12 अगस्त 2025

यह धरती केवल मनुष्यों का नहीं है..

यह धरती केवल मनुष्यों की नहीं, बल्कि जानवरों, पेड़-पौधों और सभी जीवों की साझा संपत्ति है। हाल ही में दिल्ली की गलियों से कुत्तों को हटाकर उन्हें कैद करने का निर्णय सामने आया, जिस पर पक्ष और विपक्ष में बहस शुरू हो गई। गांवों में कुत्ता चौकीदार की तरह रात में पहरा देता है, अजनबी को जान कर भौंकता है और लोगों को सतर्क करता है। पहले हर कुत्ते का कोई न कोई घर होता था, लोग बाहर खाना रख देते थे, इसलिए वे आवारा नहीं थे। लेकिन आज हमने उनका घर, जंगल और आश्रय छीन लिया। 
मनुष्यों की लालच और पशुता ने प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ दिया। पेड़ काट दिए, जंगल नष्ट कर दिए, और जानवरों को बेघर कर दिया। कुत्ता ऐसा जीव है जिसने हजारों साल पहले मनुष्य के साथ सहजीवन अपनाया और पत्थर के जंगलों में भी जीना सीखा।
सच है, कुत्तों से जुड़े कुछ खतरनाक मामले सामने आए हैं, लेकिन अपवादों के आधार पर पूरी प्रजाति को दंडित करना न्यायसंगत नहीं। जैसे एक मनुष्य की गलती पर पूरे समाज को सजा नहीं मिलती, वैसे ही कुछ घटनाओं के कारण सभी कुत्तों को अपराधी मानना गलत है।
समाधान शोध और संतुलित नीति से निकले, न कि ऐसे फैसलों से जो जानवरों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दें।

10 अगस्त 2025

और जब लक्ष्मी की आत्मा ने आकर मुझे जगाया, बोली अलविदा...!

और जब लक्ष्मी की आत्मा ने आकर मुझे जगाया, बोली अलविदा...!


अभी सुबह के 4:30 हैं। यह बुधवार की सुबह है। आधा घंटा पहले जब मैं गहरी नींद में था। तब लक्ष्मी की आत्मा ने मुझे आकर जगा दिया। बोली, 
"जा रही हूं मैं । इतना ही दिन का साथ था। अलविदा!"
मैं चौंक कर जाग गया। पहले लगा कि नींद में यह सपना था। ऐसा थोड़ी न होता है ? कैसे कोई आत्मा जाकर कहेंगे, अलविदा! 

फिर मन नहीं माना। पलंग से नीचे उतरा। बल्ब जलाया। घर के निचले भाग में बने बथान में देखने गया।

लक्ष्मी मरी हुई थी। उसके नश्वर शरीर से आत्मा शायद अभी-अभी ही निकली थी।
फिर जाकर पत्नी और सभी को जगाया । लक्ष्मी जा चुकी थी । वह 4 साल की गाय की बच्ची थी।

बड़े प्यार से मैंने उसका नाम लक्ष्मी रखा था। वह गीर नस्ल की मिश्रित बाछी थी।
मेरी प्यारी गाय की बेटी जब लक्ष्मी जन्म ली थी तो उसको अपने हाथों से साफ किया था। लक्ष्मी की मां उसे चाट कर साफ करती थी। और मुझे सटने नहीं देती थी। आज वह टुकुर-टुकुर उसे देख रही थी। 

जैसे कि वह पत्थर की हो। पर मैं और मेरा पूरा परिवार दुखी हो गया। घर में क्रंदन होने लगे। खासकर रीना ज्यादा दुखी हो गए। फूटफूट कर खूब रोई।

मैने, कर्मवाद के सिद्धांत को मानकर जीवन को हमेशा कर्म प्रधान मान कर जिया। स्नेह को समर्पण भाव से निभाया। 
कारण, ओशो ने बुद्ध को उद्धरित कर समझाया है। इस जन्म का कर्म फल, इसी जन्म में भोगना होगा। यही कर्मवाद का सिद्धांत है। यह कोई ऐसी अवधारणा नहीं है कि पूर्व जन्म का भोगने के लिए शेष बचे। स्वर्ग, नर्क हो। सब इसी में।

जीवन के अर्धशतक से आगे निकलने के बाद भी, जीवन में मित्र बहुत कम बनाए। ईश्वर ने जो मित्र दिए वे कृष्ण समान है। अपवाद जीवन का सिद्धांत है।

कुछ साल पहले एक मारीच मित्र की वजह से मैं और मेरा परिवार असह्य वेदना झेली। समाज के विकृत, कुंठित लोगों ने अपनी–अपनी कुंठा के हिसाब से छिद्रान्वेषण किया। आह्लादित हुए। इसमें कुछ तथाकथित मित्र और अपने भी थे। 

पर हमेशा से मानता रहा हूं कि आदमी को विचलित नहीं होना चाहिए। तुलसी दास ने कहा भी है,
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। 
आपद काल परिखिअहिं चारी॥

 सत्य यदि है, एक एक दिन सत्य सामने आएगा। और इस दौर में कृष्ण मित्रों का जो साथ मिला वह अप्रतिम। अहोभाव।

