12 अगस्त 2025
यह धरती केवल मनुष्यों का नहीं है..
10 अगस्त 2025
और जब लक्ष्मी की आत्मा ने आकर मुझे जगाया, बोली अलविदा...!
08 अगस्त 2025
"मेरे भैंस को डंडा क्यों मारा..?" जो न समझे वो अनाड़ी है..
02 अगस्त 2025
संस्थाओं को इसी तरह मार दिया जाता है...!
बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह और उनकी पत्नी के नाम पर बरबीघा के शिक्षाविद एवं स्वतंत्रता सेनानी लाला बाबू ने बिहार केसरी की मर्जी के विरुद्ध कॉलेज की स्थापना की। इसमें जनसहयोग भी रहा। लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक में जानबूझ कर इस कॉलेज को खत्म कर देने की स्थिति बना दी गई । या कहें, इसे धीरे-धीरे मरने के लिए छोड़ दिया गया।
स्थिति इतनी भयावह हो गई कि कॉलेज का भवन खंडहर बन गया। पढ़ाई के नाम पर सब कुछ शून्य हो गया। कुव्यवस्था ऐसी हो गई कि कोई किसी की सुनने वाला नहीं रहा।
मुझे तो कुछ माह पहले जानकर आश्चर्य हुआ कि एक प्राचार्य वर्षों तक प्राचार्य कक्ष में नहीं बैठे। वही कक्ष, जो कभी कॉलेज की आन-बान-शान हुआ करता था। जब हम लोग पढ़ते थे, तब उस कक्ष में जाने का साहस किसी का नहीं होता था।
प्राचार्य कक्ष में बिहार केसरी की एक अनुपम तस्वीर लगी रहती थी। वहीं लाला बाबू की भी एक भव्य तस्वीर होती थी। धीरे-धीरे इन प्रतिमाओं को भी किनारे कर दिया गया।
खंडहर हो चुके कॉलेज को लेकर कई बार चिंता जताई गई, लेकिन कुछ भी नहीं बदला। अब नवप्राचार्य के रूप में नवादा जिला के कटौना निवासी डॉ. संजय कुमार ने पदभार संभाला है। आज जब उनसे मिलने कॉलेज गया तो रास्ते में ही बदलाव की झलक दिख गई । कॉलेज के आसपास की झाड़ियाँ साफ की जा रही थीं, और बिहार केसरी की क्षतिग्रस्त प्रतिमा स्थल का पुनर्निर्माण हो रहा था।
डॉ. संजय कुमार से मिलकर लगा कि वे बदलाव के बड़े वाहक बनने का साहस कर रहे हैं। इसके लिए सभी का समर्थन भी मांग रहे हैं। उम्मीद करता हूँ कि वे इस धरोहर को पुनर्जीवित करेंगे।
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15 जुलाई 2025
मगह (मगध) में हमलोग नागपंचमी को नगपांचे बुलाते है
मगह (मगध) में हमलोग नागपंचमी को नगपांचे बुलाते है। पूरे देश में सावन में पिछला पक्ष में नाग पंचमी होता है। हमारे यहां पहला पक्ष में। जो आज है। इस दिन आम और कटहल खाना आम बात है।
खैर, गांव में नागपंचमी का मतलब सुबह सुबह नीम का टहनी तोड़ कर लाना। घर में मुख्य दरवाजे से लेकर हर कमरे में लटकना। यह आज भी चल रहा। आज नागपंचमी में घर में नीम के पत्ते लटक गए। माय कहती थी कि इससे सांप घर में नहीं आता। खैर, यह कितना सच, नहीं पता। पर नागपंचमी में सुबह खाली पेट नीम का पत्ता पीस कर माय जरूर पिलाती थी। नाक मूंद का एक घोंट में एक गिलास गटक जाते थे। एक दम कड़वा। तीखा।
पर माय कहती थी कि इससे खून साफ होता है। बरसाती घाव नहीं होता। आज अब यह तो वैज्ञानिक रूप से सच है।
हां, अब दो, चार साल से नीम पीने का चलन मेरे घर भी खत्म हो गया। वहीं इस दिन कबड्ड़ी खेलने का भी चलन था। बचपन में खूब खेलते थे। अब यह विलुप्ति के कगार पर है। शायद ही किसी गांव में होता है।
वहीं अब सोंचता हूं कि भारत के परंपरागत लोक चलन, संस्कृति को कैसे पश्चिम के अति आधुनिक समाज और उनके मानसिकता के लोगों ने दकियानूसी कह कर खारिज कर दिया। आज वही पश्चिम वाले भारत में नीम, हल्दी इत्यादि का पेटेंट करा के उसका वैज्ञानिक महत्व हमे बता रहे। नीम के नाम पर सौंदर्य प्रसाधन बिक रहे।
जबकि हमारे पुरखे आज के पश्चिम के अति आधुनिक और वैज्ञानिक समाज से कहीं अधिक वैज्ञानिक थे। नागपंचमी में नीम की उपयोगिता उसी वैज्ञानिक सोच का एक उदाहरण है। नीम, रक्त शोधक है। स्वास्थ्य वर्धक है। इसी लिए इसका उपयोग लोक आचरण में है। और हां, नागपंचमी से नए साल में पर्व त्यौहार की शुरुआत होती है। कहा जाता है, विशुआ उसार, नगपांचे पसार। बस इतना ही। आपको कोई बचपन की याद हो तो साझा करें...
