होती है। इसीलिए वह कभी कभी उल्टी कर देता है। 

पीड़ा तो यह भी होती है कि कैसे वैभवशाली महाकुंभ के इस महा भीड़ में गिद्ध की तरह कुछ लोग ताक में थे, कब लाशें गिरे और वे तांडव करें। सोशल मीडिया वाले क्रांतिकारी का भी अपना अपना साम्राज्य है। अपने लंपटों के वाहवाही से वे भी उसी तरह खुशी में नाचने लगते है जैसे मोरनी को रिझाने, मोर नाचता है। मोर को नहीं पता होता कि इससे उसके पैर भी दिख जाते है।

खैर, मुद्दा, मामला यह की यहां तक कोई बिरला ही इसे पढ़ेगा। इतना धैर्य अब किसके पास। फिर भी, महा कुम्भ एक भीड़ है। और ओशो कह गए है। भीड़ के पास अपना कुछ भी नहीं होता। न अपनी समझ, न अपना स्वत। न ही अपना बोध। न अपना धर्म। वह बस एक भीड़ होता है। भीड़।

और ओशो ने यह भी कहा है, सदियों से हमारा धर्म, धार्मिक ग्रन्थ, शास्त्र हमे मानवता, संवेदना, धार्मिकता का पाठ पढ़ा रहे और आज हम स्वयं कहते है कि मानवता, संवेदना, धार्मिकता का ह्रास हुआ है, तब हमे जो पाठ पढ़ाया जा रहा उसमें जरूर कुछ न कुछ त्रुटि रही होगी...तभी ऐसा हुआ। 

अब अंध धार्मिकता का ऐसा नशा चढ़ा कि कुंभ में मौत पर कोई बाबा कहता है कि मोक्ष मिला और हम प्रतिकार भी नहीं करते।

और अंत में एक बात। इस भगदड़ में लाशे गिरने और गिनने की होड़ के बीच इसमें दोषी कौन है, यह सबसे  सवाल है। और जबाव बहुत सरल है। दोषी वह है जिसने इसे अति वैभवशाली बताया, बनाया। दोषी वह है जिसके कैमरे ने वैभव और विलासिता ही दिखाई, कमी नहीं! सबसे बड़ा दोषी वह है जो पुण्य लूटने आदमी को लाश में बदलने में भी नहीं चूकता। बस











04 जनवरी 2025

जयंती विशेष: देशभक्ति बेचने से इनकार करने वाले लाला बाबू को नमन

जयंती विशेष: देशभक्ति बेचने से इनकार करने वाले लाला बाबू को नमन

अरुण साथी, वरिष्ठ पत्रकार

आज स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी, शिक्षाविद और समाजसेवी श्रीकृष्ण मोहन प्यारे सिंह उर्फ लाला बाबू की जयंती है। उन्होंने अपने त्याग, सादगी और देशप्रेम से एक ऐसी मिसाल कायम की, जिसे आज भी याद किया जाता है। लाला बाबू ने स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन यह कहते हुए ठुकरा दी थी, "देशभक्ति बेचने की चीज नहीं है। मैंने जेल में यंत्रणाएं इसलिए नहीं सही कि इसका दाम वसूलूं।"
महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी लाला बाबू ने गांधीवाद को अपने जीवन में उतारकर सादगी और जनसेवा को अपना धर्म बना लिया। वे निस्वार्थ भाव से अनगिनत छात्रों को पढ़ाई के लिए प्रतिमाह आर्थिक सहायता देते थे। जब किसी ने उन्हें ट्रस्ट बनाकर इस कार्य को संगठित करने की सलाह दी, तो उन्होंने कहा, "मैं उपकार की दुकान खोलकर यश बटोरना नहीं चाहता। मुझे अपने तरीके से जीने दीजिए।"
शैक्षणिक और सामाजिक योगदान

लाला बाबू ने बरबीघा का श्रीकृष्ण रामरूची कॉलेज समेत पूरे बिहार में कई विद्यालयों और अस्पतालों की स्थापना की। उनके दिल में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के प्रति विशेष लगाव था। वे कहते थे, "मेरे मरने के बाद मेरी लाश फेंक दी जाए, मुझे दुख नहीं होगा। लेकिन मेरी ये प्यारी संस्थाएं अगर लड़खड़ाएंगी, तो मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।"
उन्होंने अपनी संपत्ति अपने भाई को दान कर दी और राज्यसभा सदस्य रहते हुए भी सादगी का जीवन जिया। उनके अंतिम दिनों की मुफलिसी के किस्से सुनकर आज भी लोगों की आंखें भर आती हैं।

"बरबीघा का दधीचि" कहे जाते है 

लाला बाबू को "बरबीघा का दधीचि" की उपाधि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने दी थी। दिनकर जी ने लिखा कि लाला बाबू में अभूतपूर्व त्याग और धैर्य था। वे कहते थे, "मैं चाहता हूं कि मेरी छाती फट जाए और लोग मेरे दर्द को देख सकें।" दिनकर जी ने लिखा है कि बिहार केसरी उनके परम आराध्य थे किंतु उन्होंने जब लाला बाबू को अकारण कष्ट पहुंचाया तब भी लाला बाबू का आनन मलिन नहीं हुआ।

***

स्वतंत्रता आंदोलन में पांच बार गए जेल

लाला बाबू का जन्म 4 जनवरी 1901 को बिहार के शेखपुरा जिले के तेउस गांव में हुआ। 1911 में बीएन कॉलेजिएट हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद बीएन कॉलेज में दाखिला लिया। लेकिन गांधी जी के आह्वान पर पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। 1930 में 5 महीने, 1932 में 6 महीने, 1941 में 4 महीने, 1942 में 6 महीने और 1943 में 1 साल 5 महीने तक जेल में रहे।

बरबीघा के पहले विधायक

लाला बाबू 1952-1957 तक बरबीघा के पहले विधायक रहे। 1957-1958 में राज्यसभा के सदस्य और 1958 से 12 वर्षों तक बिहार विधान परिषद के सदस्य रहे। उन्होंने बिहार और भागलपुर विश्वविद्यालयों के सीनेट और सिंडिकेट में भी अपनी सेवाएं दीं।

मृत्यु और विरासत

लाला बाबू का निधन 9 फरवरी 1978 को हुआ। उनका जीवन त्याग और सेवा का प्रतीक था। उनकी जयंती पर पूरा देश उनके योगदान को याद कर श्रद्धांजलि अर्पित करता है।