खैर, अब लक्ष्मी पर आते है। लक्ष्मी पिछले एक माह से बीमार थी। पिछले पैर में कंपन के साथ गिरने लगी। स्थानीय ग्रामीण चिकित्सक ने बहुत परिश्रम किया। किसी अनुभवी चिकित्सक ने सर्रा रोग बताया। उसकी चिकित्सा की। फिर पटना जाकर रक्त जांच कराया। वहां ऐनाप्लासमोसिश रोग निकला। उसकी सुई दी तो लक्ष्मी और बेजान हो गई।

 अंत में चल बसी। इस बीच, जानवरों को लेकर चिकित्सकों में संवेदना कम होती है। ऐसा महसूस किया। या कि रोज रोज देखते देखते संवेदनाओं मर जाती होगी। क्योंकि कई चिकित्सक से जब ग्रामीण चिकित्सक सलाह लेते तो कुछ ने कहा, यह देकर देखो। मर भी सकती है। मतलब अंदाज से जानवरों पर प्रयोग होता है। बस। हालांकि मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। 

इस बीच जो अनुभव किया। वह साझा करना आवश्यक है। असह्य वेदना के दौर में पेट डॉग रॉकी (कुत्ता लिखने में खराब लगता है।) गाय और लक्ष्मी। ईश्वरीय आशीर्वाद जैसा घर आई। यह सब फिर कभी। अभी, लक्ष्मी। लक्ष्मी से पूरे परिवार को लगाव था। खास, छोटी बेटी की वह प्राण थी। 

इस वेदना के दौर में रीना का मंदिर गौशाला ही बन गया। धूप, आरती। सब गौशाला में। रोज पूजा करती। धीरे धीरे ईश्वर ने सब अच्छा किया। 

मैं जब भी खाना देने जाता। लक्ष्मी कंधा पर अपना सिर रख देती, जैसे माय अपने पुत्र के सिर हाथ फेरती रही हो। उस दौरान लगता जैसे एक अदृश्य ऊर्जा का संचार हो रहा हो। या कि ऊर्जा का स्थानांतरण हो रहा हो।

 घर भर का लार, प्यार लक्ष्मी के लिए था। और वह लक्ष्मी चली गई। पर, चुप चाप नहीं। बता कर, जगा कर गई। घर भर में शोक का माहौल हो गया। रीना खूब रोई। फटकर। पर क्या कर सकते थे। 

मैने भरे मन से श्मशान पर ले जाकर लक्ष्मी का विधिवत अंतिम संस्कार कर दिया। ईश्वर उसकी आत्मा को शांति प्रदान करें और किसी रूप में पुनः सेवा का मौका दें। प्रार्थना। 


08 अगस्त 2025

"मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा..?" जो न समझे वो अनाड़ी है..

"मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा..?" जो न समझे वो अनाड़ी है..

अरुण साथी

अब गुस्सा तो स्वाभाविक मानवीय अवगुण है। यही अवगुण किसी में कम, किसी में ज्यादा होता है। गांव , मोहल्ले में एक दो ऐसे गुस्सैल, चिड़चिड़े लोग होते ही है। मेरे भी गांव में एक है। खदेरन। वे जब भी घर से निकलते है। खदेरा, खदेरी शुरू हो जाता है। कल की ही बात ले लीजिए। शनिचरा ने टोक दिया। 
"का हो काका, सुनलियो कि पुतहुआ गोर में तेल नय लगावो हो..?" 

काका ने छिघिन–छिघिन गारी देना चालू कर दिए।

आज की ही बात है। खदेरन जब अपने घर से निकले तो बटोरना और बगेरी के कन्याय झोटम–झोंटी कर रही थी। खदेरन उसका मजा लेने लगे। फिर बटोरना के कन्याय को जब लगा कि वह थुरा जाएगी तब वह घर भाग गई। अब खदेरन ने झगड़ा को रुकवा देने का ढोलहा गांव में डलवा दिया। और अपने लिए ग्राम श्री पुरस्कार की मांग रख दी। 

अब गांव के प्रधानी के चुनाव में कई बार चारों खाने चित हो चुका ढकरू आंधी को मौका मिला। उसने भी खदेरन का साथ दिया। पर गांव में सब चुप। ग्राम प्रधान एक दम शांत। जैसे कुछ हुआ ही है। प्रधान से किसी ने पूछा, कुछ बोलते क्यों नहीं..?

 प्रधान ने कहा, "हाथी चले बाजार, कुत्ता भूके हजार...!


फिर दोनों ने गोर–गठ्ठा किया। प्रधान को घेरना है। खदेरन रोज बोलने लगा, "झगड़ा उसी ने रुकवा दिया, नहीं को विनाश हो जाता। पुरस्कार दो!"
ढकरू आंधी भी ढकरने लगा। 
"सही बात। जवाब दो।"
फिर भी सब शांत। पंचायत बैठी। प्रधान ने घोषणा की। 
"केकर मजाल जे युद्ध रुकवा दे। उ त बटोरना के कन्याय भाग गई वरना वह गंजा हो जाती।"

खदेरन और भड़क गया। अब उसने फिर ढोलहा दिलाया। उसके खेत में भैंस चराने पर टैक्स लगेगा। तब गांव वालों ने भी उसके भैंस को अपने खेत से खदेड़ दिया। 

अब खदेरन सब जगह हल्ला कर रहा। "मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा..?"