21 जून 2025
बैल की जगह खेत में काम कर रहे किसान
योग दिवस है। जो योग नहीं करते वह भी शुभकामनाएं देते है। खैर,
नियमित अभ्यास में शामिल हो तो यह वरदान है।
कल की यह तस्वीर और वीडियो आम गरीब भारतीय किसान, मजदूर के जीवन योग की संलिप्तता जीवन का कैसे हिस्सा है, उसके लिए है।
किसान नवल यादव। बैल अब है नहीं। धान का बिचड़ा गिराना है। खेत जोता हुआ है। अब उसमें चौकी देना है। इसलिए बैल की जगह खुद ही चौकी (पाटा) दे रहे। उनके साथ उनके पोता, पोती भी चुहल कर रहे। इसी बहाने वे जीवन की सबसे कठिन पाठशाला में परिश्रम की पढ़ाई कर रहे।
और यहां, यह भी समझने की बात है कि जिस चावल को हम भोजन के रूप में ग्रहण करते है उसे उपजाना पहाड़ तोड़ने जैसा कठिन कार्य है। आम किसान रोज रोज पहाड़ तोड़ता है। तब भी उनका जीवन अभावों में बीतता है।
और एक बात और। कल शाम में जब शेखपुरा से लौट रहा था । बाइक चलाते हुए। तभी नेमदारगंज गांव के पास सड़क कुछ ही दूरी पर खेत में चौकी चलाते किसान दिख गए। खेत में गया। तस्वीर ले ली। अक्सर यह होता है। सड़क पर चलते हुए आसपास यदि खबर हो तो पता नहीं कैसे दिख जाता है। अक्सर ऐसा होता है।
13 जून 2025
भाषण प्रतियोगिता के माध्यम से युवाओं में संचार कौशल को बढ़ावा देने की पहल
11 जून 2025
संत कबीर: प्रतिमा की पूजा या विचारों की उपेक्षा?
संत कबीर: प्रतिमा की पूजा या विचारों की उपेक्षा?
आज संत कबीर जयंती है। हम प्रतिमा के आगे दीप जला रहे हैं, फूल चढ़ा रहे हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या हम कबीर के विचारों को भी उतनी ही श्रद्धा से याद कर रहे हैं? शायद नहीं।
कबीर, जो निर्गुण भक्ति के उपासक थे, मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी रहे। उन्होंने न केवल हिंदू समाज की रूढ़ियों पर प्रहार किया, बल्कि मुस्लिम समाज की भी आलोचना की। वे किसी भी धर्म के नाम पर किए जाने वाले पाखंडों के घोर विरोधी थे।
"कंकर-पत्थर जोड़ि के मस्जिद लई बनाई,
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा भयो खुदाई?"
कबीर ने यहां अजान की व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए यह पूछा कि क्या ईश्वर बहरा हो गया है, जिसे ऊँचे स्वर में पुकारना पड़ता है?
इसी तरह उन्होंने मूर्ति पूजा को लेकर कहा:
"पत्थर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहाड़,
ता से तो चक्की भली, पीस खाए संसार।"
कबीर ने भक्ति को कर्म से जोड़ा, और वही गीता का भी सार है—कर्म ही प्रधान है।
उन्होंने धार्मिक उन्माद और झगड़ों पर भी गहरा व्यंग्य किया—
"हिंदू कहे मोहि राम प्यारा, तुर्क कहे रहमाना,
आपस में दोऊ लड़ मुए, मरम न कोऊ जाना।"
कबीर के विचार आज भी उतने ही ज़रूरी हैं जितने उस समय थे। पर दुखद विडंबना यह है कि अगर आज कबीर होते, तो शायद उनके सवालों और सच्चाई को सुनकर उन्हें "राष्ट्रविरोधी", "विवादास्पद" या "धर्मविरोधी" कहकर चुप करा दिया जाता।
मेरे बरबीघा प्रखंड के मालदह में—कबीरपंथी मठ आज भी मौजूद है। वहां कबीर के अनुयायियों द्वारा वर्षों तक भजन-कीर्तन और सत्संग का आयोजन होता रहा। पर समय के साथ, हमारी भूख बढ़ती गई और अब मठ की जमीन पर कब्जे की लड़ाई है।
सिर्फ कबीर ही नहीं, बल्कि नानक जैसे संतों की संगतें भी हमारे गांवों में थीं। वे सांप्रदायिक सद्भाव और आध्यात्मिक चेतना के केंद्र हुआ करती थीं। आज यह सब पीछे छूट गया है। अब हमारे पास सोशल मीडिया पर धर्म है, पर आत्मा से खालीपन भी है।
क्या यह विकास है या मूल्यों का ह्रास?
कभी लगता है, भक्ति काल का दौर शायद सभ्यता का शिखर था। कबीर, रहीम, तुलसी, सूर—इन संतों की वाणी में जो व्यापकता थी, वह आज के दौर में दुर्लभ हो गई है।
आज, कबीर को याद करने का असली तरीका यही होगा कि हम उनके विचारों को जीवन में उतारें—उनके साहस, उनके तर्क और उनके धर्म के पार जाकर इंसानियत को देखने वाले दृष्टिकोण को अपनाएं।
09 जून 2025
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