अब क्या था। खदेरन जिधर जाता, उधर ही लोग चिढ़ाने लगे। 

"का हो खदेरन। तोर भैंस के डंडा के मरलक।"

फिर खदेरन डंडा लेकर उसके पीछे दौड़ने लगता। लोग उसे दौड़ने लगे। इसी बीच प्रधान ने पुराने मित्र , सरपंच से और दोस्ती बढ़ा ली। 
अब गांव में खदेरन और ढकरू को लोग किच–किचाने लगे। दोनों का समय सबको रगेदने और गरियाने में कटने लगा। गांव में आनंद का माहौल हो गया। 

02 अगस्त 2025

संस्थाओं को इसी तरह मार दिया जाता है...!

संस्थाओं को इसी तरह मार दिया जाता है...! 
बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह और उनकी पत्नी के नाम पर बरबीघा के शिक्षाविद एवं स्वतंत्रता सेनानी लाला बाबू ने  बिहार केसरी की मर्जी के विरुद्ध कॉलेज की स्थापना की। इसमें जनसहयोग भी रहा। लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक में जानबूझ कर इस कॉलेज को खत्म कर देने की स्थिति बना दी गई । या कहें, इसे धीरे-धीरे मरने के लिए छोड़ दिया गया।


स्थिति इतनी भयावह हो गई कि कॉलेज का भवन खंडहर बन गया। पढ़ाई के नाम पर सब कुछ शून्य हो गया। कुव्यवस्था ऐसी हो गई कि कोई किसी की सुनने वाला नहीं रहा।
मुझे तो कुछ माह पहले जानकर आश्चर्य हुआ कि एक प्राचार्य वर्षों तक प्राचार्य कक्ष में नहीं बैठे। वही कक्ष, जो कभी कॉलेज की आन-बान-शान हुआ करता था। जब हम लोग पढ़ते थे, तब उस कक्ष में जाने का साहस किसी का नहीं होता था।


प्राचार्य कक्ष में बिहार केसरी की एक अनुपम तस्वीर लगी रहती थी। वहीं लाला बाबू की भी एक भव्य तस्वीर होती थी। धीरे-धीरे इन प्रतिमाओं को भी किनारे कर दिया गया।


खंडहर हो चुके कॉलेज को लेकर कई बार चिंता जताई गई, लेकिन कुछ भी नहीं बदला। अब नवप्राचार्य के रूप में नवादा जिला के कटौना निवासी डॉ. संजय कुमार ने पदभार संभाला है। आज जब उनसे मिलने कॉलेज गया तो रास्ते में ही बदलाव की झलक दिख गई । कॉलेज के आसपास की झाड़ियाँ साफ की जा रही थीं, और बिहार केसरी की क्षतिग्रस्त प्रतिमा स्थल का पुनर्निर्माण हो रहा था।
डॉ. संजय कुमार से मिलकर लगा कि वे बदलाव के बड़े वाहक बनने का साहस कर रहे हैं। इसके लिए सभी का समर्थन भी मांग रहे हैं। उम्मीद करता हूँ कि वे इस धरोहर को पुनर्जीवित करेंगे।


 



 



 

आलेख: अमेरिका पर निर्भरता बनाम आत्मनिर्भरता की चुनौती

आलेख: अमेरिका पर निर्भरता बनाम आत्मनिर्भरता की चुनौती

आज जब भारत "आत्मनिर्भर भारत" की बात करता है, तो यह विचार राष्ट्रीय स्वाभिमान, तकनीकी स्वतंत्रता और आर्थिक मजबूती का प्रतीक बन जाता है। परंतु जब हम धरातल पर उतरकर देखें, तो पाते हैं कि हमारी आत्मनिर्भरता की राह में कई ठोस और गहरे अवरोध हैं। इनमें सबसे प्रमुख अवरोध है – अमेरिका पर हमारी तकनीकी और आर्थिक निर्भरता।
तकनीकी प्रभुत्व: विकल्पों की कमी

सबसे पहला और ठोस तर्क यह है कि आज भी माइक्रोसॉफ्ट के ऑपरेटिंग सिस्टम का कोई व्यवहारिक विकल्प विश्वस्तर पर मौजूद नहीं है। चाहे सरकारी कार्यालय हों, शिक्षण संस्थान हों या निजी क्षेत्र, विंडोज़ आधारित सिस्टम हर जगह उपयोग में लाए जा रहे हैं। इसका कोई देसी या गैर-अमेरिकी विकल्प बड़े पैमाने पर न तो मौजूद है और न ही अपनाया गया है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि तकनीकी आधारभूत ढांचे पर अमेरिका का मजबूत नियंत्रण है।

गूगल के सर्च इंजन की बात करें, तो वहां भी स्थिति कुछ अलग नहीं है। आज गूगल के सामने जो भी विकल्प उपलब्ध हैं—जैसे कि बिंग, याहू या डकडकगो—वे सभी अमेरिका से ही संचालित होते हैं। इसका अर्थ है कि वैश्विक डिजिटल सूचना पर नियंत्रण अमेरिका के ही हाथ में है। भारत में कोई देसी सर्च इंजन आज भी उस स्तर की पहुंच, डेटा संग्रहण या परिणाम देने की क्षमता नहीं रखता।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस: भारत की शुरुआत

AI (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) को भारत भविष्य की तकनीक मानता है और इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता भी दी जा रही है, परन्तु सच्चाई यह है कि इस क्षेत्र में भारत अभी ककहरा ही सीख रहा है। भारत में AI आधारित नवाचार जरूर हो रहे हैं, परंतु बुनियादी रिसर्च, प्रोसेसिंग पावर, डाटा एनालिटिक्स, और एल्गोरिदमिक नियंत्रण अब भी अमेरिका और चीन जैसे देशों के हाथों में केंद्रित है।

कृषि पर भी शिकंजा

इस चर्चा में एक गंभीर पक्ष अक्सर छूट जाता है—भारत के कृषि क्षेत्र पर भी अमेरिका की पकड़ धीरे-धीरे मजबूत हो रही है। कई बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियाँ, जैसे मोनसैंटो (अब बायर के अंतर्गत), भारतीय किसानों को निर्भर बना रही हैं ऐसे बीजों पर जिन्हें हर साल नए सिरे से खरीदना पड़ता है। यह आत्मनिर्भरता के ठीक विपरीत है। यदि बीज पर ही नियंत्रण बाहरी शक्तियों के पास हो जाए तो खाद्य सुरक्षा तक खतरे में पड़ सकती है।

आर्थिक नियंत्रण: नागपाश जैसी स्थिति

भारत की अर्थव्यवस्था पर अमेरिका की पकड़ उस नागपाश की तरह है जिससे छूट पाना बेहद कठिन होता जा रहा है। वैश्विक पूंजी, डॉलर आधारित व्यापार व्यवस्था, IMF और वर्ल्ड बैंक जैसे वित्तीय संस्थानों की शर्तें—इन सभी ने भारत समेत दुनिया के अधिकांश देशों को अमेरिका के आर्थिक प्रभाव में जकड़ लिया है।

समाधान की ओर: क्या हम चीन से सीख सकते हैं?

जब हम आत्मनिर्भरता की बात करते हैं, तो एक सवाल अक्सर उभर कर आता है: क्या समाधान है? एक संभावित समाधान चीन की रणनीति में नज़र आता है। चीन ने विदेशी इंटरनेट कंपनियों को अपने देश से बाहर किया और उसके स्थान पर अपने देशी विकल्प—जैसे बाइदू, वीचैट, अलीबाबा—विकसित किए। इन कदमों ने चीन को डिजिटल अर्थव्यवस्था में न केवल आत्मनिर्भर बनाया बल्कि एक वैश्विक शक्ति भी बना दिया।

भारत भी इसी दिशा में प्रयास कर सकता है। इंटरनेट मीडिया, सर्च इंजन, सोशल नेटवर्किंग, ईमेल सेवाएं—इन सभी के देसी विकल्प तैयार किए जा सकते हैं, बशर्ते इसके लिए सरकार, उद्योग और शिक्षा जगत मिलकर एक समन्वित और दूरदर्शी नीति बनाएं।

31 जुलाई 2025

समाज के सम्मान का असल हकदार कौन..?

समाज के सम्मान का असल हकदार कौन..?

यह एक सामाजिक मुद्दा है। हालांकि पहले से तय है कि समाज एक विरोधाभाषी शब्द है। व्यवहार और सिद्धांत में अंतर है। 

कई बार इसका व्यक्तिगत अनुभव किया। जैसे, कुछ दिन पहले ऑनलाइन सामग्री आपूर्ति करने वाले एक लड़के ने गांव में घर के पास आकर  सामग्री देने से असमर्थता जाहिर किया। बोला मोड़ पर आकर ले लीजिए..! 
मैंने पूछा, क्यों..?

उसने कहा, उधर कई लोग परिचित है..!

मैंने सामग्री जाकर लिया। लड़का हेलमेट लगाए था। 
मैंने पूछा, चोरी करते हो , डकैत हो, ठगी करते हो या शराब बेचते हो..?
वह, चौंका, नहीं सर..!

मैंने कहा, तब फिर शर्म कैसा..! ऐसा करने वाले तो शर्मिंदा नहीं होते। तुम तो मेहनत करके कमा रहे हो।

खैर, इस तरह से कई बार अनुभव हुआ। इसका प्रमुख कारक समाज ही है। समाज का को छोटा और बड़ा तय करने का मापदंड ही गलत बना दिया। 

जो गरीब मेहनत मजदूरी करे उसे कम और जो ठगबनीजी करे उसे अधिक सम्मान देता है।

जो सफाईकर्मी गंदगी साफ करे, वह अछूत हो गया..! जो मजदूर घर बनाए वह हिकारत पाए ! जो किसान पेट भरे वह अपमान सहे! जो गौ पालक श्वेत क्रांति में अगुवा बन दूध पहुंचाए उसके लिए सम्मान नहीं। जो सुबह उठ पसीना बहा घर में अखबार, सब्जी पहुंचाए उसे सम्मान नहीं ..! जो रिक्शा चलाए वह हिकारत पाए..! चाय बेचना छोटा काम है..? 

चाय बेचने से याद आया, लखीसराय के रामपुर गांव होकर पहले अपने ननिहाल रामचंद्रपुर पैदल जाता था। रामपुर चौक पर एक चाय दुकानदार थे। शायद भूमिहार..!  वह शीशा के गिलास में चाय तो देते थे पर गिलास ग्राहक को ही धोने के लिए कहते थे...! जिससे उनका घर पले, वह काम भी छोटा...!

आज भी गांव में दूध बेचना निम्न कार्य माना जाता। लोग ओल्हन देते है,

दूध बेचते दिन जा हो.. तोर की औकात..!

मेरे गांव को बैगन बेचबा (बैगन की खेती की वजह से) कह के निम्न बताया जाता है..! नतीजा किसान सब्जी उपजाते तो है, बेचने बाजार नहीं जाते..!
और,

जो ठगबनीजी करे, शराब माफिया, लूट, खसोट कर धन अर्जित करे वह सम्मानित।

जो वास्तविक प्रेम में पड़े, वह पापी और
जो चारित्रिक रूप से हीनता करे वह सम्मानित..! जैसे नवादा में एक दुष्कर्मी ने एक भव्य मंदिर बना दिया तो वह समाज में सम्मानित हो गया..! जय जय हो रही..!

जैसे, जीवन भर शोषण, दमन करने वाला अंत समय में थोड़ा दान पुण्य करे, कोई मंदिर बना दे, तो सद्कर्मी..!

 जब कहीं रस्ते में जाम लगे तो एक रिक्शा वाला और कार वाला दोनों समान गलती करे पर सब रिक्शा वाला को गाली देना शुरू करेंगे। कार वाला रिक्शा चालक को डांट देगा। बाइक वाला साइकिल चालक को दुत्कार देगा...? 

लगता होगा कि ऐसी चीजे मन में कहां से उठती है...! थोड़ी सी संवेदना है, बस । 

जैसे , अभी शादियों में लड़कियां वेटर, स्वागत इत्यादि का काम करती है। उसको लेकर लोग गलत नजरिया रखते है। पर मैं सोचता हूं.. आज के समय में जब oyo का चलन है। कस्बे के होटलों में भी घंटे के हिसाब से पैसे की कमाई हो रही, वैसे में ये लड़कियां कितनी साहसिक है जो सर उठा कर वेटर बनी हुई है...! 

असल सम्मान तो इसे मिलना चाहिए...है कि नहीं...

20 जुलाई 2025

सूद खोर के मकड़जाल में खत्म हुआ पूरा परिवार

यह मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देने वाली घटना है। लिखते हुए हाथ कांप रहे।

मदर इंडिया वाला  साहूकार  (सूदखोर) आज भी है। जैसे उसने एक विवश मां से सूद के बदले देह मांगा, वैसा आज भी हो रहा। कई गांव में। कई शहरों। 

गांव में यह जाल, मकड़जाल जैसा आदमी का खून चूस रहा। आदमी तड़प कर मर जाता है। 

ऐसे ही एक जाल में फंसे पूरे परिवार ने जीवन लीला समाप्त कर ली। माता, पिता और चार बच्चों के परिवार में एक बच्चा बच सका।

धर्मेन्द, मूल रूप से शेखपुरा जिला के पुरनकामा गांव के निवासी थे। दस साल पहले पलायन कर दिल्ली गए तो गांव से नाता टूट गया। फिर नालंदा के पावापुरी में कपड़ा का छोटा व्यापार शुरू किया। दो बेटी, दो बेटा। सभी का पालन पोषण। कर्ज होता चला गया। स्थानीय सूदखोरों ने सूद दिया। फिर समय से नहीं लौटने पर प्रताड़ना। बेटियों के लिए अपमानजनक शब्द कहे..। बस क्या था...पूरा परिवार खत्म।

सूदखोर का यह मकड़जाल सभी जगह ऐसे ही चल रहा। यह समाज की बड़ी विसंगति है। आज जब सरकार गरीबी का आंकड़ा दिखा कर इसे खत्म करने का दावा करती है तो यह घटना सरकार के मुंह पर तमाचा है।

जनधन योजना छलावा है। आम आदमी , आम व्यापारी को बैंक कर्ज नहीं देती। मिलता उसे ही है जो दलालों के माध्यम से कमीशन दे।

गरीब इस मकड़जाल में है। अभी इसमें मैक्रो फाइनेंस वाले भी है। नया साहूकार। कुछ लाइसेंसी, कुछ बिना लाइसेंस के। बसूली।


आज भी चिमनी पर काम करने जाने वाले मजदूर से 10 रुपए प्रति सैकड़ा सूद दबंग वसूल रहे। ऐसे खून चूसने वाले भी समाज में प्रतिष्ठित है। 

आज मोबाइल तो ईएमआई पर मिल जाएगा पर रोटी, किताब नहीं...!

धर्मेन्द की घटना न तो पहली है, न ही आखरी होगी...

हम थोड़ी सी संवेदना देंगे, तर्क वितर्क होगा। कुछ पक्ष में, कुछ विपक्ष में बोलेंगे, बात खत्म...

15 जुलाई 2025

मगह (मगध) में हमलोग नागपंचमी को नगपांचे बुलाते है

मगह (मगध) में हमलोग नागपंचमी को नगपांचे बुलाते है। पूरे देश में सावन में पिछला पक्ष में नाग पंचमी होता है। हमारे यहां पहला पक्ष में। जो आज है। इस दिन आम और कटहल खाना आम बात है।


 खैर, गांव में नागपंचमी का मतलब सुबह सुबह नीम का टहनी तोड़ कर लाना। घर में मुख्य दरवाजे से लेकर हर कमरे में लटकना। यह आज भी चल रहा। आज नागपंचमी में घर में नीम के पत्ते लटक गए। माय कहती थी कि इससे सांप घर में नहीं आता। खैर, यह कितना सच, नहीं पता। पर नागपंचमी में सुबह खाली पेट नीम का पत्ता पीस कर माय जरूर पिलाती थी। नाक मूंद का एक घोंट में एक गिलास गटक जाते थे। एक दम कड़वा। तीखा। 

पर माय कहती थी कि इससे खून साफ होता है। बरसाती घाव नहीं होता। आज अब यह तो वैज्ञानिक रूप से सच है।

हां, अब दो, चार साल से नीम पीने का चलन मेरे घर भी खत्म हो गया। वहीं इस दिन कबड्ड़ी खेलने का भी चलन था। बचपन में खूब खेलते थे। अब यह विलुप्ति के कगार पर है। शायद ही किसी गांव में होता है।

वहीं अब सोंचता हूं कि भारत के परंपरागत लोक चलन, संस्कृति को कैसे पश्चिम के अति आधुनिक समाज और उनके मानसिकता के लोगों ने दकियानूसी कह कर खारिज कर दिया। आज वही पश्चिम वाले भारत में नीम, हल्दी इत्यादि का पेटेंट करा के उसका वैज्ञानिक महत्व हमे बता रहे।  नीम के नाम पर सौंदर्य प्रसाधन बिक रहे।

जबकि हमारे पुरखे आज के पश्चिम के अति आधुनिक और वैज्ञानिक समाज से कहीं अधिक वैज्ञानिक थे। नागपंचमी में नीम की उपयोगिता उसी वैज्ञानिक सोच का एक उदाहरण है। नीम, रक्त शोधक है। स्वास्थ्य वर्धक है। इसी लिए इसका उपयोग लोक आचरण में है। और हां, नागपंचमी से नए साल में पर्व त्यौहार की शुरुआत होती है। कहा जाता है, विशुआ उसार, नगपांचे पसार। बस इतना ही। आपको कोई बचपन की याद हो तो साझा करें...

 

21 जून 2025

बैल की जगह खेत में काम कर रहे किसान

योग दिवस है। जो योग नहीं करते वह भी शुभकामनाएं देते है। खैर, 

नियमित अभ्यास में शामिल हो तो यह वरदान है। 


कल की यह तस्वीर और वीडियो आम गरीब भारतीय किसान, मजदूर  के जीवन योग की संलिप्तता जीवन का कैसे हिस्सा है, उसके लिए है। 



किसान नवल यादव। बैल अब है नहीं। धान का बिचड़ा गिराना है। खेत जोता हुआ है। अब उसमें चौकी देना है। इसलिए बैल की जगह खुद ही चौकी (पाटा) दे रहे। उनके साथ उनके पोता, पोती भी चुहल कर रहे। इसी बहाने वे जीवन की सबसे कठिन पाठशाला में परिश्रम की पढ़ाई कर रहे।


और यहां, यह भी समझने की बात है कि जिस चावल को हम भोजन के रूप में ग्रहण करते है उसे उपजाना पहाड़ तोड़ने जैसा कठिन कार्य है। आम किसान रोज रोज पहाड़ तोड़ता है। तब भी उनका जीवन अभावों में बीतता है। 




और एक बात और। कल शाम में जब शेखपुरा से लौट रहा था । बाइक चलाते हुए। तभी नेमदारगंज गांव के पास सड़क कुछ ही दूरी पर खेत में चौकी चलाते किसान दिख गए। खेत में गया। तस्वीर ले ली। अक्सर यह होता है। सड़क पर चलते हुए आसपास यदि खबर हो तो पता नहीं कैसे दिख जाता है।  अक्सर ऐसा होता है। 



13 जून 2025

भाषण प्रतियोगिता के माध्यम से युवाओं में संचार कौशल को बढ़ावा देने की पहल

भाषण प्रतियोगिता के माध्यम से युवाओं में संचार कौशल को बढ़ावा देने की पहल 

 बरबीघा, शेखपुरा

दैनिक जागरण द्वारा युवाओं में भाषण कला के प्रति रुचि बढ़ाने के उद्देश्य से आयोजित भाषण प्रतियोगिता की एक कड़ी में श्रीकृष्ण रामरुचि कॉलेज, बरबीघा में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया।
इस अवसर पर मुख्य अतिथि डॉ. मुरारी प्रसाद उपस्थित रहे, जिन्होंने अपने संबोधन में युवाओं को बेहतर संवाद कौशल विकसित करने और बिहार के उज्ज्वल भविष्य में योगदान देने के लिए प्रेरित किया। कॉलेज के प्राचार्य डॉ. वीरेंद्र पांडे ने भी आयोजन को संबोधित करते हुए युवाओं की भागीदारी को सराहा।
कार्यक्रम में प्रो. मनोज कुमार, प्रो. उपेंद्र दास, प्रो. सुमित कुमार सहित कई गणमान्य शिक्षकों की महत्वपूर्ण उपस्थिति रही। समारोह का सफल संचालन कॉलेज कर्मी संतोष कुमार ने किया।
दैनिक जागरण के प्रतिनिधि के रुप में मेरे साथ, साथी अभय कुमार और सनोज कुमार की भी आयोजन में सक्रिय सहभागिता रही। यह कार्यक्रम न केवल एक प्रतियोगिता था, बल्कि युवाओं के भीतर आत्मविश्वास और अभिव्यक्ति की क्षमता को प्रोत्साहित करने की दिशा में एक प्रभावशाली पहल भी रही।

11 जून 2025

संत कबीर: प्रतिमा की पूजा या विचारों की उपेक्षा?

 संत कबीर: प्रतिमा की पूजा या विचारों की उपेक्षा?


आज संत कबीर जयंती है। हम प्रतिमा के आगे दीप जला रहे हैं, फूल चढ़ा रहे हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या हम कबीर के विचारों को भी उतनी ही श्रद्धा से याद कर रहे हैं? शायद नहीं।


कबीर, जो निर्गुण भक्ति के उपासक थे, मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी रहे। उन्होंने न केवल हिंदू समाज की रूढ़ियों पर प्रहार किया, बल्कि मुस्लिम समाज की भी आलोचना की। वे किसी भी धर्म के नाम पर किए जाने वाले पाखंडों के घोर विरोधी थे।



"कंकर-पत्थर जोड़ि के मस्जिद लई बनाई,

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा भयो खुदाई?"


कबीर ने यहां अजान की व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए यह पूछा कि क्या ईश्वर बहरा हो गया है, जिसे ऊँचे स्वर में पुकारना पड़ता है?


इसी तरह उन्होंने मूर्ति पूजा को लेकर कहा:


"पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़,

ता से तो चक्की भली, पीस खाए संसार।"


कबीर ने भक्ति को कर्म से जोड़ा, और वही गीता का भी सार है—कर्म ही प्रधान है।


उन्होंने धार्मिक उन्माद और झगड़ों पर भी गहरा व्यंग्य किया—


"हिंदू कहे मोहि राम प्यारा, तुर्क कहे रहमाना,

आपस में दोऊ लड़ मुए, मरम न कोऊ जाना।"


कबीर के विचार आज भी उतने ही ज़रूरी हैं जितने उस समय थे। पर दुखद विडंबना यह है कि अगर आज कबीर होते, तो शायद उनके सवालों और सच्चाई को सुनकर उन्हें "राष्ट्रविरोधी", "विवादास्पद" या "धर्मविरोधी" कहकर चुप करा दिया जाता।


मेरे बरबीघा प्रखंड के मालदह में—कबीरपंथी मठ आज भी मौजूद है। वहां कबीर के अनुयायियों द्वारा वर्षों तक भजन-कीर्तन और सत्संग का आयोजन होता रहा। पर समय के साथ, हमारी भूख बढ़ती गई और अब मठ की जमीन पर कब्जे की लड़ाई है।


सिर्फ कबीर ही नहीं, बल्कि नानक जैसे संतों की संगतें भी हमारे गांवों में थीं। वे सांप्रदायिक सद्भाव और आध्यात्मिक चेतना के केंद्र हुआ करती थीं। आज यह सब पीछे छूट गया है। अब हमारे पास सोशल मीडिया पर धर्म है, पर आत्मा से खालीपन भी है।


क्या यह विकास है या मूल्यों का ह्रास?

कभी लगता है, भक्ति काल का दौर शायद सभ्यता का शिखर था। कबीर, रहीम, तुलसी, सूर—इन संतों की वाणी में जो व्यापकता थी, वह आज के दौर में दुर्लभ हो गई है।


आज, कबीर को याद करने का असली तरीका यही होगा कि हम उनके विचारों को जीवन में उतारें—उनके साहस, उनके तर्क और उनके धर्म के पार जाकर इंसानियत को देखने वाले दृष्टिकोण को अपनाएं।

09 जून 2025

ग़ज़ल की खामोशी, हास्य का शोर — एक शाम, कई एहसास

ग़ज़ल की खामोशी, हास्य का शोर — एक शाम, कई एहसास


"खुदकलामी का हुनर सीख न पाए जो लोग
वे मेरी खामोशी को अहंकार समझ लेते हैं..."
शनिवार की शाम बिहारशरीफ में दैनिक जागरण के द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में जब अजहर इकबाल ने मंच से यह शेर पढ़ा, तो लगा जैसे किसी ने मेरे भीतर की बात छीन ली हो। यह केवल एक शेर नहीं था, बल्कि उन तमाम लम्हों की तहरीर थी जब हम अपने भीतर का शोर बाहर लाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते – और लोग उसे ‘अहंकार’ का नाम दे देते हैं।

ग़ज़ल कभी केवल उर्दू की बपौती नहीं रही। 

"रावण की तरह घात में बैठी है ये दुनिया, सीता की तरह भोली है भोजाई हमारी.."

***
"है साक्षी काशी का हर एक घाट अभी तक,
होता था भजन आपका शहनाई हमारी.."
जब अजहर इकबाल ने विशुद्ध हिंदी में ग़ज़ल पढ़ी, तो लगा जैसे भाषा की सीमाएं टूट गईं और भावनाओं ने अपनी नई जगह तलाश ली। यह शेर, और उनके जैसे कई शेर, श्रोता के भीतर उतरते गए – बिना शोर मचाए, बिना दावा किए।

और यही तो सबसे खूबसूरत बात थी उस शाम की – शब्दों का वह अदृश्य स्पर्श, जो हर किसी को अपने-अपने हिस्से की सोच सौंप रहा था।

लेकिन जहाँ एक ओर यह गहराई थी, वहीं दूसरी ओर हास्य कवि पार्थ नवीन और विनोद पाल ने उसी शाम को ठहाकों से गूंजा दिया। मंच पर जब पार्थ ने राजस्थानी अंदाज़ में अपनी हास्य कविताएं सुनाईं, तो हँसी की लहरें मानो सजीव हो गईं। ऐसा लगा जैसे जीवन की गंभीरता को तोड़ने के लिए हास्य ने अपना सबसे सच्चा रूप दिखाया हो।

मनु वैशाली की आवाज़ जैसे नदी की तरह थी — सतह पर शांति, भीतर भावनाओं की गहराई। उनका पाठ सुनते हुए यह महसूस हुआ कि कविता सिर्फ शब्दों से नहीं, स्वर और संवेदना से भी जन्म लेती है। अपनी कविता में उन्होंने गांव को जिया।

विनीत चौहान की वीर रस में डूबी कविताएं, हमेशा की तरह प्रेरणा बनकर उभरीं। उन्होंने सिर्फ कविता नहीं पढ़ी, एक समय की जीवंत तस्वीर खींच दी — जैसे शब्दों में धड़कता हुआ इतिहास हो। इसमें गुरु गोविंद सिंह और मुगलों का संग्राम जीवंत हो उठा।

हाँ, यह सही है कि पद्मिनी शर्मा की प्रस्तुति उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच सकी, लेकिन हर शाम हर कोई सूरज नहीं बनता। कभी-कभी चाँद की मौजूदगी ही काफी होती है।

उस शाम को मैं एक श्रोता नहीं था, एक संवेदना बन गया था — कभी हँसता, कभी चुप रहता, कभी भीतर ही भीतर भीगता हुआ।

कभी-कभी, शब्द किसी किताब या मंच तक सीमित नहीं रहते। वे हमारे भीतर उतरते हैं, बैठ जाते हैं और हमें बदल देते हैं। यह कवि सम्मेलन भी वैसा ही एक अनुभव था — जहाँ हर श्रोता अपने-अपने हिस्से की कविता लेकर लौटा।

एक बात और, जैसा कि स्वाभाविक है। इसमें भीड़ नहीं थी। भीड़ तो आर्केस्ट्रा, बार डांसर में होती है...

03 जून 2025

आश्चर्य होता है... यही खान सर की सच्चाई है..

खान सर कोचिंग संचालक है। मनोरंजन करके पढ़ाते है। यह सभी जानते है। पर खान सर कौन है यह आज भी बहुत कम लोग जानते है। 
आश्चर्य होता है... यही खान सर की सच्चाई है.. 


मतलब कि वे हमेशा आधा सच ही सामने रखते है। उसके कुछ बड़ा कारण भी होगा..! 

खैर, सोशल मीडिया पर उनके शादी की पार्टी की धूम है। सभी न्यूज़ वाले उसे शेयर कर रहे। 

खान सर ने शादी भी गुप्त रखी। कोचिंग मे सबको बताया। 

अब  रिसेप्शन में बिहार के तेजस्वी यादव सहित कुछ नामी लोग भी पहुंचे परंतु नई नवेली दुल्हन का घूंघट हमेशा चेहरे को छुपा कर रखा ।

खान सर अपने कोचिंग में पढ़ाते कम और उपदेश ज्यादा देते हैं, जिसमें समाज को बदलने का उपदेश भी होता है। 


रिसेप्शन की पार्टी में घूंघट में दुल्हन खान सर के स्त्रियों को पर्दे में रखने के पितृ सत्तात्मक सोच का उदाहरण है...! शुक्र है कि दुल्हन हिजाब में नहीं थी..! 

मतलब यह की स्त्री के पर्दा प्रथा के कट्टर समर्थक है खान सर...! 


मतलब यह कि उनके नजर में स्त्री को स्वतंत्रता नहीं है? उनका अपना कोई अस्तित्व नहीं है? इस पर भी उनका अपना तर्क आएगा और वह लंबा-लंबा भाषण देंगे, परंतु यह उनका दकियानुसी सोंच ही है...